कल्पवृक्ष
कथा साहित्य | लघुकथा डॉ. दीप्ति1 May 2021 (अंक: 180, प्रथम, 2021 में प्रकाशित)
"माँ बहुत भूख लगी है, जल्दी से खाना दो," नैना झल्लाती हुई अपनी माँ से बोली।
रोहिणी स्कूल से अध्यापन कार्य समाप्त कर घर लौट कर जल्दी से खाना बनाने की तैयारी में जुट गई ताकि अपनी बेटी की क्षुधा को तृप्त कर सके।
"नैना कभी मेरी भी घर के कार्यों में मदद करवा दिया करो। मैं भी इंसान हूँ। थक जाती हूँ," यह सुनकर नैना बातों को अनदेखा कर किताबें पकड़कर पढ़ने का बहाना बना देती।
"आज माँ के हाथ का प्रेमपूर्वक बनाया खाना बहुत याद आ रहा है," शादी के बाद गर्भवती नैना रसोई में कार्य करते हुए सोच रही थी।
"इतनी देर से क्या कर रही हो नैना। कोई कार्य तो ढंग से समय पर पूरा कर लिया करो। माँ ने कुछ सिखाया ही नहीं! कैसी लड़की मत्थे मढ़ दी है," सास के कटाक्षों से स्नेहमयी, वात्सल्यमयी माँ की पुण्यतिथि पर उसकी स्मृतियों में खोई नैना को जैसे झटका सा लगा। माँ रूपी कल्पवृक्ष की शीतल छाया का सम्मान न करने का पछतावा उसके अंर्तमन को निरंतर कचोटता हुआ सैलाब बनकर उसकी आँखों से आँसू के रूप में बहे जा रहा था।
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