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जोरू का गुलाम

सुरेश ठीक एक साल बाद घर आया है। उसके हाथ में एक बडा सा सूटकेस है। घर के अंदर प्रवेश करते ही उसने अपने पिता और माँ के चरण स्पर्ष किए और अपना सूटकेस खोलकर कपड़े निकालने लगा। उसने सबसे पहले एक बेहतरीन सी साड़ी निकालकर अपने माँ को देते हुए कहा, "अम्माजी यह आपके लिए।" फिर उसने धोती-कुर्ता निकालकर अपने पिता को देते हुए कहा, "पिताजी यह आपके लिए।" उसने एक के बाद कपड़े निकालते हुए घर के सभी सदस्यों को दिए। बच्चे अपने मनपसंद कपड़े और खिलौने पाकर बेहर उत्साहित थे। माँ तो जैसे निहाल ही हो गई थी। वे बार-बार उसे आशीष देती और कहती रही कि कितना ध्यान रखता है सुरेश घर के सभी सदस्यों का।

पिता कुर्सी में धँसे उसको यह सब करता देख, सोच रहे थे, " कितना कुशल खिलाड़ी है सुरेश, कुछ कपड़े और रक़म देकर वाहवाही लूट रहा है। कहाँ था उस समय जब उसकी माँ सख़्त बिमार पड़ी थी। बार-बार टेलीग्राम देने के बाद भी वह घड़ी भर की फ़ुर्सत नहीं निकाल पाया और न ही उसने फ़ोन करके उसके हाल-चाल ही जानना चाहा। अगर घर में रमेश नहीं होता, तो भाग-दौड़ कौन करता? वह माँ को समय पर अस्पताल ले गया और चार दिन तक वहीं डटा रहा, जब तक वह ठीक नहीं हो गई। उन्होंने देखा कि वह एक ओर खडा अपने भाई की जादूगरी देख रहा था, लेकिन चुप्पी साधे हुए था। तभी उनकी नज़र अपनी छड़ी पर गई। उन्हें वह दिन याद हो आया जब वे एक दिन बाथरूम में फ़िसलकर गिर पड़े थे, तब भी सुरेश को ख़बर दी गई थी,लेकिन काम की अधिकता बतलाते हुए उसने बाद में आऊँगा, कहकर इतिश्री कर ली थी। हाँलाकि पैर में फ़्रैक्चर था, संयोग से तब भी रमेश घर पर ही था। उसने तत्काल उनका डाक्टरी परीक्षण करवाया था और बाद में एक छड़ी ले आया था। जिसके सहारे वे चल-फिर सके थे। घंटे-आध घंटे में यह सब निपट गया तो पिता ने पहल करते हुए पूछा, "सुरेश, बहू और बच्चों को भी साथ ले आते तो ये बूढ़ी आँखें निहाल हो जातीं। उन्हें देखने को हम कब से तरस रहे हैं।" वे आगे कुछ और कह पाते कि सुरेश ने कहा, "बाबूजी, आशा साथ आने वाली तो थी, लेकिन इस समय कापियाँ जाँचने में उसकी ड्युटी लगी है। फिर कभी आ जाएगी।"

बाबूजी जानते थे कि आशा इस समय अपने मायके में होगी। वह यह भी जानते थे कि उसे गाँव से एलर्जी है। उसका दम घुटता है गाँव में। असल बात एक तो यह भी है कि वह हम लोगॊं के बीच रहना ही नहीं चाहती। सब कुछ जानता है सुरेश, बावजूद इसके, वह केवल बहाने गढ़ रहा है। "जोरू का गुलाम" बुदबुदाते हुए वे अपनी कुर्सी से उठे और अपने कमरे में चले गए।

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