जूता संहिता
हास्य-व्यंग्य | हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी दिलीप कुमार1 Mar 2021 (अंक: 176, प्रथम, 2021 में प्रकाशित)
जिस प्रकार लोकतंत्र को ठीक-ठाक ढंग से चलाने के लिये तमाम नियमों क़ानूनों की आवश्यकता होती है उसी प्रकार जूता चलाने से भी बहुत सारे लोग शुद्ध रहते हैं ऐसा जूतमपैजार के विशेषज्ञों का दावा है।
जूता बनाना कोई बहुत बड़ा टास्क नहीं है, गली के नुक्कड़ से लेकर विश्व स्तर की कम्पनियाँ भी जूता बनाती हैं; लेकिन जूतमपैजार के विशेषज्ञों का दावा है कि विवाह में जीजा का साली द्वारा चुराया गया जूता ही विश्व के सबसे अच्छे निवेश में माना गया है और इसकी कमाई स्त्रीधन के श्रेणी में आती है और इसे करमुक्त ही माना जाना चाहिये। भले ही जीजा उर्फ़ दूल्हा बेरोज़गार हो और नौकरी खोजते-खोजते उसकी एड़ियाँ भी जूतों की तरह घिस गयी हों लेकिन उस दिन उसकी जूते पर ख़र्च की गयी रक़म ही उसकी पगड़ी की शान है और यही जीजा-साली के रिश्तों की मधुरता के पैमाने का मानक होगी। जूतमपैजार विशेषज्ञों ने रैलियों में उछाले जाने वाले जूते के निवेश को सबसे निम्न कोटि का माना है क्योंकि इससे फेंका गया जूता भी वापस नहीं मिलता और पिटाई जो होती है वो अलग से।
जूता आदिकाल से मौजूद था, कभी चरण पादुका था अब जूता कहा जाता है। रावण के दरबार में भी कहा गया था –
"नीति विरोध ना मारिये दूता"
अब के दरबारों में कहा जाता है –
"प्रीति विरोध ना मारिये जूता"
जी हाँ क्यों ना आगामी वर्ष को जूता वर्ष घोषित कर दिया जाये। क्योंकि आगामी वर्ष चुनाव का वर्ष है और चुनाव में जूतों की डिमांड बहुत बढ़ जाती है। यदि किसी नेता को जूता फेंककर मार दिया जाये तो रातों-रात उसकी लोकप्रियता बढ़ जाती है। नेता भी ऐसे ही जूते बनवाते हैं जिसे पहन कर वे भाग सकें। जूता कंपनियों ने विशेष तरह के जूते बनाये हैं कि कौन सा जूता किस नेता पर फिट बैठेगा। कुछ कंपनियाँ तो उत्साह में प्रचार अभियान चला रही हैं कि हमारा जूता शुभ होता है; उसे खाकर देखो फलां नेता कहाँ से कहाँ पहुँच गया। कई लोगों ने तो अपनी जन्मपत्री तक दिखवा ली है किस शुभ घड़ी में अपने ऊपर जूता फ़ेंकवाने से वे नेतागीरी में कितने ऊपर जा सकते हैं। इसलिए जूतों के भी अच्छे दिन आएँगे और जूता वर्ष घोषित करने में कोई हर्ज नहीं है। लोग आगामी चुनावी वर्ष को जूता उद्धार वर्ष घोषित करवाने में जुटे हैं।
जूतों के महिमामण्डन में नज़ीर साहब फ़रमा गए हैं –
"जो मस्जिद से जूते चुराए है वो भी आदमी
जो उनको चुराते हुए देखे है वो भी आदमी"
भारत बहुत बदल गया है अब यहाँ सिर्फ़ यहीं नहीं चलता कि–
"रहिमन वे नर(नारी) मर चुके जे कहीं माँगन जाएँ
उनसे पहले वे मरे, मुख से निकलत नाहिं।"
साहित्य में बहुत लोगों ने हो हल्ला मचाया था जब कवि/कवियत्री ने गुदा वर्ष पर कवितायें लिखी थीं अब देखिए हिंदी की सबसे उर्वर और धनाढ्य संस्था ने कवियत्री की कविताओं को प्रकाशन के लिये चुना है। कुछ लोगों को हैरानी भरी ख़ुशी है कि जूते को पगड़ी की जगह बनते देर नहीं लगती।
दो रोज़ पहले एक युवा कवि पूछ रहे थे कि मेरे पास कुछ बेकार कवितायें पड़ी हैं उन्हें क्या यहाँ पोस्ट कर दूँ तो मैंने उन्हें कुछ सलाह दी थी, पुनः कहता हूँ कि –
