अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

कल्पवृक्ष 

"माँ बहुत भूख लगी है, जल्दी से खाना दो," नैना झल्लाती हुई अपनी माँ से बोली।

रोहिणी स्कूल से अध्यापन कार्य समाप्त कर घर लौट कर जल्दी से खाना बनाने की तैयारी में जुट गई ताकि अपनी बेटी की क्षुधा को तृप्त कर सके।

"नैना कभी मेरी भी घर के कार्यों में मदद करवा दिया करो। मैं भी इंसान हूँ। थक जाती हूँ," यह सुनकर नैना बातों को अनदेखा कर किताबें पकड़कर पढ़ने का बहाना बना देती।


"आज माँ के हाथ का प्रेमपूर्वक बनाया खाना बहुत याद आ रहा है," शादी के बाद गर्भवती नैना रसोई में कार्य करते हुए सोच रही थी।

"इतनी देर से क्या कर रही हो नैना। कोई कार्य तो ढंग से समय पर पूरा कर लिया करो। माँ ने कुछ सिखाया ही नहीं! कैसी लड़की मत्थे मढ़ दी  है,"  सास के कटाक्षों से स्नेहमयी, वात्सल्यमयी माँ की पुण्यतिथि पर उसकी स्मृतियों में खोई नैना को जैसे झटका सा लगा। माँ रूपी कल्पवृक्ष की शीतल छाया का सम्मान न करने का पछतावा उसके अंर्तमन को निरंतर कचोटता हुआ सैलाब बनकर उसकी आँखों से आँसू के रूप में बहे जा रहा था।

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

105 नम्बर
|

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते…

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

लघुकथा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं