अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

कंगले की माँ 

रमेशर की माँ की अर्थी श्मशान में उतारकर चिता पर लिटाने की तैयारी हो रही थी. .  लोगों ने अर्थी पर से ऊपर डाले गए कपड़े उतारकर अलग रख दिए . . अब पार्थिव शरीर को चिता पर चिता पर लिटा दिया गया था. . . 

रमेशर ने अपनी माँ की चिता को दाग दिया. . पूरा क्रियाक्रम विधिपूर्वक पूरा किया गया था. . जग्गू डोम ने पूरी क्रिया में भरपूर साथ दिया. . . 

आग की लपटें ऊपर उठ चुकीं थीं. . जग्गू की पत्नी और जग्गू अर्थी पर से उतारे गए कपड़े इत्यादि इकट्ठे करने लगे . . . 

"क्यों जी, किसका अंतिम संस्कार हो रहा है," जग्गू की पत्नी ने पूछा. . . 

"रमेशर की माँ का," जग्गू ने जबाब दिया . . . 

"कौन रमेशर? कहीं ये तुलवा चमार का बेटा तो नहीं.?" उसकी बीवी ने पूछा. . . 

"हाँ वही है," जग्गू ने अनमने मन से कहा . . . 

"हे ईश्वर, तुझे भी इस कंगले की माँ ही मिली थी मारने के लिए. . उसके तो रिश्ते-नाते वाले भी लगता है उसके जैसे ही कंगाल हैं," जग्गू की बीवी ग़ुस्से में बोल रही थी. . . 

"हाँ भागवान्, साले रमेशर की माँ मर गयी. . . हमें क्या फ़ायदा हुआ? अर्थी से गिनी हुई चार भी नहीं मिली . . ."- जग्गू कह रहा था. . . 

जग्गू ने कपड़ो की पोटली बाँध कर लाद ली. . . और घर की ओर चल दिया. . . 

आग की लपटें अब भी उठ रहीं थीं. . 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

105 नम्बर
|

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते…

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

टिप्पणियाँ

सन्दीप तोमर 2023/01/11 11:03 AM

आभार टीम साहित्यकुंज

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

कहानी

पुस्तक समीक्षा

स्मृति लेख

लघुकथा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं