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कालजयी उपन्यासकार प्रेमचंद

हिंदी उपन्यास साहित्य को एक अलग मोड़ देनेवाले रचनाकार के रूप प्रेमचंद को जाना जाता है। जिन्होंने उपन्यास को मानवीय संवेदनाओं के साथ जोड़ा। दीन-दलित, शहर-गाँव, किसान, मज़ूदर, स्त्री जीवन को पहली बार हिंदी उपन्यास में अभिव्यक्ति देने का कार्य किया। उनका मानना था कि साहित्य में जीवन की सच्चाई को अभिव्यक्ति हो ‘प्रगतिशील लेखक संघ‘ के अध्यक्षीय मन्तव्य में वे कहते हैं कि, "हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा, जिसमें उच्च चिन्तन हो, स्वाधीनता का भाव हो, सौंदर्य का सार हो, सृृजन की आत्मा हो, जीवन की सच्चाइयों का प्रकाश हो- जो हम में गति, संघर्ष, घोर बेचैनी पैदा करे, सुलाए नहीं, क्योंकि अब और ज़्यादा सोना मृृत्यु का लक्षण है।"1 इससे कहा जा सकता है कि प्रेमचंद साहित्य को मनुष्य को सोचने के लिए परावृृत्त करनेवाला हो, उसे अपने अंदर झाँकने के लिए बाध्य करे। ऐसे चैतन्यशील उपन्यासकार प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1880 ई. में उत्तरप्रदेश के प्रसिद्ध शहर बनारस के पास स्थित लमही नामक ग्राम में हुआ। प्रेमचंद केवल हिंदी और उर्दू में लेखन करनेवाले कथाकार ही नहीं बल्कि भारतीय साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर के रूप में सर्वपरिचित है। इसीलिए बांग्ला के प्रसिद्ध उपन्यासकार शरदचंद्र चट्टोपाध्याय ने उन्हें ‘उपन्यास सम्राट‘ कहकर संबोधित किया। प्रेमचंद का पूरा नाम  धनपतराय अजबराय श्रीवास्तव है। उन्हें नवाबराय के नाम से भी जाना जाता है। ‘सोजेवतन‘ नाम से 1908 ई. में उन्होंने कहानी संग्रह लिखा किन्तु अँग्रेज़ों ने उसपर पाबंदी लगायी। तब उर्दू के प्रसिद्ध लेखक और संपादक दयानारायण निगम ने उन्हें ‘प्रेमचंद‘ नाम दिया। 

प्रेमचंद ने कुल तीन सौ कहानियाँ लिखीं जो मानसरोवर के 8 भागों में संपादित हैं। प्रेमचंद ने कुल पंद्रह उपन्यास लिखे। जिनमें प्रेमा, किशना, रूठी रानी, वरदान जैसे छोटे उपन्यास हैं। इसके अलावा उनके महत्वपूर्ण उपन्यास सेवासदन 1918 ई., प्रेमाश्रम 1921 ई., रंगभूमि 1925 ई., कायाकल्प 1926 ई., निर्मला 1926 ई., प्रतिज्ञा 1927 ई., गबन 1931 ई., कर्मभूमि 1932 ई., गोदान 1936 ई. और अंतिम उपन्यास जो उनके देहांत के बाद पूरा किया गया मंगलसूत्र 1948 ई.। यह सभी उपन्यास साहित्य की अनमोल निधि कहे जाते हैं। इसके अलावा उन्होंने कर्बला और संघर्ष नाम से नाटक भी लिखे किन्तु वे कथाकार के रूप में ही सर्व प्रसिद्ध रहे हैं। उन्होंने हिंदी उपन्यास साहित्य को तिलस्मी, जासूसी एवं मनोरंजन प्रधानता से उठाकर मनुष्य जीवन के साथ जोड़ा। दीन-दलित, शोषित इनके लेखन का विषय रहे। एक तरह से तत्कालीन भारतीय समाज और परिस्थितियों को समझने के लिए प्रेमचंद का साहित्य महत्वपूर्ण है। 

सेवासदन उनका पहला उपन्यास है जो भारतीय नारी की पराधीनता को लेकर लिखा गया है। इसमें नारी जीवन की समस्याओं के साथ-साथ समाज में व्याप्त धर्माचार्यों, मठाधीशों, धनपतियों, सुधारकों के आंडम्बर, दंभ, ढोंग, पाखंड, चरित्रहीनता, दहेज़ प्रथा, बेमेल विवाह, पुलिस की घूसखोरी, मनुष्य का दोहरा चरित्र को इस उपन्यास में बड़े प्रभावित ढंग से अभिव्यक्ति मिली है। इस उपन्यास की प्रधान पात्र सुमन है जो समस्त नारी जीवन का प्रतिनिधित्व करती है। "सुमन सुंदर है और गला भी सुरीला है लेकिन पुरुषों द्वारा उसकी इज़्ज़त करना तो दूर, उसके आत्मसम्मान को पग-पग पर ठुकराया जाता है। इसका कारण क्या था? राशि और वर्ग सब मिला लिए थे। मंत्रों के साथ फेरे भी लिए थे फिर भी गृहस्थी में नारी का सम्मान क्यों नहीं होता? क्या? विवाह प्रथा स्वेच्छा से दो मनुष्यों का मिलन नहीं? क्या? स्वामी-पुरुष के लिए एक दासी प्राप्त करने का साधन मात्र थी।"2 ऐसे कई सवालों को प्रेमचंद ने सेवासदन उपन्यास में उठाया है और पुरुष वर्चस्ववादी व्यवस्था की पोल खोल दी है। जो पत्नी को सम्मान नहीं देता किन्तु वेश्या के तलवे चाटता है। इस तरह सामाजिक विसंगति को प्रस्तुति देते हुए सभ्य समझे जानेवाले समाज के सामने प्रश्न उपस्थित करते हैं। सेवासदन का पात्र कुंवर अनिरुद्धसिंह कहता है कि, "हमें वेश्याओं को पतित समझने का कोई अधिकार नहीं। यह हमारी परम धृृष्टता है। हम रात-दिन जो रिश्वतें लेते हैं, सूद खाते हैं, दीनों का रक्त चूसते हैं। असहायों का गला काटते हैं, कदापि इस योग्य नहीं हैं कि समाज के किसी अंग को नीच या तुच्छ समझें। सबसे नीच हम हैं, सबसे पापी, दुराचारी, अन्यायी हम हैं, जो अपने को शिक्षित, सभ्य उदार और उच्च समझते हैं। हमारे शिक्षित भाइयों ही की बदौलत दालमंडी आबाद है, चौक में चहल-पहल है, चकलों में रौनक है। यह मीनाबाज़ार हम लोगों ने ही सजाया है, ये चिड़ियाँ हम लोगों ने ही फँसाई हैं। ये कठपुतलियाँ हमने ही बनाई हैं। जिस समाज में अत्याचारी ज़मींदार, रिश्वती कर्मचारी, अन्यायी महाजन, स्वार्थी बंधु आदर और सम्मान के पात्र हों, वहाँ दालमंडी क्यों न आबाद हो? हराम का धन हरामकारी के सिवा और कहाँ जा सकता है! जिस दिन नज़राना, रिश्वत और सूद-दर-सूद का अंत किए बिना ही आत्मसुधार से समाज को बदल डालना चाहते हैं। समाज-सुधार का एक ही रास्ता है।"3 

इस तरह समाज द्वारा सफ़ेद-पोश समझे जानेवाले लोगों के ऊपर प्रेमचंद कड़ा प्रहार करते हैं। प्रेमाश्रम जो उपन्यास है वह उर्दू में प्रथम ‘गोशए आफिय‘ नाम से लिखा था। जिसका अनुवाद प्रेमाश्रम नाम से किया गया। यह उपन्यास किसानों के जीवन को लेकर लिखा गया है। प्रेमचंद के मतानुसार साहित्यकार का कर्तव्य है कि वह जनता की सेवा करने के लिए साहित्य रचे। हिंदुस्तान की बहुसंख्यक जनता किसानी करती है। इस जनता को छोड़कर औरों के बारे में लिखने से उपन्यासकार अपने देश और युग का प्रतिनिधि कैसे होता? इसलिए उन्होंने किसानों के बारे में लिखा। कृृषकों पर हो रहे अन्याय-अत्याचार के विरोध में उनकी क़लम सदा ही कार्य करती रही। प्रेमाश्रम उपन्यास ज़मींदारी तथा सामंती व्यवस्था के तले पिसते ग़रीब, असहाय किसानों की पीड़ा, सूदखोर महाजनों की निर्दयता एवं अनुदारता, जाति भेद एवं आज़ादी के पूर्व स्थितियों का प्रभाविता से निरूपण करता है। रंगभूमि उपन्यास का अनुवाद प्रेमचंदजी ने 1927 ई. में ‘चौगाने हस्ती‘ नाम से किया। रंगभूमि उपन्यास की मुख्य कथा अंधे भिखारी सूरदास को लेकर रची गयी है, जो अपनी और गाँव की ज़मीन के लिए मरते दम तक लड़ता है। उसकी ज़मीन पर जाॅन सेवक अपना कारखाना बनाना चाहता है किन्तु सूरदास ज़मीन बेचने से इनकार करता है क्योंकि वह ज़मीन जानवरों की चरागाह है। सूरदास का विचार है कि गाँव में कारखाना बनेगा तो गाँव में दुराचार फैलेगा। इस तरह बढ़ते सामंतवाद, औद्योगिक पूँजीवाद, नेता, बुद्धिजीवी, प्रशासन-तंत्र और भारत की उत्पीड़ित जनता को प्रेमचंद यहाँ प्रस्तुत करते हैं। कायाकल्प जागीरदारी प्रथा को विस्तारपूर्वक अंकित करता है। उपन्यास की कथा जगदीशपुर नामक रियासत है। यहाँ की रानी देवप्रिया की विलास लीलाओं और उसके पुनर्जन्म के अलौकिक चमत्कारों से भरी हुई है। इसमें रियासत के ख़र्च के लिए किसानों पर किए जानेवाले अत्याचारों; रियासत की शान-शौक़त, रख-रखाव और उत्सव-त्योहारों पर पानी की तरह बहाए जाने के लिए पैसे कहाँ से आते हैं  पर विचार मंथन इस उपन्यास में किया गया है।

निर्मला उपन्यास नारी जीवन दुख-दर्द भरी दास्तान है। जिसमें समाज द्वारा किये जा रहे नारी शोषण, विधवा जीवन, अकेलेपन, अनमेल विवाह जैसे कई समस्याओं को उभारा गया है। तो प्रतिज्ञा इस उपन्यास में प्रेमचंद ने विधवा नारी की समस्या के अनेक पक्षों को उठाया है। जिसमें एक ओर आर्य समाज की सुधारवादी मूल्य दृृष्टि है जो विधवा विवाह का उत्साहपूर्ण समर्थन करती है और दूसरी ओर हिंदू धर्म कट्टरवादिता जो उसका विरोध करती है। इस उपन्यास में सुमित्रा ऐसी पात्र है जो नारी आत्मनिर्भर होने का सुझाव देती है और उसके लिए अँग्रेज़ स्त्रियों का उदाहरण देती है। अर्थात् यहाँ पर प्रेमचंद अँग्रेज़ स्त्रियों की तरह स्वच्छंदतावाद का समर्थन नहीं बल्कि सम्मानपूर्वक जीवन की अभिलाषा रखते हैं। उपन्यास में प्रेमा, पूर्णा और सुमित्रा ऐसे पात्र है जो स्त्री सम्मानपूर्वक जीने के लिए प्रतिज्ञा करती है।

गबन उपन्यास का पात्र रामनाथ जो निम्न मध्यवर्ग का प्रतिनिधि पात्र है और अपनी क्षमताओं से बाहर जाकर शान-शौक़त से रहने का सपना देखता है। दिखावे और प्रदर्शन यह प्रवृृत्ति ही गबन की केंद्रीय समस्या है। इस प्रदर्शन प्रियता के कारण ही वह अपने मित्रों के बीच शान से घूमता है। चुंगी की छोटी-सी नौकरी का रूप-रंग बदल देता है और अपनी आय की वास्तविकता को अपनी पत्नी से छिपाता है। जिसका मूल्य पूरे परिवार को चुकाना पड़ता है। प्रेमचंद अविश्वास और प्रदर्शन प्रियता को परिवार की सुख-शांति के लिए ज़हर मानते हैं। साथ ही नारी का आभूषणों प्रियता को भी दर्शाया गया है। किन्तु यह केवल आभूषण प्रेम को दर्शानेवाली कहानी नहीं बल्कि प्रेमचंद ने उसे नारी-समस्या का व्यापक चित्र बनाने के साथ-साथ इसे समस्या से जोड़ दिया है। जालपा को सच्चा सुख उनकी देखभाल करने में मिलता है जिनके बेटों और पतियों को अँग्रेज़ी राज फाँसी देने की तजवीज़ करता है। सामाजिक जीवन और कथा-साहित्य में अनोखा संकेत है। जो गबन उपन्यास का फलक व्यापक कर देता है। कर्मभूमि उपन्यास में राष्ट्रव्यापी आर्थिक मंदी और महात्मा गाँधी के नेतृृत्व में चलने वाले स्वाधीनता आंदोलन का अंकन उपन्यास में विस्तारपूर्वक किया गया है। कर्मभूमि से यह स्पष्ट हो जाता है कि देश के शीर्ष नेताओं की वर्गचेतना, कांग्रेस पार्टी के वर्गचरित्र से भले ही प्रेमचंद का मोहभंग होने लगा था, लेकिन देश की जनता में उनका विश्वास और सघन हुआ था। उपन्यास में अनेक समस्याएँ हैं जो जनता की व्यापक हिस्सेदारी को प्रमाणित करती हैं और उसकी इस सहभागिता में ही देश के भविष्य की आशायें छिपी हैं। राष्ट्रीय आंदोलन भले ही दिशाहीन और नेतृृत्वविहीन हो, लेकिन छोटे-छोटे कोनों से उभरा स्थानीय नेतृृत्व इस राष्ट्रव्यापी शून्य को भर पाने में सक्षम है। अछूतों के सामाजिक जीवन में स्वीकृृति का सवाल, सामाजिक-राजनीतिक कार्यकलापों में स्त्रियों की भूमिका, महँगी अँग्रेज़ी शिक्षा का जनविरोधी चरित्र और देशी पूँजीवाद के सहयोग से सामाजिक राष्ट्रीय सुधारवाद की सार्थकता आदि के सवालों को कर्मभूमि में गंभीरतापूर्वक उठाया है। सुखदा के माध्यम से प्रेमचंद स्त्री की सामाजिक स्थिति का सवाल उठाते हैं। वह सामंतवादी मूल्य-दृृष्टि को नारी के स्वतंत्र विकास में सबसे बड़ी बाधा मानते हैं। अपने पहले के उपन्यासों में अनमेल विवाह के दुष्परिणामों का संकेत करते रहे थे, यहाँ नैना के प्रसंग में वे इस समस्या को फिर उठाते हैं। सुखदा ख़ूब देख-भाल कर नैना को विवाह का सुझाव देती और किसी कारणवश यदि ग़लत व्यक्ति का चुनाव हो गया है तो उसके साथ पूरे जीवन को नष्ट करने की अपेक्षा वह तलाक़ का समर्थन करती है। इससे पता चलता है कि प्रेमचंद की नारी संदर्भ दृृष्टि कितनी व्यापक थी। वे नारी जीवन की समस्याओं से ही अवगत नहीं कराते बल्कि उससे उभरने का मार्ग भी दिखाते हैं। कर्मभूमि में ऐसे अनेक पात्र हैं जो सामाजिक वर्गों और स्तरों के, जो घर-परिवार के महत्व को समझकर भी उसके घेरे से बाहर निकलते हैं और राष्ट्रीय हित के सवालों में अपनी व्यापक हिस्सेदारी का प्रमाण देते हैं। 

गोदान उपन्यास प्रेमचंद का प्रसिद्ध उपन्यास है जिसे कृृषक जीवन का महाकाव्य भी कहा जाता है। जिसकी मूल समस्या ऋण है। इसके पूर्व प्रेमचंदजी ने कृृषक जीवन के अलग-अलग पहलुओं पर लिखा था। किन्तु कर्ज़ की समस्या पर उन्होंने विस्तार से प्रकाश नहीं डाला था। जो आए दिन उनके जीवन को सबसे ज़्यादा स्पर्श करती है। इस उपन्यास में  सीधे-सीधे रायसाहब होरी का घर लूटने नहीं पहुँचते। लेकिन उसका घर लुट ज़रूर जाता है। यहाँ अँग्रेज़ी राज के कचहरी-कानून सीधे-सीधे उसकी ज़मीन छीनने नहीं पहुँचते। लेकिन ज़मीन छिन ज़रूर जाती है। होरी के विरोधी बड़े सतर्क हैं। वे ऐसा काम करने में झिझकते हैं जिससे होरी दस-पाँच को इकट्ठ करके उनका मुक़ाबला करने को तैयार हो जाए। वह उनके चंगुल में फँसकर घुट-घुट कर मरता है लेकिन समझ नहीं पाता कि यह सब क्यों हो रहा है। वह तक़दीर को दोष देकर रह जाता है, समझता है, सब भाग्य का खेल है, मनुष्य का इसमें कोई बस नहीं। गोदान उपन्यास में एक तरफ गाँव की कथा है तो दूसरी और शहर में मिलों में काम करते मज़दूरों की भी कथा है। जो मिल मालिकों द्वारा किये जानेवाले शोषक का शिकार है। प्रेमचंद का अंतिम उपन्यास मंगलसूत्र है। जिसमें साहित्यकार के घोर सिद्धांतवादी और समर्पित आदर्शवादी होने के कारण आर्थिक स्थित से संघर्ष करने की कहानी है।

सेठ-साहूकारों के द्वारा उस समय किया जानेवाला शोषण आज भी हो रहा है केवल चेहरे बदल गये है। गोदान का होरी अपने आर्थिक विवशता के कारण मृृत्युशैय्या तक पहुँचा मगर प्रेमचंद ने उसे मरने नहीं दिया क्योंकि कृृषक ही इस देश का मुख्य आधार है। पर आज 80 वर्ष के बाद भी किसानों की स्थिति सुधरने की अपेक्षा और भी ख़स्ती बन गई है। प्रेमचंद ने उस समय शोषण करनेवाले तमाम चीज़ों को अगर समझ लिया होता तो आज किसान आत्महत्या नहीं करता। परंतु  आज 21वीं सदी में मृृत्युशैय्या पर पड़ा किसान आज आत्महत्या कर रहा है। संजीव ने फांस उपन्यास में इसी किसानों की आत्महत्या के विदारक स्थिति को दर्शाया जिसकी तस्वीर 1936 में प्रेमचंद के गोदान में दिखाई थी। इसलिए 21 वीं सदी में भी प्रेमचंद उतने ही प्रासंगिक है जितने उस समय थे। नारी शोषण, जातिवादी, किसानों और मजदूरों का शोषण आज भी उसी तरह से हो रहा है आज भी यह उपन्यास हमें आनेवाले समय में सजग होने की सलाह देते हैं। 

संदर्भ:

1.प्रेमचंद और भारतीय समाज - नामवर सिंह, पृ.30
2. प्रेमचंद और उनका युग -  रामविलास शर्मा, पृ.35
3. प्रेमचंद और उनका युग - रामविलास शर्मा, पृ.42-43

डाॅ. अनंत वड़घणे
हिंदी विभाग,
पुण्यश्लोक अहिल्यादेवी होलकर
सोलापुर विश्वविद्यालय, सोलापुर (महा)

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