अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

ज्वालामुखी

भीषण ठंड पड रही थी।

अलाव के आसपास बैठे पाँच-सात लोग, अपनी बूढ़ी हड्डियों को गर्मा रहे थे और चिलम, बारी-बारी से एक के बाद दूसरे के बीच घूम रही थी। बातचीत का सिलसिला अभी शुरू नहीं हुआ था।

देर से पसरे सन्नाटे को तोड़ते हुए एक ने दूसरे से कहा- "सुबह का अखबार तुमने तो पढ़ा ही होगा? क्या जमाना आ गया है, मनचले लोग लड़कियों को अपना निशान बना रहे हैं और तो और वे बूढ़ी औरतों और नाबालिक बच्चियों तक को नहीं छोड़ रहे हैं। अपने ज़माने में तो ऐसा कभी सुनने में नहीं आया!"

“कलियुग नहीं, घोर कलियुग आ गया है, तभी तो ऎसा हो रहा है," -दूसरे ने कहा।

"अभी क्या हुआ है? देखते जाओ, आगे और क्या-क्या होता है," तीसरे का स्वर गूँजा था।

“मेरे अनुसार कानून ही लचर किस्म के हैं और फिर पुलिस भी तो निक्कमी बैठी रहती है, यदि सख्त कानून होता और पुलिस इन शोहदों की धर-पकड़ करे तो अंकुश लगाया जा सकता है," चौथे ने कहा।

सभी के पास अपने-अपने तर्क थे और बहस बढ़ती ही जा रही थी।

पास ही एक लड़का बैठा, बूढों की बातों को ध्यान से सुन रहा था। उसने पाँच साल पहले एम.काम. प्रथम श्रेणी में पास किया था और अब तक खाली बैठा है, फट पडा।

“शायद आप ठीक कह रहे हैं। लेकिन क्या आप में से किसी ने उसी अखबार में यह भी तो पढ़ा होगा कि सरकार ने उसके मातहत काम करने वाले कर्मचारियों के कार्यकाल में वृद्धि करते पैंसठ साल कर दी है, उसमें तो यह भी लिखा है कि भविष्य में उसे बढ़ाकर सत्तर कर दी जाएगी। क्या यह ठीक है? जबकि सरकार जानती है कि देश के लाखों लड़कों ने ऊँची-ऊँची तालीमें हासिल की हैं, वह भी अच्छे नम्बरों के साथ। उन्हें नौकरियाँ क्यों नहीं दी जा रही? क्या वे इस लायक नहीं है? मुफ़्त में बैठे-बैठे वे रोटियाँ तोड़ रहे हैं और माँ-बाप की छाती पर बैठे मूँग दल रहे हैं। यदि उन्हें अपनी योग्यता के आधार पर सम्मानजनक पद पर बैठा दिया जाए, तो अपराधों में कमी आएगी, पर बूढ़े हैं कि अपना सिंहासन छोड़ने को तैयार नहीं, जबकि उनके पैर कब्र में लटक रहे हैं।"

उसने बात को आगे बढाते हुए कहा- “दादा.. पुलिस को अकेले दो‍ष देने से काम नहीं चलेगा। आप एक बात बतलाएँ... आपके शहर की जनसंख्या कितनी है? नहीं मालूम न! लो मैं बताता हूँ। इस शहर की जनसंख्या करीब डेढ़ लाख है, जबकि पुलिस-बल में कुल सात सौ पुलिसकर्मी काम कर रहे हैं। इनमें से लगभग दस-पंद्रह प्रतिशत छ्ट्टी पर रहते हैं। दस प्रतिशत आला अफ़सरों के घरों की निगरानी करते हैं। लगभग इतने ही लोग कोर्ट-कचहरी के काम पर तैनात होते हैं, और चौराहों पर ट्रैफ़िक कंट्रोल करते हैं। काम करते-करते कुछ बीमार भी पड़ जाते हैं अब आप ही बताएँ कि मुठ्ठी भर पुलिस कर्मी इतने बड़े शहर में क्या देखें और क्या पता लगाएँ कि अपराधी कब, क्या और कहाँ क्या करने जा रहा है? इसीलिए तो मैं कहता हूँ कि सड़कों पर आवारा घूमते पढ़े-लिखे लोगों को रोज़गार मिल जाए, तो उन्हें समय ही कहाँ मिल पाएगा कि वे अपराध करने लगेंगे?"

बूढ़े अब यह सोचने पर मजबूर हो गए थे कि लड़का शायद ठीक कह रहा है।

अलाव की आँच अब धीमी पड़ने लगी थी और बूढ़े धीरे-धीरे अपनी जगह से खिसकने लगे थे। लेकिन उस नौजवान के अन्दर धधकते ज्वालामुखी से लावा बह रहा था।

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

105 नम्बर
|

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते…

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

ललित कला

कविता

सामाजिक आलेख

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

सांस्कृतिक कथा

ऐतिहासिक

पुस्तक समीक्षा

कहानी

स्मृति लेख

लघुकथा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं