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कहानी जो मैं लिख नहीं पाई

कितने अजीब होते हैं ये मानवेतर अनुभव, शरीर न होने के दर्द और वे काम जो सिर्फ मानव शरीर ही कर सकते हैं। मैं कुछ नहीं कर पाती, पत्ता तक हिलाया नहीं जाता। मैंने लाख कोशिश की पर हरदम नाकाम। यह असफलता की कहानी मैं किसे सुनाऊँ ? मुझे तो लगता है उनकी गोद में लोटती चलूँ और आँसू की नदियाँ बहाऊँ, माँ से गले मिल मूर्छित हो जाऊँ, पिताजी की कोमल हाथों के स्पर्श से आह्लादित हो जाऊँ, बेटों के स्नेह में अमृत बरसाऊँ..........। प्यारी सखी अनन्या से गले मिल एकाकार हो जाऊँ......। चाहत और इच्छाओं के हरफों से हजारों पन्ने ढक चुके हैं......... संभालकर रखे होते तो किताबों की गठरियाँ बन जातीं। मुझे लगता है, मेरी अमूर्त उपस्थिति का कोई मूल्य नहीं है.... कैसी अजीब उलझन..... सहजता की असीमित चाहत और असहजता की असीमित विस्तार.....।

मैं देख रही हूँ मेरा बदन आर्यघाट की चिता में जल रहा है। लकड़ी के संग जलते हुए मेरे बदन से धुवाँ निकलकर आसमाँ की उचाईयाँ नापने लगा है। मैं इन्हीं उचाईयों में अपने जीवन का सोपान देखती हूँ। मेरा बदन यहाँ लाए जाने से पहले मुझे थोड़ी सी उम्मीद थी कि मैं मेरे बदन में लौट जाऊँगी, पर इन आग की लपटों ने मेरी सारी उम्मीदों पर पानी फेर दिया।

मुझे आर्यघाट में लाए जाने से पहले मैं वीर हस्पताल में थी.......अरे...नहीं..नहीं... मैं नहीं मेरा बदन वहाँ था। मैं तो अपने बदन से निकल चुकी हूँ। मानवीय जीवन जीने की जो आस थी वह तो धूमिल हो चुकी है। मेरे बदन में यावत मशीनों के इलेक्ट्रोड सेन्सर्स जुड़े हुए हैं। मेरे सर से निकलकर बीसियों सेन्सर्स इलेक्ट्रोड्स इलेक्ट्रोइन्सेफ्लोग्राफ में जुड़े हुए हैं। दिल का काम देखनेवाला इलेक्ट्रोकार्डियोग्राफ के मॉनिटर में तरंग हिंदोल ले रहे हैं। ई.ई.जी. और ई.सी.जी. की तरंगें देखने से लगता है ज़िंदगी सिर्फ इन्हीं तरगों कि निरंतरता है। तरंग बंद, ज़िंदगी बंद। नाक के दो नथुनों में ऑक्सीजन का फाऊँटेन छोड़ा गया है। हाथ की नसों से डेक्स्ट्रोज मेरे शरीर में बह रहा है। लगता है, मेरे चेहरे से ज़िंदगी नाता तोड़ चुकी है। आँखें गड्डों में तब्दील हो गई हैं। दोनों कान झूल चुके हैं। ललाट में सिलवटों की कतारें खड़ी हो गई हैं। गाल देखने पर लगता है, कहीं थे यहाँ भी गाल? होंठों में चोइयाँ पड़ गई हैं। बाल उलझकर लटों में बदल गए हैं। उरोज सूखकर पॉलीथीन के खाली थैले जैसे हो गए हैं। ऐसा ही है मेरा बदन। मानवीय संवेदना से अछूता मेरा शरीर। पसली और चमड़ी का ढेर मेरा शरीर।

**

मैं देखती हूँ मेरे शरीर के पास वे बैठे हैं। उनके दोनों हाथ मेरे शरीर के एक हाथ पर पड़े हैं। अचानक मैं देखती हूँ मेरे प्रिय की आँखों से वेदना तरलिकृत हो नीचे बह रही है। मेरे उस हाथ में दो बूँदें गिरती हैं। पर मेरा हाथ ! हाय ! मेरा वह हाथ इन आँसुओं की गरमी को महसूस नहीं कर पाता।... मैं कुछ महसूस नहीं कर पाती। छलाँग लगाती हूँ ऊपर से, पर बेकार। मेरे प्रिय ! मेरे राजा ! जब कभी मेरी आँखों में तुम आँसू देखते थे, तुम उदास हो गुनगुनाने लगते थे- ’ये आँसू मेरे दिल की जुबान हैं, तुम रो दो तो रो दे आँसू, तुम हँस दो तो हँस दे आँसू, ये आँसू मेरे दिल की जुबान हैं।‘ मैं अब सह नहीं पाऊँगी। मैं तुम्हे प्यार करती हूँ प्यारे। उड़कर सिलिंग में पहुँचती हूँ, फिर छलाँग मारती हूँ अपने जीर्ण काया पर। कुछ नहीं होता, बाल तक हिलता नहीं, हरे.... मैं क्या करूँ ? लगता है दहाड़े मारकर रोऊँ..छाती पीटते हुए रोऊँ...चिल्लाऊँ...पर यह सब मैं कैसे कर पाऊँगी ? मैं अपने शरीर में तो हूँ नहीं। फिर कोशिश करती हूँ....डेक्स्ट्रोज और सोडियम क्लोराइड में मिलकर नलियों से भीतर बह जाने की कोशिश करती हूँ..ऑक्सीजन के पाइप से ढुकने की कोशिश...पर कुछ नहीं कर सकती। घबरा जाती हूँ.. इस कोने से उस कोने...ऊपर से नीचे... कुछ नहीं होता। इस वक्त मैं अपने बदन में होती तो दुःख की लहर को रोकने की कोशिश करती। उनके बाल सहलाती। प्यार भरी डाँट पिलाती ‘ये क्या हाल बना रखा हैं बालों का ? तेल क्यों नहीं लगाते ?‘   पर ये सब प्रेम के स्पर्श.... मैं क्यों अपने बदन में प्रवेश नहीं कर पा रही ?...घंटों बीत गए कोशिश करते करते...अब तो लगने लगा है, यह कोशिश ही बेकार है। फिर भी मन जो है अपनों के पास तो पहुँचना चाहता ही है। आस जगी और फिर कोशिश करने लगी...। शायद कर पाऊँ कुछ... हवा में तैरते हाथ उनके गालों तक ले गई। आँखों से झरते आँसुओं को पोछने का  प्रयास.. कानों में प्यार के दो शब्द बोलने की कोशिश... उनकी पीठ सहलाने की नाकाम कोशिश... सब बेकार... अर्थहीन प्रयास.... लगा अपनी नाकामी पर दहाड़ें मारकर रोऊँ.. लगा रोते रोते बेहोश हो जाऊँ... पर ये सब तो मानव शरीर ही कर सकता है न। मेरे पास तो शरीर ही नहीं... हे भगवान... मेरे पास इतनी चेतना है फिर भी मैं उसे व्यक्त नहीं कर पाती... हे ईश्वर !

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मेरा बदन जल रहा है। आग कि लपटों से धुवां निकलकर आसमाँ को छू रहा है। धुवां आकाश में मिल जाएगा और एक जीवन का अंत हो जाएगा। मेरे बदन को अग्नि देकर एक तरफ मायूस खड़े किशोर बेटों की आँखों से  माँ का प्यार बहकर बागमती में मिल रहा है। दूसरी तरफ हाथ बाँधे खड़े मेरे वो शून्य ताक रहे हैं, शायद कमरे की शून्यता का एहसास हो गया हो उन्हें। एक तरफ हैं मेरे माँ-बाप, जो अपने उद्यान के पहले वृक्ष को बेमौसम जलता हुआ देख रहे हैं। उन्हें शायद कभी अंदाजा भी नहीं था, अपने जीवन उद्यान में स्नेह और ममता से बड़े किए गए वृक्ष को इस तरह वक्त अपने से पहले जलाएगा। एक कोने में अनन्या खुद मर रही है। अपने, पड़ोसी, रिश्तेदार, कितनों की भीगी आँखें, कितनों के तसल्ली भरे मन मानों कहते हों – बला टल गई। मैं कितनी विवश हूँ, मैं अपनी उपस्थिति किसी को भी नहीं जता सकती, कह नहीं सकती – देखो मैं मरी नहीं हूँ, मेरा सिर्फ बदन जल गया है। मैं कहाँ जली हूँ ? हाँ ? मैं अपनों को स्नेह के फूल नहीं दे सकती, बेटों को प्यार का आँचल नहीं दे सकती, उन्हे प्यार भरे स्पर्श नहीं दे सकती, कुछ नहीं कर सकती मैं... विवश ैं.... बेशरीर मैं...।

**

पड़ोसी व रिश्तेदारों के चेहरों पर मैं उकताहट देख रही हूँ। मेरे हृदय के राजा, मेरे वो, मेरे माँ-बाप ही मेरी सेवा कर रहें हैं। मैंने उनके चेहरों पर झल्लाहट कभी नहीं देखी, वे आँधी-तूफान, धूप-बरसात नहीं कहते, लगे रहते हैं। शायद उन्हें कुछ उम्मीदें हों, मैं अपने बदन में वापस जाऊँगी। पर मैं खुद ही इस बात पर विश्वस्त नहीं हूँ। बल्कि मैं तो भयभीत हूँ, शायद मैं यह काम नहीं कर पाऊँ। इससे पहले भी तो ऐसी ही वारदात हुई थी, और बहुत मुश्किल से मैं अपने बदन में वापस लौट पाई थी।

मानवीय समय सारणी में तकरीबन छ्ह महीने पहले की बात है, मैंने विचित्र अनुभव किया। मैं बेहोश होकर छह महीने से हस्पताल में थी। मैंने मानवीय समयसारिणी इसलिए कहा कि मानव जीवन से अलग हो जाने के बाद, आदमियों के नियम-कानून, रात-दिन, बरस-महीने, कुछ मायने नहीं रखते। ऐसा अनुभव किया मैंने। जब कोई भौतिक संसार के घेरे से निकल गए उन्हें न तो समय की सीमा है न ही भावनाओं कि महत्ता। वैसे महत्ता की बात करने से तिल का पहाड़ भी बन सकता है। संसार अलग, अस्तित्व अलग, संवाद के तरीके नितांत अलग। पर मैं ये सब अनुभव नहीं कर पा रही हूँ, इतना सब होने पर भी मैं अपने मानव जीवन से मुक्त नहीं कर पा रही हूँ।

तकरीबन छह महीने हो गए मुझे बेहोश हुए। इन छह महीनों में मेरी अनुभूतियाँ एकदम अलग सी रहीं। मैं आदमियों के चेहरे देखकर उनके दिल की बात जानने कि कला जान गई थी जो मैं पहले कभी सोच भी नहीं सकती थी। मेरा शरीर लट्ठे की भाँति बिस्तर पर पड़ा हुआ है। मेरे अंग-प्रत्यंग सब सो गए हैं। कुछ अंग जागे हैं तो, वे हैं आँखें और दिल। इन्हीं आँखों से मैंने उनके रोते हुए दिल में झाँका। पिताजी आर्तनाद कर रहे थे, माँ का दिल डूब रहा था, बच्चों के होश उड़ गए थे। फिर मैंने देख पाई डॉक्टरों के सत्प्रयास, नर्सों और सेविकाओं के निश्चल मन। इसी दौरान मैंने जाना, मनुष्य की चेतनाओं में जो बची रहती हैं उन्हीं चेतनाओं का विकास अधिकतम होता है। क्या कुछ नहीं हुआ, इन छह महीनों में ! पर जो भी हुआ उससे फिर जीने की लालसा हरे वृक्ष की भाँति बढ़ उठी। बिस्तर पर पड़े इन छह महीनों में कभी कभार ज़िंदगी से उकता जाती। लगता, मर जाना ही अच्छा है। मशीनों से घिरी हुई थी, अपने थे, पराए थे, डॉक्टर थे, नर्सें थीं। एक बोझ बन गई थी ज़िंदगी।

ऐसे में एक दिन मैं फिर अपने बदन से अलग हो उड़ने लगी। तकरीबन एक मीटर ऊपर उठकर अपने ही बदन को देखना मेरे लिए एकदम अनूठा अनुभव था। मैं आश्चर्यचकित थी। मैंने कुछ ऊपर जाने की कोशिश की तो बिना कुछ कठिनाई के पहुँच गई। फिर लगा थोड़ी दूर दाएँ जाऊँ, फिर बाएँ। इस तरह ऊपर पहुँच कर अलग-अलग कोनों से अपने शरीर को देख पाना सुखद लगा। मैं उड़ने लगी थी। फिर लगा खिड़की से बाहर उड़ चली जाऊँ। पर खिड़की तक नहीं जा पाई। उसी तरह दरवाजा भी मेरे दायरे से बाहर रहा। मैं उड़ तो सकती थी पर अपने बदन से ज्यादा दूर जाना संभव नहीं था। बहुत से विचार आने लगे। लगा विचारों का संयोजन करने के लिए अपने बदन में लौट जाना जरूरी है। इसलि अपने बदन के ठीक ऊपर जाकर मैं अपने बदन पर प्रवेश कर गई। ऐसा करते ही मेरा बदन दुःखने लगा। दर्द की लहर उठी। दोनों हाथ, डेक्स्ट्रोज के लिए कैनुला बदलते बदलते छलनी हो गए थे। उन्हीं छेदों से दिल को भेदने वाले दर्द भी भीतर ढुक गए। जीवन फिर दुःखने लगा। पर इसी दुःखती जीवन में एक नया उत्साह भर आया।

मन में आया की मैं एक कहानी लिखूँगी, मैं जिस  अनुभव से गुजरी थी, उसके बारे में, नियर डेथ एक्स्पिरियंस के बारे में। मुझे लगा कहानी का यह नया और अनूठा थीम हो सकता है।

नियर डेथ एक्स्पिरियंस के विषय में जानकारी मैंने कुछ साल पहले रिडर्स डाइजेस्ट से ली थी। रिडर्स डाइजेस्ट के उस अंक में एक रशियन डॉक्टर के नियर डेथ एक्सिपिरियंस के बारे में विस्तृत लेख छपा था। किन्ही कारणों से वे डॉक्टर मर गए थे। जिस दिन उनके लाश को हस्पताल ले जाया गया, उस दिन वक्त निकल चुका था जिससे शव का पोस्टमार्टम नहीं हो सका और शव को शवगृह के आईसबॉक्स में डाल दिया गया। तीन दिन बाद उनके शव को पोस्टमार्टम के निकाला गया तो वे सभी को आश्चर्य में डालते हुए उठकर खड़े हो गए थे। उन तीन दिनों की अनुभूतियों को उन्होंने जब लिखकर छपवाया तो तहलका मच गया था चिकित्सा जगत में।

उस वक्त मैं बहुत उत्तेजित हो गई थी, बहुत अजीव लगा था। आज भाग्य से या दुर्भाग्य से मेरे ही भाग में यह सब भोगना लिखा था। मैं दिल में एक कहानी सँजोने लगी –

**

मुझे ही सिर्फ क्यों ऐसी जल्दी रहती है। ओफ़्फ हो ! नौ बजने वाले हैं। खाना तो तैयार है। कोई क्यों नहीं आता ? कहाँ चले गए सब ? “ऋषभ ! अनिकेस ! जल्दी से पापा को लेकर आओ। खाना ठंडा हो रहा है।“ कहते हुए मैं खाना लगाने लगी। मेरी ज़िंदगी ऐसी ही है, महानगर में जो कोई भी ऐसा ही होता होगा। साँस लेने की भी फुर्सत नहीं। दस बजे तक ऑफिस नहीं पहुँची तो बॉस नाराज हो जाएँगे। लेकिन अब तक मैं कभी देर से नहीं पहुँची। शायद बॉस का डर काम कर रहा हो। बच्चों को स्कूल तक ये ही छोड़ आते हैं, ऑफिस जाते वक्त । इनके जाने पर अपने पुराने काइनेटिक होंडा में मैं भी लगनखेल के लिए निकलती हूँ। लगनखेल में इन्डियन एयरलाइंस का ऑफिस है जहाँ मैं नौकरी करती हूँ। तकरीबन दस बरस हो गए नौकरी करते हुए। ये दस बरस हमारी ज़िंदगी में बेहतरीन रहे। एयरलाइंस साल में दो टिकटें देता है, विदेश भ्रमण के लिए। इसी सुविधा के जरिए हम बहुत से मुल्क घुम आए थे। इस बार चीन जाने का प्रोग्राम था। बेजिंग जैसे शहर और ग्रेट वाल की कल्पना करते हुए मैं उतावली हो रही थी। काम खत्म कर उसी पुराने काइनेटिक में मेरे डिल्ली बाजार वाले घर से निकल पड़ती हूँ। डिल्ली बाजार से थोड़ा ढलान उतरकर माइतीघर की तरफ जाते हुए थापाथली पहुँचती हूँ। थापाथली में ट्राफिक लाईट में कुछ देर रूककर आगे बागमती के पुल की तरफ बढ़ जाती हूँ। फिर अचानक पुल के मुँह में पीछे वाला मोटर साइकल मुझे धक्का दे आगे बढ़ जाता है। मैं मुँह े बल गिर जाती हूँ। उसके बाद मुझे कुछ मालूम नहीं पड़ता।

तीन घंटे बाद वीर अस्पताल के इमरजेंसी वार्ड में मेरे होश खुलते हैं। मैं देखती हूँ मेरी सखी है मेरे पास मेरे हाथ पकड़े हुए। अनन्या भी मेरी ही ऑफिस में नौकरी करती हैं। यों तो वह मुझसे जूनियर है पर उसकी जूनियरिटी हमारी दोस्ती में कभी बधक नहीं बनी। दरअसल जब मेरा एक्सिडेंट हुआ था वह मेरे पीछे-पीछे आ रही थी। यह मात्र संयोग था या भगवान का आशीर्वाद मैं तय नहीं कर पाई। सर के बाईं तरफ़ कुछ दर्द सा महसूस हुआ। हाथ ले जाकर टटोलने लगी तो पाया थोड़ी सी सूजन हो गई थी वहाँ। ‘थोड़ी सी सूजन ही तो है‘ लगा कुछ ज्यादा नहीं हुआ।  हेलमेट तो मैं पहने हुए ही थी।

मेरे होश खुलते देख मेरी सखी अनन्या के चेहरे में खुशियाँ लहराने लगीं। मुझे डेक्स्ट्रोज दिया जा रहा था। शायद मेरी बेहोशी में ही दिया गया हो।

अनन्या ने ही फोन किया हो, शायद, वो आ गए। देखा चेहरे की रौनक सब गायब है। पास आए, मुझे मुस्कुराते देख बोले- ‘सुहासिनी ! मेरे तो होश उड़ गए थे।‘

मैं बोली - ‘आप फिक्र न करें, मुझे कुछ नहीं हुआ है। देखें, छोटी सी सूजन तो है।‘

वे मेरा सर टटोलने लगे और अनन्या से पूछा - ‘कहीं और कुछ हुआ तो नहीं है, गहरी चोट नहीं लगी है?‘

‘जी, ज्यादा तो कुछ नहीं जानती, पर डॉक्टर साहब कह रहे थे, सीटीस्कैन करके देखना पड़ेगा। आप एकबार डॉक्टर साहब से मिल आएँ।‘

‘ठीक है !‘ कहकर मेरे पति ज्योहीं उठने को हुए मैंने उनका हाथ पकड़ उन्हें फिर से पास बिठा लिया। पता नहीं क्यों आज मुझे उनसे लाड़ जताने को दिल कर रहा था। व्यस्त शहरी जीवन के उबाऊ तौर तरीके से कभी मुक्ति नहीं मिलती। कभी पति-पत्‍नी साथ बैठकर प्यार की दो बातें भी नहीं कर सकते। आज एक्सीडेंट की वजह से ही सही यह मौका तो मिला था। अनन्या शायद मेरे मन के भाव को समझ गई और ‘मैं नर्स से मिल आती हूँ‘ कहकर कमरे से बाहर निकल गई।

मैंने उन्हें जी भरके देखा। वे भी मुझे उसी तरह देख रहे थे। हमने आँखों से बातें की, शब्दों की भाषा से बहुत ऊँची भाषा में संवाद किया, बिती हुई ज़िंदगी देखी और भविष्य की ओर देखने की कोशिश की। अचानक माँ और पिताजी को लेकर अनन्या भीतर आ गई। मैं लज्जा से दोहरी हो गई और आँखें मूंद ली।

फिर तुरंत ही नर्सें स्ट्रेचर लेकर आ धमकीं। मुझे सीटीस्कैन के लिए जे जाया जा रहा था। स्कैनर के भीतर सर घुसाने पर लग रहा था किसी गहरी खाई में अपना सर डाल रही हूँ। कुछ देर बाद फिर मुझे उसी बेड में ले जाया गया।

माँ और पिताजी बेड के पासवाले बेंच में बैठे हुए थे। वक्त की धाराओं ने उनके चेहरे पर जो चुन्नटें बना रखी थी उनमें उदासी के रंग स्पष्ट देखे जा सकते थे। मैं मुस्कुरा उठी, देखा उनके होठों पर भी तबस्सुम के फूल उग आए हैं।

शाम के पाँच बजे के करीब दोनों बेटों के साथ सीटीस्कैन का रिपोर्ट भी आ पहुँची। डॉक्टर साहब खुद रिपोर्ट लेकर आए थे। कहने लगे- ‘देखिए उर्मिलाजी के सर में जो सूजन हुई है, उसके ठीक भीतर थोड़ा सा ब्लड क्लाटिंग हुआ है। कल ही ऑपरेशन करना होगा। मैंने ऑपरेशन का नॉर्मल शैड्यूल पोस्टपोन कर दिया है। आप अभी जाकर एनेस्थेसिस्ट से मिल लें।‘ फिर मेरी तरफ देख कहने लगे- ‘अच्छा तो उर्मिला जी कल ऑपरेशन थिएटर में मिलते हैं।‘ इतना कहकर डॉक्टर साहब चल गए।

अब एनेस्थेसिस्ट की बारी थी। वे आकर पल्स, बीपी बगैरह देखने लगे। ऑपरेशन का नाम सुनते ही मेरी माँ और पिताजी भी नर्वस दिखने लगे थे। बेटे भी उदास खड़े थे एक तरफ। अनन्या और उनके चेहरों की भाषा मैं पढ़ नहीं पा रही थी। शायद भविष्य में आनेवाली मुशकिलों का अंदाजा लगा रहे हों।

माँ और पिताजी को ढाढ़स देते हुए कहने लगी- "माँ, पिताजी, क्यों इतनी फिक्र करते हैं, थोड़ा सा जमा हुआ खून तो है, डॉक्टर साहब निकाल देंगे, बस खेल खत्म।" मैंने कह तो दिया पर नहीं जान पाई उन पर क्या गुजर रही थी।

उसके बाद मुझे एक इंजेक्शन दिया गया। शायद नींद का इंजेक्शन हो। होगा ही, क्योंकि मुझे नींद सताने लगी थी। उसके सिवा चारा भी क्या था। मुझे तो लगा था थोड़ी देर और बात कर पाऊँगी।

अगले सुबह जब मैं जागी तो तकरीबन सुबह के नौ बज चुके थे। मैंने देखा मेरी खटिया के पास ही वो बैठे थे। कुछ बातें भी नहीं कर पाई थी की ऑपरेशन थिएटर जाने का वक्त आ गया था।

**

ऑपरेशन के लगभग तीन महीने बाद मैं होश में आई। पर यह क्या ? यह बात किसी को क्यों नहीं मालूम ? मैंने बोलना चाहा, मेरे मुँह से शब्द नहीं निकले। चाहा कि चिल्ला-चिल्लाकर सबका ध्यान अपनी ओर खींचूँ पर एक पत्ता तक नहीं हिला। हाथ उठाने को दिल किया, नहीं कुछ नहीं हुआ। सर को दाएँ-बाएँ हिलाने कि चेष्टा की, पर बाल तक नहीं हिले। मैंने अपनी तरफ से जो हो सकता था सब किया लेकिन कुछ हुआ नहीं। मैं लाचार, मैं विवश ! पास ही बैठे थे वो, मेरी आँखों में झाँक रहे थे। उनके चेहरे की भावशून्यता से मैं घबरा गई, पर कैसे कहूँ कि मैं घबरा गई हूँ ? मेरा बदन सब शून्य तो है। कैसे कहूँ कि मुझे क्या हो रहा है ? कैसे रोऊँ मैं ? कैसे हँसूँ मैं ? अपने शरीर की अक्षमता का पहला अहसास ऐसे हुआ था मुझे।

उसके बाद तो दिन गुजरते गए। मुझे लगातार सलाइन दिया जा रहा था। मैंने महसूस किया कि एक प्लास्टिक का फूड पाइप मेरे मुँह के जरिये पेट में पहुँचाया गया है। सुबह, शाम मेरे वो मुझे उसी पाइप से खाना खिलाते थे। न जाने कितनी ही किस्म के व्यञ्जन होंगे पर मुझे तो किसी भी व्यञ्जन का स्वाद मालूम नहीं। हो भी कैसे स्वाद तो जिह्वा से लिया जाता है। जब जिह्वा ही नहीं काम कर रही तो मेरा क्या कसूर ? जिह्वा ही क्या मेरे बदन का कोई भी अंग काम नहीं कर रहा। मेरे मुँह का पाइप और सलाइन बगैरह भी मैं आँखों से देखकर ही पता कर पाई। मेरी चेतना शक्ति इस तरह मारी गई है, मैं खुद हैरान थी।

वैसे में एक दिन डॉक्टर साहब आकर उनसे कहने लगे - ‘देखिए, उर्मिलाजी का एम.आर.आई करवाएँ एक बार। जो एन्युरिज्म की आशंका थी, शायद बढ़ गया है, फिर ऑपरेशन करना पड़ सकता है।‘

अब फिर शुरू हुई टेस्टों की श्रृंखला। मैग्नेटिक रेजॉनन्स ईमेजर के भीतर सर डालने और निकालने की प्रक्रिया। दसियों बार एम.आर.आई करने के बाद फिर ऑपरेशन के लिए शेड्युल लिया गया। मेरे एक्सिडेंट को पाँच महीने गुजर चुके थे।

फिर एक दिन अचानक जब मैं सर घुमाने कि कोशिश करने लगी, लगा कहीं दर्द सा हो रहा है। फिर एक बार जीवन की आशा बँधी। मेरे सर को थोड़ा सा हिलते देख उनके चेहरे में भी आशा के फूल फूट गए। मैं बोल तो नहीं पाई पर मैंने तीन बार आँख मारी। वो समझ गए की मैं उनसे ‘मैं आपको बहुत प्यार करती हूँ‘ कहना चाह रही हूँ। यह देख वे रो दिए। कहने लगे -‘ मैं भी तुम्हें बहुत प्यार करता हूँ, सुहासिनी। तुम्हें कुछ नहीं होगा। डॉक्टर साहब ने कहा है आपरेशन के बाद सब कुछ ठीक हो जाएगा।‘

उन्होंने मुझें बाहों में ले लिया। मुझे मानों जन्नत मिल गई।

मेरे सर के एन्युरिज्म के लिए एक महीने बाद का डेट फिक्स किया गया। ऐसे होश में आने और बेहोश होने के चक्कर में मैंने जाना मेरे सर के एन्युरिज्म के बारे में अमरिका से विश्वप्रसिद्ध न्युरोसर्जन डॉ. फ्रैड ऐप्सटिन से भी विडियो कॉन्फरैसिंग के जरिए सलाह ली गई थी। डॉ. ऐप्सटिन ने ही ऑपरेशन एक महीने बाद करने की सलाह दी थी।

मेरे सर, हाथ-पैर, बदन कुछ नहीं चलते। चलते हैं तो सिर्फ़ मेरी आँखें और मेरा मन। इन चलायमान आँखों से मैं किसी से संवाद तो नहीं कर सकती, न ही खुद कुछ कर पाती हूँ। व़क्त काटे नहीं कटता। दिल की बेचैनी दिन-ब-दिन बढ़ रही है। फिर एक दिन ऐसा आया जब मैं मेरे बदन को छोड़ ऊपर उठ गई.....................।

**

इसी तरह की कहानी का प्लाट सोचते सोचते ऑपरेशन की डेट भी आ पहुँची। ट्रैंक्विलायजर से ठूँठ बन चुके शरीर में फिर एनेस्थेसिया का बोझ डाला गया और मुझे ऑपरेशन थिएटर में ले जाया गया। मैं एनेस्थेसिया के बोझ तले दब गई और सो गई।

जब गहरी नींद से जागी तो मेरी आँखें भी नाकाम हो चुकी थीं। बदनभर सेन्सर जुड़े हुए थे और मेरा बदन और सूख गया था। मेरी आँखें – जिनसे मैं उनसे, बाहरी दुनिया से, अपने प्यारे किशोर बेटों से, स्नेहवत्सल माँ-पिताजी से, मेरे सारे काम खुद करके मेरे बेटों की देखभाल करने वाली सखी अनन्या से और अपनों से संवाद करती थी- बंद हो चुके थे। मैं आँखों से न अच्छी तरह देख पाती थी न ही आँखें हिला पाती थी।

फिर एक दिन अचानक मैं अपने शरीर से बाहर हो गई। मैंने अपने शरीर में फिर से चले जाने की जी तोड़ कोशिश की पर कुछ नहीं हो पाया। मेरे सारी मेहनत बेकार गई।

**

अरे यह क्या ? धुवाँ तो आकाश नापने लगा है। मेरा बदन भी तकरीबन जल चुका है। अब कुछ बाकी नहीं रहा। आशा करने से भी होना क्ा है ? हुआ क्या है अभी तक ? आदमी होकर जीने के लिए तो आदमी का ही बदन चाहिए न ? मेरे सारे अपनों को, मेरे परिवार को अब मेरा बदन तकलीफ नहीं देगा। आइ.सी.यू में तीन महीने रही। इन्हीं तीन महिनों में मेरे अंग एक-एक कर अपना काम बंद करने लगे। मैं अपने बदन से बाहर निकल आई और मेरा शरीर इस तरह जीर्ण पड़ने लगा, जैसे मिट्टी में मिलने जा रहा हो। फिर भी मैं अपने शरीर में लौटने के लिए हरपल प्रयत्‍नशील रही पर सफल नहीं हो पाई।

अब मेरा सारा बदन आर्यघाट के इस चिता में जल चुका है। एक जीवन समाप्त हो गया है, साथ ही समाप्त हो गया है मानव जीवन जीने का एक भगीरथ प्रयत्‍न।

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