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कादरमियाँ

जिस ज़माने की बात मैं कहने जा रहा हूँ, वह बहुत पुरानी तो नहीं है पर उसकी सच्चाई का संबंध बहुत पुराने समय के साथ अवश्य जुड़ा हुआ है। लगभग 15-16 वर्ष परदेस में बिताने के बाद जब मैं रायपुर आया तब जिस मोहल्ले में हमारा मकान था, वह मोहल्ला ही मुझे अजनबी-सा लगा।

बरसों पहले जब हमने वहाँ मकान बनाया था, तब कितने ही स्नेहीजनों ने वहाँ मकान न बनाने की सलाह दी थी। उनकी ‘ना‘ के पीछे का कारण यह था कि ऐसी झोपड़-पट्टियों के बीच में भी भला मकान बनाया जा सकता है! लेकिन मकान तो बन गया। बादलों से घिरे घनघोर आकाश में जैसे एकाएक सूरज उग आया हो, ऐसा ही इस झोपड़-पट्टी में हुआ। आने-जानेवाले लोग देखकर कहते कि इस जगह पर मकान बनाने का ख़याल भला किसी को कैसे आया होगा!

उसके बाद तो मैं परदेस चला गया। 15-16 वर्ष बाद जब मैं वापस आया, तब पहली नज़र में तो ऐसा लगा कि जैसे मैं ट्रेन के सफ़र में गोल-गोल घूमते हुए वापस सिकंदराबाद तो नहीं पहुँच गया!

पूरे मोहल्ले में एक से बढ़कर एक सुंदर मकान बने हुए थे। बड़े-बड़े मकान, बंगले और म्युनिसीपल के बग़ीचे से मोहल्ला भर गया था। आश्चर्य तो इस बात का था कि इन सभी नए बने मकानों के बीच हमारा उस समय का सबसे सुंदर मकान एक पुराने खंडहर की तरह दिखाई दे रहा था। दुनिया के विकास के साथ-साथ मानों रायपुर भी किसी बात में पीछे नहीं रहना चाहता था। घड़ीभर के लिए तो ऐसा लगा कि मैं कोई स्वप्न तो नहीं देख रहा हूँ! दूसरे ही क्षण लगा कि मैं नींद से उठकर वास्तविकता ही देख रहा हूँ। जो भी कह लो, थी तो यह वास्तविकता ही।

दूसरे दिन नियमानुसार मैं सुबह जल्दी उठकर घूमने के लिए निकला। रोज़ सुबह उठकर घूमने जाना मेरी बरसों पुरानी आदत है। सड़क पर आते ही फिर से एक बार मुझे यही ख़याल आया कि मैं कहीं सिकंदराबाद में तो नहीं हूँ।

हल्का उजाला था। लोगों के मकानों में से नाईटलेम्प की हल्की रोशनी देखकर ऐसा लग रहा था मानों घर-घर में दिवाली की मोमबत्तियाँ जल रही हों। सुबह की गुलाबी हवा, किसी बेहोश को भी होश में ले आए, ऐसी ताज़गी भरी थी। और जो पूरी तरह से होश में हो, उसे मदमस्त बना दे, ऐसी गुलाबी मदहोशी लिए हुए थी।

थोड़ी दूर ही गया था कि मैं विस्मय से भर उठा! सोने की थाली में रखे लोहे के टुकड़े के समान एक से बढ़कर एक सुंदर मकानों की पंक्तियों के बीच में आज भी एक मिट्टी की झोपड़ी गिरने की हालत में बमुश्किल खड़ी हुई थी। मन में विचार आया– किसका होगा ये मकान? लेकिन मुझे ज़्यादा नहीं सोचना पड़ा। झोपड़ी का दरवाज़ा खुला था और अंदर एक सफ़ेद रूई जैसी दाढ़ीवाले हमारे पुराने परिचित कादरमियाँ खड़े थे। कादरमियाँ की आँखों में आज भी पंद्रह वर्ष पहले जैसा ही तेज चमक रहा था।

‘कादरमियाँ!‘ मैं सोचने लगा, कादरमियाँ आज भी जिंदा है! जहाँ एक रुपए स्क्वेयर फ़ीट के भाव से ज़मीन बिकती थी, वहाँ आज तीन सौ रुपए स्क्वेयर फ़ीट में भी ज़मीन मिलनी मुश्किल थी, ऐसी सुंदर और सघन बसाहट के बीच कादरमियाँ अपनी झोपड़ी का अस्तित्व टिकाए हुए है!

आश्चर्य बहुत लम्बा नहीं चला। कादरमियाँ ने मुझे देख लिया था। आँखों के ऊपर दाहिने हाथ का छज्जा बनाते हुए वे मेरी तरफ़ ही देख रहे थे, "छोटे बाबू . . .!" उनकी आवाज़ मुझे सुनाई दी। तो क्या ये बुड्ढा अभी तक मुझे नहीं भूला! दूर से देखने के बाद भी ‘छोटे बाबू‘ उसकी नज़र में आ गया।

मैंने हाथ हिलाते हुए कहा, "कादरमियाँ . . . अभी आया . . .! मैं उनकी तरफ़ आगे बढ़ गया।

उन्होंने भी पूरे दिल से मेरा स्वागत किया। झोपड़ी के बाहर बड़ा सा आँगन था जिसमें 4-5 सीताफल के पेड़ थे और उस पर बड़े दानेवाले सैंकड़ों सीताफल पकने के इंतजार में झूम रहे थे। कादरमियाँ को जिंदा देखकर जितना आश्चर्य हुआ, उतना ही आश्चर्य सौभाग्य से दिखनेवाले इन सीताफलों को देखकर हुआ।

कादरमियाँ ने एक छोटी-सी खाट झोपड़ी में से बाहर निकालकर रखी और मुझे उस पर बिठाया। "भैया, आप तो जवान हो गए! छोटे थे तब तो इतने से थे।" ऐसा कहते हुए उन्होंने ज़मीन से चार फ़ीट की उँचाई तक हाथ रखकर मुझे समझाया कि मैं उस समय कितना बड़ा था। मैं हँस पड़ा और कहा, "सारी दुनिया बदल रही है चाचा, फिर मैं क्यों न बदलूँ?”

"बेटा, तुम तो शायरी में बोलते हो,” ऐसा कहते हुए वे ज़ोर से हँस पड़े। 

मैंने कहा, "सारी दुनिया भले ही बदली, मैं भी जवान हो गया, मगर चाचाजी, आप तो वैसे ही हैं। जिनसे मिलकर मैं 15 साल पहले परदेस चला गया था। वही दाढ़ी, वही चेहरा। देखकर लगता है कि सपने में ही ज़माना गुज़र गया और सोने के पहले जो कादरमियाँ थे, आँख खुलते ही, वही कादरमियाँ सामने हैं।"

मेरी बात सुनकर वे फिर से हँस पड़े और पूछा, "बेटा, बहुत साल परदेस में रहे। अब तो रायपुर में ही रहोगे ना?”

"अभी कुछ सोचा नहीं, चाचाजी। बड़े भाई, भाभी सब यही चाहते हैं कि मैं रायपुर में ही रहूँ। दिवाली तक तो यहीं हूँ। दिवाली के बाद सोचूँगा।"

"बेटा, यहाँ क्या कमी है? वतन को छोड़ इतने दूर क्यों रहते हो? फिर यहाँ भाई-भाभी का प्यार! वहाँ सिवाय पैसे के और क्या मिलता है?”

थोड़ी गपशप करने के बाद मैं चला आया। मन में आया कि कादरमियाँ का मकान, कुछ नहीं तो 3-4 हज़ार स्क्वेयर फ़ीट में तो होगा ही। आज इस ज़मीन की कीमत लाखों में होगी। दूसरे भी कितने पुराने मकान तो यहाँ थे ही। जैसे-जैसे ज़मीन का भाव बढ़ता गया, लोगों ने अच्छी क़ीमत में मकान बेच दिया और जहाँ सस्ते दामों में ज़मीन मिली वहीं जाकर बस गए। कादरमियाँ ने ऐसा क्यों नहीं किया? उन्हें ऐसा क्यों नहीं सूझा? इतनी सुंदर बसाहट में तो मुँहमाँगे दाम मिल सकते हैं, फिर ऐसा क्यों?

