जीवन राग
संस्मरण | आप-बीती विजयानंद विजय29 Mar 2017
मैं एक दुर्गम स्थान पर इलेक्शन करा कर लौट रहा था। शाम हो चुकी थी। वह ऐसी जगह थी जहाँ आवागमन के साधन बहुत कम थे। बड़ी मुश्किल से एक ऑटो वाला मिला। मैंने उससे नज़दीक की बस्ती तक पहुँचाने का अनुरोध किया। तीन घंटे की दूरी थी। बस्ती तक पहुँचते-पहुँचते अँधेरा हो गया। यहाँ से अपने शहर जाने के लिए बस पकड़नी थी। मगर देर हो चुकी थी और आख़िरी बस जा चुकी थी। सर्दियों का मौसम था, और रात हो रही थी। अब सुबह से पहले यहाँ से निकलना मुश्किल था। ऑटो वाले से मैंने वहाँ ठहरने के लिए होटल के बारे में पूछा, तो उसने बताया कि यह छोटी जगह है, यहाँ होटल नहीं मिलेगा। मैं पेशोपेश में पड़ गया। तब तक उसके पास दो-तीन ऑटो वाले और आ गये थे। उसने उनसे जाकर बात की। फिर मेरे पास आकर कहा - "साहब, आप चाहें तो मेरे घर रुक सकते हैं। मैं यहीं पास में ही रहता हूँ।" चारों ऑटो वालों को एक साथ देखकर मैं डर-सा गया था...ज़माना बड़ा ख़राब है... और अनजान जगह! पता नहीं क्या प्लानिंग है उनकी? सोचकर जाड़े में भी मुझे पसीना आ गया। थोड़ी देर बाद फिर उस ऑटो वाले ने कहा - "आप परेशान लग रहे हैं। आपकी तबीयत भी ठीक नहीं है। ...सोच लीजिए,....हम आपका इंतज़ार कर रहे हैं। ...आप भले आदमी लगते हैं। ...इस हाल में हम आपको अकेला नहीं छोड़ सकते।" मुझे आश्चर्य हुआ कि बताए बिना उसने कैसे भाँप लिया कि मुझे तेज़ बुखार था। उसके इन शब्दों ने मेरा डर कम कर दिया था। मेरे पास दूसरा कोई चारा भी नहीं था। मैं उनके साथ जाने को तैयार हो गया।
बस्ती से थोड़ी दूर, सड़क किनारे ही उसका घर था... अधबना... कच्चा-पक्का मकान... जिसमें वह अपने चाचा के साथ रहता था। नीचे गैराजनुमा जगह और ऊपर एक कमरा। वह मुझे सीढ़ी से ऊपर वाले कमरे में ले गया। फ़र्श पर ही काठ के पटरे पर बिस्तर लगा हुआ था। अपना बैग नीचे रख, मैं बगल में रखी कुर्सी पर बैठ गया। गिलास में पानी देते हुए उसने पूछा - "साहब। आप क्या खाएँगे?"
"जो भी तुम लोग खाओगे, मैं खा लूँगा। बस!"- मैंने उसका संकोच मिटाते हुए कहा। फिर... थोड़ा हिचकिचाते हुए उसने कहा - "सत्तू वाली रोटी है… अचार है। खा लेंगे आप?"
"हाँ... हाँ, बिलकुल। क्यों नहीं!" - मैंने उसे पूरी तरह आश्वस्त कर देना चाहा। खाने के बाद वह बोतल में मेरे लिए पानी रख, नीचे गैराज में सोने चला गया। मैं ऊपर के कमरे में अकेला था। मैंने बुखार की दवा खाई। पास में कुछ रुपये, घड़ी, अँगूठी, मोबाइल इत्यादि थे। उन्हें बैग में सुरक्षित रखकर भी मैं ख़ुद को सुरक्षित महसूस नहीं कर रहा था। मन के अंदर समाया डर मुझे सोने नहीं दे रहा था। मैं अर्द्ध बेहोशी की हालत में था... फिर भी मैंने महसूस किया कि रात में कई बार ऊपर आकर उसने मुझसे पूछा था कि मेरी तबीयत कैसी है!
नींद खुली, तो सुबह हो चुकी थी। बुखार उतर चुका था और मैं ख़ुद को हल्का महसूस कर रहा था। मुँह-हाथ धोकर भोर के धुँधलके में ही जब मैं चलने को तैयार हुआ, तो वह मुझे छोड़ने सड़क तक आया। मैंने उसका नाम पूछा। उसने अपना मोबाइल नं. भी मुझे दिया और कहा कि जब भी मैं इधर से गुज़रूँ, तो उसे ज़रूर याद कर लिया करूँ। फिर..उसने बस रुकवाई और मुझे बस में चढ़ा दिया।
बस खुली, तो मैं देर तक भावविभोर हो उसे और उसके घर को नज़रों से ओझल होने तक देखता रहा और सोचता रहा... इतनी बड़ी दुनिया में कोई किसी को कब, कहाँ मिल जाए और फ़रिश्ता बन जाए, कोई नहीं जानता। इसलिए दिल के दरवाज़े हमेशा खुले रखने चाहिएँ। वह मेरा कोई नहीं था, मगर उस रात वह मेरे अपनों से भी अपना था। फिर कभी मेरा उधर जाना नहीं हुआ, न ही कभी उससे मुलाक़ात ही हो पाई। मगर, उस ऑटोवाले की सहृदयता और सदाशयता को इस जीवन में भुला पाना असंभव है। सचमुच, दुनियावी मायाजाल में उलझे इस संसार में इंसान तो सिर्फ़ प्रेम और विश्वास की ही भाषा जानता है। कोमल एहसासों के मज़बूत धागों से बुने ये वो नैसर्गिक भाव हैं, जिसने टूटते रिश्तों के इस काल-खंड में भी मानवता और सृष्टि को बचाए रखा है। ऐसे लोगों की बदौलत ही यह धरती क़ायम है।
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