"हे पार्थ, इस उत्तर आधुनिक युग में बेकार कुछ नहीं होता जो आपके लिए बेकार है वो किसी और के लिये क्रांति का हथियार है। हे धनंजय, गीता का यथार्थ यही है कि तुम बस कर्म करते जाओ, फ़ेलोशिप, विदेश अध्ययन यात्रा, उत्कृष्ट प्रकाशन से प्रकाशित होने का मोह त्याग दो।
हे वत्स, यदि तुम्हारी कवितायें किसी की समझ में आ गयीं तो तुम्हारा जीवन व्यर्थ गया। जब तुम्हारी कविता पढ़ने के बाद पाठक पूछे कि ये क्या था गद्य या पद्य? तब समझ लो सफलता का स्वाद तुमने चख लिया है। बैड इज़ न्यू गुड (बुरा ही अच्छा है) के मर्म को समझो।"
इसी उपदेश के दौरान एक विदुषी आयी उसने कहा कि –
"हे मूर्ख उपदेशक, मेरी कविताओं पर चेकोस्लोवाकिया में शोध हो रहा है, मेरी बिंदी ट्रेंडसेटर हो गयी है, पहले चार हज़ार की नौकरी करती थी और तुम जैसे गये-गुज़रे की बात मान कर नेह-मोह की कवितायें लिखा करती थी। फिर मैंने मोह-माया त्याग दी अब देश-विदेश में मेरी धाक है; मेरे पति भी नौकरी छोड़कर अब जन कल्याण करते हैं; बेटे का इंजीनियरिंग कॉलेज में दाख़िला हो गया; अगले महीने क्यूबा जा रही हूँ।"
मैंने हाथ जोड़कर पूछा – "किसलिये?"
विदुषी ने कहा – "आज़ादी हेतु, जूतों से आज़ादी। ये जूतों का शोषण है कि वे सिर्फ़ पैरों में पहने जाएँ। सदियों से वो भी शोषित रहे हैं, दबे-कुचले रहे हैं, जॉर्ज बुश के सर तक दो बार पहुँच सकते हैं, तो हमारे देश में वो पैरों में क्यों रहें उन्हें भी आगे आने का मौक़ा दिया जाये। सिर का आधा हिस्सा जूतों को रखने के लिये आरक्षित किया जाये। हम इसके ख़िलाफ़ आंदोलन करेंगी और इसी के लिये हम लोग क्यूबा जा रही हैं।"
मैंने पूछा– "क्यूबा ही क्यों, दिल्ली में जंतर-मंतर है, मुंबई में आज़ाद मैदान है।"
उन्होंने कहा– "चुप बे, ख़ुद कहता है कि बैड इज़ न्यू गुड। ख़ुद भूल जाता है, अबे क्यूबा जाऊँगी तभी तो अमरीका में बुलायी जाऊँगी।"
मुझे हैरानी हुई– "लेकिन आपकी तो नौकरी छूट गयी थी। मेट्रो में चलने तक पैसा नहीं होता था फिर आपका वीज़ा पासपोर्ट इतनी जल्दी?"
विदुषी मुस्करा पड़ी– "कान इधर ला बे ढक्कन।"
वो मेरे कान में फुसफुसाते हुए बोलीं– "अबे जब बेगूसराय में अपने गाँव गेहूँ चावल लेने जाती हूँ तो उसे कोडवर्ड में क्यूबा कह देती हूँ फ़ेसबुक पोस्ट पर। धान-गेहूँ लादकर जब दिल्ली आ जाती हूँ तो लोग मेरे क्रांतिकारी भ्रमण को सुनने के लिए मुझे बुलाते हैं।"
"ऐसा आप में क्या है कि लोग आपको सुनें?" मेरे मुंह से बेसाख़्ता निकल गया।
ये सुनते ही उस विदुषी ने मुझे फेंक कर जूता मारा।
उसने जूता मारा या जूती और क्यों मारा ये प्रश्न उतना ही जटिल है जितना कि सड़जी का वादा।
मेरा जवाब सिर्फ़ जॉर्ज बुश की तरह है जो इराक में उन पर फेंके गए जूते के बाद कहा था– "मैं सिर्फ़ इतना कह सकता हूँ कि फुटवियर छः नंबर का था।"
विदुषी ने हँसते हुए कहा– "क्यों बे, बासी तरकारी तूने देखा जूता था या जूती?"
मैंने उन्हें बड़ी हसरत से देखा और बोला– "चचा ग़ालिब से एक बार किसी ने पूछा था कि जूते-जूती में क्या फ़र्क़ होता है। उस्ताद ने फ़रमाया था कि ज़ोर से पड़े तो उसे जूता कहते हैं और आहिस्ता से कोई मारे तो उसे जूतियाँ कहते हैं।"
ये सुनते ही उत्तर आधुनिका ने अपना फुटवियर निकाल कर सिर के ऊपर ले जाकर लहराया और चिल्लाई –
"वी वांट फ्रीडम!"
मेरे भी पैरों में खुजली शुरू हो गयी है।
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