कामना
काव्य साहित्य | कविता शैलेन्द्र चौहान4 Feb 2019
कितनी गहरी रही ये खाई
मन काँपता डर से
अतल गहराइयाँ मन की
झाँकने का साहस कहाँ
दूर विजन एकांत में
सरिता कूल सुहाना दृष्य कैसा
नीम का वृक्ष
चारों ओर से गहरी खाई
काली सिंध बह रही मंथर
बीहड़ खाइयाँ
परिंदे पी पानी तलहटी का
आ बैठते नीम की टहनियों पर
बड़ी मुश्किल से
हम खाइयों के भय से पीछा छुड़ाते
किलोल करते ये परिंदे
हम को चिढ़ाते
चींटियाँ रेंगती भू भाग पर
समझतीं प्रणियों को भी पेड़ पौधे
चढ़ती और गुदगुदा जिस्म पा
काट लेतीं त्वचा को
किनारे नदी के
भेड़ बकरियों का झुँड
साथ चरवाहा
नहाता नदी में निश्छल भाव से
निचोड़ पानी कपड़ों से
होता साथ बकरियों के
बादल घिर रहे आकाश में
अतृप्त हैं ये खाइयाँ
पावस में गहन ताप से
सूखी हैं ये, संतप्त हैं,
जल विहीना हैं
बादलों तुम बरसो यहाँ इतना
इस धारा को तृप्त कर दो
नदी काली सिंध पानी से लहलहाए
और ये ढूह
जिसके किनारे बैठा हूँ
आज मैं यहाँ
इस नदी में ड़ूब जो
होंगे प्रफुल्लित ग्रामवासी
आऊँगा मैं यहाँ फिर
शिशिर और हेमंत में
हरित वृक्ष और पौधों से भरी
देखना चाहता हूँ मैं
यह धरा
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