कैसे लाँघी- मर्यादा?
काव्य साहित्य | कविता डॉ. रमा द्विवेदी3 May 2012
तुम तो मर्यादा में रहते,
यही सुना था,यही पढ़ा था।
फिर कैसे लाँघी मर्यादा?
और तांडव नृत्य किया था॥
त्राहि-त्राहि मच गई चहुँदिशि,
कैसा क्रूर रूप धरा था।
कुछ पल में ही नष्ट कर गए,
आस-पास निस्तब्ध बना था॥
ऐसा दंड फिर कभी न देना,
यह सृष्टि ना सह पायेगी।
खुद पर इतना पाप न लेना,
तुम्हें मुक्ति ना मिल पायेगी॥
माना अपराध हुआ है हमसे,
पर्यावरण मिटाने का।
क्षमादान दे सकते थे तुम,
एक बार समझाने का॥
तेरी इच्छा तू ही जाने,
हम तो तुझको पूज्य मानते।
तुम ही तो जीवन-जल देते,
जीवन का अभिभाज्य मानते॥
सृष्टि में तुम, तुम में सृष्टि,
संभव नहीं कुछ तेरे उपकार बिना।
तेरे अति से, तेरे अभाव से,
अस्तित्व नहीं जीवन का यहाँ॥
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