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झकझोरने वाली कहानियाँ : भावना मिश्रा

‘रात का पहाड़’ (कथा-संग्रह)
लेखक: हेमंत शेष
प्रकाशक: वाग्देवी प्रकाशन, बीकानेर
पुस्तकालय-संस्करण 2012, मूल्य २००/- पृष्ठ संख्या: १४८
ISBN 978-93-80441-09-2

सुविख्यात लेखक/कवि हेमंत शेष का व्यक्तित्व किसी परिचय का मोहताज नहीं। वह कई कला-विधाओं में समान रूप से आवाजाही करते रहे हैं। मेरे निकट इनका हाल में प्रकाशित कहानी संग्रह पुस्तक ‘रात का पहाड़’ पढ़ना एक सुखद अनुभव रहा है। यह आधुनिक गद्य की एक अनोखी यात्रा है जो नित नए मोड़ से गुज़रकर विचारों की भूमि को सींचती हमें ऐसे धरातल पर लाकर छोड़ती है जहाँ प्रश्न और उत्तर एकाकार हो जाते हैं। लीक से हटकर लिखी गई ये कहानियाँ विचारोत्तेजक होने के साथ-साथ चिंतन की प्रक्रिया को एक नया आयाम प्रदान करती हैं। हर कहानी ऐसी है जो संयमित शब्दों में एक नदी की भाँति सरल प्रवाह में बहती जाती है। यहाँ विचारों की क्लिष्टता भी नहीं, किन्तु इसे पढ़ने वाले वे ही पाठक शायद इसका पूर्ण आनंद ले पाएँगे जिनका वैचारिक ‘तंत्र एवम यन्त्र’ दोनों ही बहु-आयामी हों। ये कहानियाँ गद्य लेखन में एक नई शैली को जन्म देती हैं जो पाठक के घटना-बोध को असीमित आकाश उपलब्ध कराता है। नायक–नायिका और तमाम रूटीन घटनाओं के आडम्बरों से इतर इन लघु-कथाओं को किसी थीम या नायक तत्व की दरकार नहीं। कई स्थानों पर तो लेखक ने निर्जीव वस्तुओं के इतिहास और संभावनाओं का भी ऐसा समृद्ध वर्णन किया है कि वे तक यहाँ जीवंत हो उठी हैं।

इस संग्रह की प्रतिनिधि कहानी ‘पहाड़’ को पढ़ने भर से ही आपको इस संग्रह के आस्वाद का अनुभव होने लगेगा। हालाँकि प्रतिनिधि कहानी में ही जिस प्रकार का वैचारिक संश्लेषण परिलक्षित होता है, उससे कुछ हद यह कहानी साधारण स्तरीय पाठक के लिए उतनी आकर्षक नहीं होगी। इस प्रकार लगभग यहीं से यह तय हो जाता है कि एक विशिष्ट वर्ग ही इन कथाओं का पूर्ण आस्वादन कर पाएगा।

इस संग्रह में लेखक एक ओर अपनी ही ‘याददाश्त’ से हास्य का सृजन करता है और दूसरी ओर ‘कांटा’ नामक कहानी के माध्यम से स्यूडो-इंटेलेक्चुअल का चोगा धारण करने वाले तथाकथित बौद्धिक वर्ग को अपने हास्य के बाणों से धराशायी करता है। इस संग्रह को पढ़ते-पढ़ते ऐसा लगने लगता है कि शायद ‘हास्य’ ही हेमंत शेष की प्रतिनिधि शैली हो, बिना विषयवस्तु से अन्याय किये, सहज ताने-बाने में हास्य को इस प्रकार पिरोना कि पाठक अनेक स्थानों पर ‘वाह!!’ किये बगैर न रह सकेंगे।

‘दही-बड़ा’, ‘मरना’ और ‘स्वार्थ’ कथाएँ लेखक की मौलिक शैली की परिचायक हैं। गहरा यथार्थ समेटे ये कथाएँ ऐसी वास्तविकता से रु-ब-रु कराती हैं जो संभवतः हास्य की अनुपस्थिति में घोर अरुचिकर लग सकती थीं। ‘व्यस्तता’, ‘सपने’, ‘यात्रा’ और ‘शंस्कृति’, इन कथाओं में जो सहज हास्य का पुट है वह आपको संक्रमित करके ही मानेगा। ‘यात्रा’ नामक कथा से ‘गंवाई-बस यात्रा’ एक बानगी :

"और अंत में प्रार्थना"हे ईश्वर!! इस बस को ठसाठस इतना भर दो कि यह किसी तरह चले तो सही... और मैं स्वाधीन, सम्प्रभुतावादी समाजवादी गणतंत्र भारत के एक सौ दो नागरिकों के साथ ग्राम हर्सोला तहसील मंडावर जिला अलवर पहुँच सकूँ!"

इन कथाओं में यदा-कदा एक और लक्षण दर्शनीय होता है, कुछ प्रवृत्ति के रूप में और कुछ अनुभव के रूप में। अपने जीवन के कई दशक जब हेमंत शेष ने एक प्रशासनिक अधिकारी के रूप में अनेक दायित्वों का पालन किया है और कर रहे हैं तो भला उनका साहित्य इससे कैसे अछूता रह सकता है। ‘घंटी’, ‘झाड़ू’, ‘कार्य-कारण’, ‘शिकायत’ एवम ‘मुहावरा: चार’ आदि उन चंद कथाओं में हैं जो इस क्षेत्र में उनके गहन, व्यापक और सूक्ष्म अनुभवों को चित्रित करती हैं। लेखक एक अजूबी प्रतिभा के फलस्वरूप किसी भी स्त्री/पुरुष के मस्तिष्क में अस्थायी तौर पर निवास करने की क्षमता रखता है और उसके विचारों को सरलतम रूप में हम तक पहुँचाता है. हालाँकि यह एक जटिल-प्रक्रिया है किन्तु इसकी जटिलता कथा को कहीं भी क्लिष्ट नहीं करने पाती है, यहाँ एक उद्धरण आवश्यक प्रतीत होता है, ‘मुहावरा: चार’ से,

"ट्रक पूरा भरा हुआ था और बरेली जा रहा था।
पूछने पर ड्राइवर ने कहा- इस में बांस भरे हैं बाबू साब!
मैंने उससे कहा- यार! इस कहानी में नया कुछ भी नहीं।
हमारे राजस्थान में बहुत से आई.ए.एस. अफसर ऐसे हैं जो पशुपालन सचिव के रूप में ऊँटों का अध्ययन करने ऑस्ट्रेलिया वगैरह जाते रहते हैं।"

कुछ कथाएँ पाठक को हलके से गुदगुदाती हुई लगेंगी जैसे, ‘शब्द’, ‘माँ’, ‘हिंदी’, ‘साहित्य’, ‘बदलाव’ ‘दरवाज़ा’ आदि। ये सभी लेखक की मौलिक साहित्यिक चुहल हैं जो एक मीठा सा अनुभव छोड़ जाती हैं। इसका एक नमूना शब्द नामक कहानी में देखा जा सकता है..

"अंग्रेजी का ‘प्लीज़’ शब्द कई बार हिन्दुस्तानी दांपत्य में काम नहीं करता!"

कुछ कथाओं में निचले और असहाय तबके के प्रति लेखक हृदय द्रवीभूत हो उठा है और उनकी दशा/दुर्दशा का सटीक एवम मार्मिक प्रस्तुतीकरण किया है, जैसे, दर्जी, रुदाली, कार्य-कारण : एक, आदिवासी, बलात्कार आदि। इन कथाओं के साथ न्याय करने का एक मात्र साधन इनको पढ़ना ही होगा। क्योंकि शब्दों के कितने भी जाल बुने जाएँ पर शायद वे इन कहानियों की आत्मा को छू भी न सकेंगे।\

लेखक हम में से ही, हमारे बीच का ही एक जागरूक नागरिक है जो हमारी ही तरह प्रगतिशील जीवन की कई कठिनाइयों से रोज़ाना दो-चार होता है और उसने अपने इन अनुभवों को बिना किसी लाग-लपेट साझा किया है, ‘सब्जियाँ’ और ‘भूमंडलीकरण’ आज के समाज का प्रतिनिधित्व करती हैं। हम अपने जीवन के इस कदर आदी हो चुके हैं कि हमने कुछ विशेष बातों की अनदेखी सीख ली है और हमारे मन ने स्थायी बहाने तलाश लिए हैं। शहरी जीवन का साइड-इफेक्ट।

इस संग्रह की कई कहानियाँ आपके मस्तिष्क को लम्बे समय तक झकझोरने वाली हैं। जिसका अनुभव मुझे अभी तक हो रहा है। इस दृष्टि से ‘रिसर्च’, ‘हिंदी साहित्य’, ‘आदिवासी’ आदि कथाएँ प्रमुख और अमूल्य हैं।

‘आदिवासी’ नामक कहानी से एक संक्षिप्त अंश:

"भूखे आदिवासी हमेशा इतना अच्छा नाचते हैं कि मॉरिशस और कांगो के राष्ट्रपति उनके लिए खड़े हो कर तब तक ताली बजाते हैं जब तक वे समूह में नाचते-नाचते लबे राजपथ से ओझल नहीं हो जाते..."

बाजारवाद और विज्ञापन का हमारे जीवन के तमाम संवेदी क्षेत्रों में जो दखल हुआ है और जिस गहराई से इनकी जड़ें हमारे समाज में फ़ैल चुकी हैं उसे लेखक ने बाज़ार : एक और बाज़ार : दो में बेहतरीन ढंग से कहा है।

हिंदी साहित्य की परम्पराओं और हिंदी के साहित्य-समाज पर भी लेखक ने कुशलतापूर्वक व्यंग्य-बाण चलाए हैं। ‘आलोचक’, ‘कहानीकार’, ‘हिंदी-साहित्य’ आदि में इन्हें पढ़ने का आनंद ही अनोखा होगा।

समग्रता से यदि इस संग्रह पर दृष्टि डालें तो पाएँगे कि यह कथाएँ एक अद्भुत कलेवर के साथ प्रस्तुत की गई हैं। कहीं पर लेखक ‘लड़कियाँ’ नामक कहानी के माध्यम से स्त्री-मन की गहराइयों की थाह लेता है, उनकी सूक्ष्मतम क्रियाओं/प्रतिक्रियाओं पर ऐसी व्यापक और पैनी दृष्टि डालता है कि स्वयं स्त्रियाँ भी इसे स्वीकारने से कोई गुरेज़ न कर सकेंगी। जीवन का व्यापक अनुभव लेखनी में और भी उभर कर आया है। ‘तस्वीर’ कहानी के माध्यम से लेखक एक बच्चे के मस्तिष्क में उतनी ही सहजता से प्रवेश करता है जितनी सहजता के साथ अभी वह उन ‘इक्यासी हज़ार लड़कियों’ के मस्तिष्क में विचरण कर रहा था।

प्रत्येक आयु-वर्ग के साथ लेखक की सहजता प्रशंसनीय है। ‘इरादा’, ‘कहानी’ और ‘आवाज़’ जैसी कथाएँ इस दृष्टिकोण को सिद्ध करती हैं। ‘किताब’ नामक कहानी लेखक के व्यापक अनुभव का प्रत्यक्ष दस्तावेज़ है और उसकी सोच के धरातल को हमारे सम्मुख स्पष्ट करती है। साधारण में असाधारण का समावेश और असाधारण में साधारण के दर्शन, लेखक की अद्वितीय क्षमता का ही नमूना है। प्रकृति के प्रति हमारे अन्य इतर विषयों पर।

‘कहानीकार: तीन’, एक ऐसी कहानी है जो धीमा असर करेगी यदि इसे धैर्य के साथ पढ़ा गया तो। इसके लिए मेरे पास प्रशंसा के शब्द नहीं है किन्तु इस पर कुछ सुनने/पढ़ने की इच्छा अवश्य है।
यहाँ एक दूसरा पक्ष जो उभरकर आता है, वह यह है कि ये लघु कथाएँ पाठक को किसी अपूर्णता का अनुभव करा सकती हैं। किन्तु सार्वजनिक प्रतिक्रिया प्राप्त न होने तक यह एक खयाली पुलाव ही होगा- किन्तु साथ ही यह भी सत्य ही रहेगा कि कुछ भी हो यह संग्रह एक प्रयोग ही है, और प्रयोग में सफलता एवम असफलता दोनों की प्रायिकता समान ही होती है।

कुछ कथाएँ जो निबंधात्मक शैली में हैं, वे किसी अधैर्यवान पाठक को उबाऊ लग सकती हैं - क्योंकि कथा संग्रह का असली मनोरंजन तो घटनाओं से होता है मात्र विषयवस्तु की व्यापकता पर प्रकाश पाठक की रुचि के विपरीत हो सकता है। जैसे, ‘किताब’ नामक कहानी पाठकों को अन्य की तुलना में शायद कम रुचिकर लगे। ‘कुर्सी’ एवम ‘चीटियाँ’ भी आम पाठकों के लिए सहज बोधगम्य न होंगी। ‘था, थे, थी कहानी’ अपार मनोरंजक होने के साथ ही आवश्यकता से कुछ अधिक लम्बी खिंच गई लगती है। यह इस संग्रह की सबसे लम्बी कहानी भी है।

शेष क्या कहा जाये क्योंकि अंत में उपसंहार के माध्यम से शेष जी ने अपना मंतव्य/स्थिति पूर्णरूपेण स्पष्ट कर ही दी है। “अब ये किताब है और आप हैं|”

समीक्षा के अंत में एक और पंक्ति अपने स्वार्थवश जोड़ना चाहूँगी कि, यह प्रेरक संग्रह अवश्य ही इस नवीन विधा में पाठकों की रुचि विकसित करेगा और गद्य की एकरसता से कुछ अवकाश भी दिलाएगा. लेकिन यह संग्रह, इसकी रूपरेखा, विषयवस्तु एवम शैली निश्चित रूप से एक विशिष्ट और अलग सौन्दर्यबोध वाले पाठक वर्ग को अधिक लक्षित करते हैं और यह इसकी लोकप्रियता या व्यापकता को प्रभावित करने वाला कारक होगा।

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