मेरा नित्य का सुबह जल्दी उठकर घूमने जाने का क्रम चालू था। कादरमियाँ भी मेरी तरह सुबह जल्दी उठकर अपने आँगन में घूमते हुए या फिर कुछ न कुछ काम करते हुए दिख जाते।

दिवाली आने में चार-पाँच दिन का समय था। नियमानुसार मैं सुबह घूमने के लिए निकला था। वापस लौटते हुए उजाला हो गया था। कुछ-कुछ लोगों का सड़क पर चलना-फिरना भी शुरू हो गया था। मैं जैसे ही कादरमियाँ की झोपड़ी के क़रीब से निकला कि पीछे से ‘छोटे बाबू . . .‘ कहते हुए कादरमियाँ ने आवाज़ लगाई। मैंने पीछे मुड़कर देखा तो कादरमियाँ हाथ में चार-पाँच सीताफल लिए हुए झोपड़ी के दरवाज़े के बाहर खड़े थे। मैं वापस उनके पास गया।

मैंने कहा, "सलाम चाचाजी।"

"वालेकुम सलाम,” उन्होंने सीताफल वाले दोनों हाथ ऊपर करते हुए मुझे जवाब दिया।

"बेटा, तुम्हारे लिए कुछ सीताफल रखे थे! पकने के लिए छोड़ रखे थे! आज पके हुए देखे तो मन में आया कि छोटे बाबू को याद करूँ। इसीलिए तुम्हें आवाज़ देकर बुलाया।"

मैंने कहा, "चाचा, आपकी बहुत-बहुत मेहरबानी। सीताफल के नाम से भी आपने मुझे याद किया। ये क्या कम है!” उनके हाथों से सीताफल लेते हुए मैंने कहा, "कितने बड़े दाने और ख़ूबसूरत फल हैं। लगता है आपको सीताफल का बहुत शौक़ है, क्यों चाचाजी?”

"हाँ, बेटा बहुत शौक़ था, पर अब नहीं। ज़माने की रफ़्तार में सब शौक़ बह गए!” वे थोड़े-से उदास हो गए।

"ऐसा क्या हुआ चाचाजी?”

"बताऊँगा बेटा, कभी वह भी बताऊँगा। दिल का बोझ लिए कई दिनों से बैठा हूँ। किसी को कहकर सारा बोझ एक दिन उतारना है बेटा!”

बात कुछ रहस्यमय लगी। मैंने पूछा, "कौन वो ख़ुशक़िस्मत है, जिसे कहकर आप यह बोझ उतारेंगे?”

"बेटा, अभी तक तो कोई ऐसा नहीं मिला। शायद तुम ही मेरी बात सुन सकोगे, समझ सकोगे।"

"चाचा, यदि आपने मुझे इस लायक़ समझा तो यह मेरी ख़ुशक़िस्मती होगी।"

"कहूँगा बेटा, ज़रूर कहूँगा। यदि तुम्हें नहीं कह पाया तो शायद किसी को नहीं कह पाऊँगा।"

दिवाली का त्योहार बीत गया और मेरा वापस परदेस जाना भी तय हो गया। स्नेहजन, मित्र, रिश्तेदार सभी से मिलकर आ गया। और अंत में वापस लौटते हुए कादरमियाँ से मिलने के लिए उनके घर पहुँचा।

छोटी-सी मिट्टी की झोपड़ी और चारों तरफ़ फैली खुली ज़मीन, जिस पर फूल-पौधे उगे हुए थे। आँगन की पूरी सुंदरता चारों तरफ़ लगे हुए सीताफल के पेड़ों से थी जिस पर लगे हुए सीताफल के भार से पेड़ नीचे की तरफ़ झुके हुए थे।

