जियो और जीने दो
काव्य साहित्य | कविता परी एम ’श्लोक’6 Feb 2015
तुम्हारी सरज़मीं पर उगते हैं
आतंक के पौधे,
देख-रेख में तैयार होता है
दहशतगर्दी का शज़र,
भावनाओं की शाख पर लटकते हैं
साज़िशों के फल...
क्या दोगे आखिर तोहफे में
अपनी आने वाली पीढ़ी को?
कैसे बनाओगे तुम
एक खूबसूरत कल?
सुनो !
कब्रिस्तानों में
बनायें नहीं जाते घर,
नफरतों के शीशमहल
होतें हैं कमउम्र,
यदि तुम्हारे शब्द
तुम्हारे कर्मो से मेल खाते,
तो तुम इंसानियत के
सबसे बड़े इम्तिहान में
यूँ फेल ना हो जाते...
रहनें दो...छोड़ो भी अब
बस बहुत हुआ...
इस तरह ना
आदमी को आदमी का
खून पीने दो,
इल्तिज़ा है मेरी यही
जियो और जीने दो !!
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