काँपते पत्ते
कथा साहित्य | लघुकथा डॉ. विनीता राहुरीकर1 Jul 2019
"सुनो शैली ये शर्ट काम वाली बाई को दे देना," ऋषित ने अलमारी में से तह की हुई शर्ट निकालकर शैली को पकड़ा दी।
"लेकिन क्यों? यह तो बिलकुल नयी की नयी है," शैली ने आश्चर्य से पूछा।
"अरे पहन ली बहुत, बस अब नहीं पहनूँगा। इसे आज ही बाई को दे देना," ऋषित अलमारी में से दूसरी शर्ट निकालकर पहनते हुए बोला।
"अभी छः महीने भी नहीं हुए हैं तुमने कितने चाव से ख़रीदा था इसे। कितनी पसन्द आई थी ये शर्ट तुम्हें। तुम्हारे नाप की नहीं थी तो तुमने पूरा स्टोर और गोदाम ढुंढ़वा लिया था लेकिन इसे ख़रीदकर ही माने थे और अब चार- छह बार पहनकर ही इसे दे देने की बात कर रहे हो?" शैली ऋषित की बात जैसे समझ ही नहीं पा रही थी। कोई कैसे इतने जतन और चाव से ख़रीदी अपनी पसन्द की चीज़ किसी को दे सकता है वो भी बिलकुल नयी की नयी।
"अरे तो इसमें इतना आश्चर्य क्यों हो रहा है तुम्हें। तब पसन्द आयी थी तो ले ली। मैं तो ऐसा ही हूँ डियर।" ऋषित शैली के कन्धों पर अपने हाथ रखकर बोला, "जब कोई चीज़ मुझे पसन्द आ जाती है तो उसे हासिल करने का एक जूनून सवार हो जाता है मुझ पर और मैं उसे किसी भी क़ीमत पर हासिल करके ही दम लेता हूँ। लेकिन बहुत जल्दी मैं अपनी ही पसन्द से चिढ़ कर ऊब भी जाता हूँ और फिर उस चीज़ को अपने से दूर कर देता हूँ।"
और ऋषित शैली के गाल थपथपाता हुआ अपना लंच बॉक्स उठाकर ऑफ़िस चला गया।
शर्ट हाथ में पकड़े शैली काँपते पत्ते सी थरथराती खड़ी रह गयी। कहीं ऐसा तो नहीं वह भी ऋषित का बस जूनून ही है, प्यार नहीं? वह ऋषित के अंधे मोह में बँधी अपना घर-परिवार, पति, सब कुछ छोड़ने की ग़लती तो कर बैठी और उसके साथ लिव इन रिलेशन में रह रही है। कल को क्या ऋषित उसे भी इस शर्ट की तरह...
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