दरवाज़ा खुलने की आवाज़ सुनकर कादरमियाँ बाहर आए।

"आओ, बेटा आओ,” उन्होंने मुझे अपने पास बुलाया और वही पुरानी खाट बिछाकर मुझे उस पर बिठाया। अंदर सहेजकर रखे हुए दो बड़े-बड़े सीताफल बहुत ही प्यार से उन्होंने मेरे हाथ में रख दिए और कहा, "खाओ बेटा, फल खाते जाओ और मेरी बात भी ध्यान से सुनते जाओ।"

मेरी आँखें सीताफल पर गड़ी हुई थीं। बाज़ार में हज़ारों सीताफल में से खोजने पर एक भी ऐसा सीताफल नहीं मिलेगा। बड़े साइज़ और बड़े दानेवाले मीठे रस से भरे सीताफल। केवल वही नहीं, बाहर पेड़ पर लटके हुए फल भी एक से बढ़कर एक थे।

"आप भी लीजिए ना चाचाजी। एक मैं लेता हूँ और एक आप लीजिए।"

मानो एकाएक साँप नज़र के सामने आ गया हो, इस तरह चाचाजी थोड़ा पीछे हट गए। "बेटा, मैं सीताफल खाऊँ? ये तो मेरे गले से नीचे भी नहीं उतर सकते।"

मुझे आश्चर्य हुआ! "फिर इतने पेड़ क्यों लगा कर रखे हैं, चाचाजी? और पेड़ भी कितने ख़ुशक़िस्मत! जैसे किसी माँ ने अपने बच्चे को पाला हो, ऐसे ये पेड़ और फल हैं।"

"मैं ख़ुशक़िस्मत हूँ बेटा, कि तुमने इन पेड़ों को सँभालनेवाले को ‘माँ‘ कहा। मैं ही जानता हूँ कि इन पेड़ों को मैंने कैसे पाला है और मैं यह भी जानता हूँ कि आज मैं ज़िंदा हूँ तो इन पेड़ों की वज़ह से ही ज़िंदा हूँ।"

सीताफल के पेड़ के पीछे कोई रहस्य छिपा हुआ है, इस बात का संदेह तो मुझे पहले ही था और आज ये बात सच भी साबित हो गई थी।

कादरमियाँ ने बात शुरू की, "आप लोगों ने इस मोहल्ले में मकान नहीं बनाया था, इससे भी पुराना क़िस्सा है यह। तुम्हारी चाची किसी ज़माने में इतनी ख़ूबसूरत और इतनी अच्छी थी कि उसे पहचानने वाले और उसे समझने वाले कोई भी लोग यहाँ नहीं रहे। ज़मीनों की क़ीमतें बढ़ती चली गईं और लोग अपने-अपने मकान बेचते चले गए। मैं अकेला, तुम्हारी चाची की याद लिए, इसी मोहल्ले में ठहरा हुआ हूँ।"

"चाची की ख़ूबसूरती की बात तो मैंने भी सुनी थी लेकिन उन्हें देखने की ख़ुशक़िस्मती मुझे नहीं मिली।"

"बात कुछ ऐसे हुई . . ." चाचाजी ने अब रहस्य से भरे पन्ने खोलने की शुरुआत की।

"मैं मिलट्री में था। मिलट्री में तो जानते हो बेटा कि कैम्प में ही रहना पड़ता है। बड़े-बड़े अफ़सर भी बीवी-बच्चों को घर में रखकर कैम्प में ही रहते हैं। मिलट्री के क़ानून बड़े सख़्त होते हैं। रात-दिन मौत के साए में रहना। सुबह से शाम, मरने की भी फ़ुरसत नहीं। ऊपर से बीवी-बच्चों से दूर रहना। मिलट्री की ज़िंदगी तो बेटा ऐसी होती है।" चाचा थोड़ी देर शांत रहे। सीताफल खाते जाना और उनकी बातों को सुनते जाना। ये उन्होंने ही याद दिलाया। मैंने सीताफल खाने की शुरुआत की।

"बेटा, मेरी नई-नई शादी हुई थी। तुम्हारी चाची . . .चाची नहीं कोई हुस्न परी थी। मुझ जैसे अभागे को ऐसी ख़ूबसूरत लड़की देनेवालों ने पता नहीं क्या सोचकर दी थी। मैं आज तक ये बात नहीं जान सका। यूँ कह लो कि मेरी तक़दीर ही बुलंद हो चली थी। वो हुस्न की परी मेरे घर आई और मैं उस हुस्न की शहज़ादी को देखता ही रह गया! केवल मैं ही नहीं, सारी बिरादरी ने अपने-अपने मुँह पर ऊँगली रख दी। सभी ने मेरी तक़दीर को सराहा।"

मुझे बातों में रस आने लगा। "तुम जानते हो, उसका नाम क्या था? उसका नाम था मुमताज़! सचमुच वह मुमताज़ थी। शाहजहाँ के घर की मुमताज़ मेरे जैसे ग़रीब की झोपड़ी में कैसे आ गई, ख़ुदा ही जाने!”

मैंने कहा, "चाचा, बात बहुत दिलचस्प लगती है।"

‘बता रहा हूँ बेटा, सब बता रहा हूँ। आज जब बताने लगा हूँ तो कुछ भी नहीं छिपाऊँगा।‘ उन्हें खाँसी आई। खाँसी कुछ ज़्यादा ही थी। सीने में जैसे कफ भर गया हो।

मैंने कहा, "चाचा, थोड़ा आराम कर लो, बाद में बात करेंगे।"

"नहीं, बेटा। सब कुछ आज ही कह देता हूँ। कह देने से मेरे दिल का बोझ भी कम हो जाएगा।"

उन्होंने आगे कहा, "तुम्हारी चाची, मुझे ख़ूब प्यार करती थी। मेरा पूरा ख़याल रखती थी। पर मैं बदनसीब था। मिलट्री की नौकरी क्या थी, ज़िंदगी भर की ग़ुलामी मोल ले ली थी। कितना भी चाहने पर भी तुम्हारी चाची को यहीं रहना पड़ता था और मुझे मिलट्री के कैम्प में कभी नासिक तो कभी देहरादून, कभी आसाम की बॉर्डर पर तो कभी पाकिस्तान की बॉर्डर पर। सिर्फ़ ख़त ही थे जो हमें प्यार में जकड़े हुए थे। क्या चिट्ठियाँ लिखती थी तुम्हारी चाची मुझे! कई चिट्ठियाँ तो मैंने सालों तक सँभालकर रखी थीं।

"एक बार मुझे जब एक महीने की छुट्टी मिली तो मैंने सोचा कि तुम्हारी चाची को सारा हिंदुस्तान घुमाकर लाऊँ और सचमुच हम दोनों घूमने के लिए चल पड़े। एक के बाद एक, देश के कई शहर हमने घूम डाले। घूमते-घूमते हम आगरा आए। वह आगरा, जहाँ प्यार ख़ुद संगमरमर बनकर खड़ा रह गया है। वह ताजमहल नहीं था बेटा, ख़ुद प्यार जन्नत से उतरकर यमुना के किनारे ठहर गया था।

"हम ताजमहल घूमने गए। तुम्हारी चाची की ख़ुशी की कोई सीमा न थी। दूर से ही ताजमहल को देखकर वह ख़ुशी में उछलने लगी थी। हमारा टाँगा, ताजमहल के सामने ठहरा। अभी ठहरा ही था कि तुम्हारी चाची उसमें से कूद पड़ी। वह तो मानो दिवानी हो गई थी। उसके पीछे मैं भी उतरा। हम जैसे ही अंदर जाने लगे कि तुम्हारी चाची ने कुछ औरतों को ज़मीन पर बैठे सीताफल बेचते हुए देख लिया। सीताफल के पीछे वह पागल थी। मुझे छोड़कर यदि उसने किसी से प्यार किया हो तो वह सिर्फ़ सीताफल है।

"जब भी मैं रायपुर आता, दिवाली के क़रीब ही आता क्योंकि इन्हीं दिनों सीताफल बाज़ार में आते हैं। मैं अच्छे से अच्छे सीताफल खोजकर तुम्हारी चाची के लिए लाता। हर सीताफल का आधा टुकड़ा वह खाती और आधा मुझे खिलाती। अल्लाह ने उसकी गोद खाली रखी थी। कभी-कभी ढेर सारे सीताफल वह मँगवाती और मोहल्ले के बच्चों को बुलाकर उन लोगों में बाँट देती। और फिर उन्हीं के बीच में बैठकर वह ख़ुद भी सीताफल खाती।

"ताजमहल के अंदर जाने से पहले ही उसने कुछ सीताफल ख़रीद लिए। बोली, ‘ऊपरवाला कितना मेहरबान है! ताज देखने आए तो ख़ुदा ने वहाँ भी सीताफल हमारे लिए तैयार रखे हैं। रूमाल में पाँच-छः सीताफल लिए हमने ताजमहल को चारों ओर से घूमकर देखा। नीचे गए, ऊपर गए, उसका एक-एक कोना हमने घूम-घूमकर देखा। तुम्हारी चाची ने ताजमहल घूमते-घूमते मुझे क्या पूछा बताऊँ? उसने पूछा कि ‘शाहजहाँ ने मुमताज़ को ज़्यादा चाहा कि मुमताज़ की मौत के बाद बने इस ताजमहल को? उसने आगे कहा, ‘सोचो तो भला, जब मुमताज़ नहीं रही, तो शाहजहाँ ने इसी ताजमहल को कितने प्यार से देखा होगा और ज़िंदगी बसर की होगी! यह ताजमहल अगर नहीं होता तो शाहजहाँ किस भरोसे ज़िंदा रहता!”

"छोटे बाबू . . .!” कादरमियाँ ने भावपूर्ण नज़रों से मुझे देखते हुए कहा, "जीने के लिए भी तो कोई सहारा चाहिए। शाहजहाँ भले ही क़ैद में रहे मगर ताजमहल उनकी नज़रों से दूर नहीं था। इसलिए बेटे की जेल में भी वे बहुत दिन जी सके। कौन कहता है कि ताजमहल संगमरमर का बना है? यहाँ तो मुमताज़ ही ताजमहल बनकर खड़ी है।"

चाचा का चेहरा, कहने का तरीक़ा . . . यह सभी कुछ किसी प्रेम दिवाने फ़क़ीर की बातों जैसा लगा। "बाद में क्या हुआ मालूम? पूरा ताजमहल, उसका चप्पा-चप्पा देखकर हम लोग जब मैदान में बैठे तो थक गए थे। तुम्हारी चाची फ़ौरन रूमाल खोलकर सीताफल मेरे हाथ में रखकर बोली, ‘देखो, ताजमहल में आकर इन सीताफलों की ख़ूबसूरती भी कितनी बढ़ गई। जब इन्हें ख़रीदा था, तब इतने अच्छे नहीं लगते थे?‘ कभी-कभी उसकी बातों में शायरी न मालूम कहाँ से आ टपकती थी। कितने प्रेम से उसने मुझे सीताफल खिलाए और ख़ुद भी खाती रही।"

"अचानक उसे क्या हुआ बताऊँ? तुम हैरत में पड़ जाओगे! उसने पूछा, ‘भला, शाहजहाँ ने अपनी मुमताज़ के लिए ताजमहल बनवाया, बताओ मेरी याद में तुम क्या बनवाओगे?‘

"मुमताज को यह क्या सूझा? ताजमहल में आकर वह ख़ुद ही मुमताज़ बन गई! मेरे हाथ में सीताफल था! मैंने हँसते हुए कहा, ‘कहाँ शाहजहाँ और कहाँ मैं? मैं शाहजहाँ का मुक़ाबला भला कैसे कर सकता हूँ? मगर फिर भी, तुमने पूछा है तो जवाब भी हाज़िर है! तुमने मेरे सिवा अगर किसी को प्यार किया है तो इन सीताफलों को . . .! बात सही है? मैं अगर ज़िंदा रहा और . . .‘ मैं आगे नहीं बोल सका। मेरी आँखों में आँसू आ गए। मेरी आधी बात उसी ने पूरी की . . . ’तुम चल बसी तो . . . यही कहना चाहते हो ना..? बताओ, अगर मैं तुमसे पहले चल बसी तो क्या करोगे?’ आँखों में आँसू लिए हुए मैंने कहा, ‘मुझ ग़रीब के पास रखा ही क्या है? फिर भी तुम्हारी याद में मैं कोई कसर नहीं छोड़ूँगा। अपनी झोपड़ी के आँगन में सीताफल के पेड़ लगाकर, उनकी देखभाल कर मैं यही समझूँगा कि मैं अपनी मुमताज़ की ही ख़ातिरदारी कर रहा हूँ। सीताफल के हर बीज में तुम्हें देखूँगा। तुम्हारे जाने के बाद, ख़ुदा न करे और तुम गई, तो सीताफल को, जो इस ताजमहल की छाँव में बैठकर हम दोनों खा रहे हैं, उन्हीं फलों का एक छोटा बाग़ लगाऊँगा। पेड़ों की देखभाल करूँगा और जब फल लगेंगे, तुम्हारी याद में मोहल्ले के बच्चों को बाटूँगा। ‘और . . . तुम भी प्यार से खाओगे . . . बोलो ना . . .‘

"नहीं . . .मैंने कहा, ‘जो सीताफल आज इतने मज़ेदार लग रहे हैं, वो तो मेरे लिए ज़हर बन जाएँगे। मैं तुम्हारे बिना एक भी फल कैसे खा सकूँगा? बच्चो को बाँटकर, तुम्हारा प्यार बच्चो को देता रहूँगा। बताओ, इससे ज़्यादा तुम और क्या चाहती हो? वह पागल होकर, शरम छोड़कर मेरी गोद में लुढ़क गई। ख़ूब रोई . . .खूब रोई . . . फिर कहा, ‘मुझे इससे ज़्यादा और क्या चाहिए। मैं जहाँ भी रहूँगी, इन फलों की चौकीदारी करूँगी और अपना सारा प्यार, इन्हीं सीताफलों में भरकर तुम्हारे हाथों से बच्चों के हाथों में जाऊँगी।’"

थोड़ी देर वे रुके, उनकी आँखें भीग गई थीं। फिर बोले, "बस बेटा, यही वह सीताफल है जो मैंने उसकी याद में लगाए थे। आज बच्चों को जब मैं सीताफल बाँटता हूँ, तो यही सोचता हूँ कि अपनी मुमताज़ को प्यार से खिला रहा हूँ। यही तो मेरा सहारा है। जिसके भरोसे मैं जी रहा हूँ। जिस तरह जेल में शाहजहाँ ने ताजमहल देखकर अपने दिन काटे थे!”

मेरी आँखें भी भीगने की शुरुआत करने लगी थीं। उसे ज़बरदस्ती रोकते हुए मैंने कहा, "तब तो चाचा, मेरे हाथों के सीताफल में भी आप, मेरी चाची को देखते होंगे?”

उन्होंने जवाब दिया, "सिर्फ़ इन सीताफलों में ही नहीं, इन सीताफलों के हर बीज में मुझे मेरी मुमताज़ दिखती है।"

मैं अपनी ख़ुशनसीबी पर ख़ुश होता हुआ घर आया तब तक रात हो चुकी थी।

कई सालों बाद मालूम हुआ कि कादरमियाँ ने अपना मकान अपनी मृत्यु के बाद पत्नी को हुई टी.बी. की बीमारी का अस्पताल बनाने के लिए दान में दे दिया था।

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टिप्पणियाँ

पाण्डेय सरिता 2021/05/01 09:16 PM

बेहद भावुक संवेदनशील अभिव्यक्ति

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