कान्हा
काव्य साहित्य | कविता अवनीश कुमार1 May 2021 (अंक: 180, प्रथम, 2021 में प्रकाशित)
मथुरा के महलों में कान्हा
रोए हैं फिर आज,
गोकुल के उस सघन कुंज में
खोए हैं फिर आज।
गोपी-ग्वालों के संग बिसरा
सारा बचपन आया याद,
नन्द-यशोदा का दुलराना
माखन का वो अनुपम स्वाद।
राधा संग वो रास रचाना
बार-बार आता है मन में,
गोपिकाओं के कलश गिराना
सिहरन उपजाता है तन में।
महलों की दीवारें अब तो
बिना जान सी लगती हैं,
छोड़ भवन ब्रज जाने की
अब तो अभिलाषा जगती है।
ब्रज-गलियों की धूप-छाँव
कान्हा को मोहे फिर आज,
मथुरा के महलों में कान्हा
रोए हैं फिर आज।
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