अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

कथा

हेमंत ऋतु का पहला महीना...

अगहन की पूर्णमासी...बृहस्पतिवार का दिन... सुबह का समय...

घर के छोट-बड़े सभी सदस्य आज जल्दी जग गये... सभी का एक साथ जगना... मतलब बिल्कुल साफ़ था, कि आज घर में कुछ विशेष आयोजन सुनिश्चित है। जी सही समझे आप, आज परसन्नी दादा के घर में कथा होनी है। दादा का नाम परमेश्वर सिंह था, गाँव के लोग प्रायः बड़े अदब से परसन्नी दादा कह कर पुकारते, परसन्नी दादा परम धर्मानुरागी व्यक्ति थे। धर्म के प्रति जो लगाव उस समय उनके मन में था, वैसा लगाव तो शायद आज प्रेमी के मन में अपनी प्रेमिका के लिए भी  नहींं होता है, ये धर्मानुराग उनको अपने पूर्वजों से विरासत में मिला था।

विरासत... और विरासत में मिली हुई वस्तु का मूल्य स्वाभिमानी व्यक्ति के लिए प्राणों से बढ़कर होता है।

मैकू भी बीड़ी पीता हुआ आज रोज़ से कुछ पहले ही आ गया, जो परसन्नी दादा का बँधुआ मज़दूर, स्वामिभक्त सेवक, होने के साथ ही कर्मठ भी था; बिल्कुल अपने बापू (पिता)की तरह। "बँधुआ मज़दूरी में चाहे लाख अवगुण हों, पर इसकी सबसे ख़ास बात यह होती है कि बँधुआ मज़दूर को जीवन भर तबादले का डर  नहींं रहता,आज की नौकरियों की तरह"। उसको परसन्नी दादा के यहाँ काम करने का ये अवसर... सौभाग्य... स्थितिजन्य करुणा (पिता जी के द्वारा लिए गए ऋण से मुक्त न होने) के कारण मिला था; जिसे सरकारी शब्दावली में आज बड़ी प्रतिष्ठा के साथ अनुकंपा नियुक्ति कहा जाता है। मैकू के पिता पिछले वर्ष क्वार के महीने में मलेरिया बुखार की चपेट में आकर भगवान को प्यारे हो गए... तब से मैकू ही परसन्नी दादा के घर और किसानी का सारा काम देखता है। 

दादा को प्रणाम करते हुए मैकू ने देखा कि अभी तक बैलों की सानी-पानी  नहींं हुई है, वो शीघ्रता से बैलों के चारा-पानी में जुट गया। इधर घर के अंदर साफ़-सफ़ाई का काम युद्धस्तर पर चल रहा था। आज अलगनी के दिन भी दिन बहुरे थे, बड़ी बहू ने उस पर टँगे कपड़े उतारे... उन कपड़ों पर मकड़ी के जाले की कई परतें चढ़ गयीं थीं, घर में जो दुधगड़वा रोज़ धधकता था उसके धुँए से अलगनी में टँगे हुए कपड़े कुछ काले पड़ गये थे।

मँझली बहू आँगन लीपने में लगी थी, आँगन के बीचों-बीच वैष्णवी तुलसी भारतीय संस्कृति के वैभव को बढ़ा रही थी। दादी... ख़बरी दादी, मुहल्ले की महिलायें उनको इसी नाम से सम्बोधित करती थीं, आज की पीढ़ी में हम जिसे संवाददाता कह सकते हैं, उस समय की अपने मुहल्ले की वो इकलौती संवाददाता थीं। उन्हें चलता-फिरता अख़बार भी कह सकते हैं। उन्होंने रोज़ की तरह सुबह उठकर सबसे पहले धरती मइया को प्रणाम किया, फिर अपना पनडब्बा लेकर सुपाड़ी काटने बैठ गयीं। सुपाड़ी खाने का शौक़ उनको मायके से ही था... .इसे आदत भी कह सकते हैं। 

छोटी बहू ने आकर अम्मा जी को प्रणाम किया, और बताया कि ...मैंने मटकी से थोड़ा दही निकाल कर साफ़ कटोरी में अलग रख दिया है, प्रसाद के लिये... मथानी और रस्सी लाकर रख दी है, आप जल्दी से मटकी का दही मथ लो। बहू के इस कथन में आदेश कम, निवेदन अधिक था। दादी ने थोड़ा-सा मुँह बिचकाते हुए कहा... "अब तू मुझे मेरा काम समझाएगी तभी तो मैं करूँगी, जैसे मुझे तो याद ही  नहींं है कि ... ...।"

मैकू ने दहलीज़ से आवाज़ लगायी, "अम्मा पाँव छुई... दादा ने कहा है कि घर से कुल्हाड़ी लेकर कुछ लकड़ी काट दो।"

दादी ने कहा, "तुम वहीं रहो... मैं कुल्हाड़ी भिजवाती हूँ।"

दादी को डर था कि कहीं मैकू लीपे हुए आँगन को अपवित्र न कर दे। अब दादी को कौन समझाये कि जिसके छू जाने मात्र से आँगन अपवित्र हो सकता है तो उसके हाथ से काटी हुई लकड़ियों से रसोई में जो भोजन बनेगा वह पवित्र कैसे रहेगा? ये बात ख़बरी दादी को अभी तक समझ में  नहींं आयी थी। बड़ी बहू ने कुल्हाड़ी लाकर दहलीज़ में खड़े मैकू को दे दी... उसने कहा, "भउजी आज दोपहर के खाने में कटहल का अचार ज़रूर देना उस दिन खाया था बहुत अच्छा लगा।"

भउजी ने कहा, "जाओ पहले लकड़ी तो काट लाओ तभी तो खाना बनेगा।"

भउजी इतना कह कर चल दी... मैकू निर्निमेष भाव से भउजी की बलखाती कमर और नितंब के उभारों को देखता हुआ कहीं खो गया। दरवाज़े से दादा ने आवाज़ लगायी, "अभी तुझे कुल्हाड़ी  नहींं मिली?" 

परसन्नी दादा की कड़क आवाज़ सुनकर मैकू के शरीर मे जैसे बिजली का करंट दौड़ गया... हड़बड़ाते हुए उसके मुँह से निकला, "कुल्हाड़ी मिल गयी है दादा... आता हूँ।" उसका कलेजा अभी भी धक-धक कर रहा था... मैकू मानसिक अपराध बोध से पूरी तरह डरा हुआ था। परसन्नी दादा के घर के पिछवाड़े लकड़ी का बड़ा-सा ढेर लगा था, मैकू लकड़ियों के ढेर से लकड़ी निकाल कर काटने लगा, उसका मन अभी तक कल्पना के आनन्द में गोते लगा रहा था। 

हरिया नाई हाथ में कुछ सामान लिये हुए लंबे डग भरता हुआ चला आ रहा था, दरवाज़े पर परसन्नी दादा को बैठा हुआ देखकर सुबह की राम-राम की। उसके अभिवादन में शिष्टता का भाव... दाल में नमक की तरह ...और चाटुकारिता का भाव दाल में पानी की तरह था। गाँव के लोग प्रायः इसी आदत के कारण उससे कन्नी ही काटते रहते थे, अगर वह किसी से बड़े प्यार से मिले... तो समझो कोई न कोई मतलब ज़रूर है। अगर एक वाक्य में कहें तो यही कि हरिया में चाटुकारिता, बातूनीपन, मतलबपरस्ती जैसी तमाम विशेषताएँ कूट-कूट कर भरीं थीं।

आज वह बहुत ख़ुश दिखाई दे रहा था... ऐसी ख़ुशी उसके चेहरे पर कभी-कभी ही आती, जब गाँव में किसी के यहाँ कोई आयोजन होता था। आज उसका ख़ुश होना लाज़िमी था। परसन्नी दादा के यहाँ कोई भी आयोजन हो, उसमें हरिया को बरकत होती थी। उसने अपने हाथ में टँगी हुई समान की पोटली खोली... उसमें हरे पत्तों से बने कुछ दोने, आम की हरी टहनी आदि... थी।

ये सब समान कथा में आज भी नाई ही लाता है।

परसन्नी दादा ने कहा, "तुम आ गए अच्छी बात है... पर पंडित परमानंद महाराज को भी तो बताना पड़ेगा कि आज कथा होनी है।" 

हरिया ने कहा कि, "मैं पहले ही उनको बता आया हूँ कि आज शाम को दादा के यहाँ कथा होनी है आप समय से पहुँच जाना।" 

दादी ने हरिया से कहा, "केला का पत्ता भी तो पूजा में लगता है वह तो तू लाया ही  नहींं।" 

हरिया ने दाँत निपोर दिये... उसके दाँतों में पीली परत आसानी से देखी जा सकती थी। हरिया ने कहा, "कोई बात  नहींं मालकिन... मैं शाम को जब आऊँगा तो साथ ही ले आऊँगा, तुम तो जानती हो कि नाई को हज़ारों काम रहते हैं... अब एक ही काम हो तो याद रहे।" 

दादी ने तुनक कर कहा, "तू बहुत बकवास करता है... ले थोड़ा-सा गुड़ खाकर पानी पी ले, और आम की सूखी लकड़ियाँ तोड़ ला हवन के लिए,  नहींं ये काम भी तू भूल जाएगा।" 

परसन्नी दादा ने कहा, "अभी दो चार तखत और कुछ खटिया भी लानी पड़ेंगी ... नहींं तो शाम को लोग आएँगे तो कहाँ बैठेंगे?"

इतने में मैकू दोपहर का खाना खाकर अपने मटमैले अँगोछे से हाथ पोंछता हुआ निकला, उसको देखकर हरिया ने कहा, "अरे मैकू भाई बहुत दिन बाद दिखाई दिये... एक बीड़ी तो पिलाओ।" 

मैकू ने कहा, "तुम जब भी मिलते हो मुझसे ही बीड़ी पिलाने की बात कहते हो कभी-कभार तुम भी तो एकाध पिला दिया करो।" 

दोनों वहीं नीम के चबूतरे पर बैठकर बीड़ी पीते हुए मसखरी करने लगे, दोनों के मुँह से धुँए के गोल छल्ले और लच्छेदार बातें बारी-बारी से निकल रही थीं... ये सिलसिला बीड़ी के आख़िरी कश तक चलता रहा।

घर में सभी तैयारी लगभग मुक़म्मल हो चुकी थी, आज घर की रौनक़ देखने लायक़ थी। सभी ने अवसर के अनुकूल परिधान पहन लिये थे। बड़ी बहू ने अपने मायके वाली साड़ी जो नारंगी रंग की थी पहनी... मँझली बहू ने रक्षाबंधन में जो साड़ी मिली थी वह निकाल कर पहन ली। छोटी बहू को अभी तक चूल्हे के काम से फ़ुरसत  नहींं मिली थी, आज काम कुछ ज़्यादा था...खाना बनाना, बरतन चौका करना, फिर कथा के लिए प्रसाद तैयार करना आदि। ख़बरी दादी ने संदूक से अपने समधियाने वाली धोती निकाली, जिसको वो कभी-कभी ही पहनती थी। कथा तो दादा और दादी को एक साथ ही सुननी थी, इसलिए दादा के पहनने के लिए कुर्ता, सफ़ेद धोती और सदरी निकाल कर रख ली।

गाँव बड़ा था... अतः लोग भी अधिक संख्या में आएँगे, इसलिए मैकू ने सात आठ खटिया और तीन तखत लाकर डाल दिये थे।

अब पंडित के आने की देर थी, थोड़ी देर में पंडित परमानंद जी सीतारामी अँगोछा कंधे पर डाले... बगल में झोला लटकाये हुए दिखाई दिए... वो पैदल चले आ रहे थे। पंडित जी का नाम तो ज़रूर परमानंद था, लेकिन उनके जीवन में शायद आनंद  नहींं था। पंडित जी की पहली पत्नी एक बेटे को जन्म देकर संसार से चली गयी थी। 

दाम्पत्य जीवन का सुखद-साहचर्य भले छोटा हो पर उसकी स्मृतियाँ बहुत बड़ी होती हैं। पंडित जी की दूसरी शादी हो गयी थी, किसी काम के विचार मात्र से जो प्रसन्नता मिलती है, उस काम को करके उतनी प्रसन्नता  नहींं मिलती।

दूसरी पत्नी पंडित जी लिए तो कर्कशा थी... (दूसरी पत्नी से दो बेटियाँ हुई थी)... किन्तु बच्चों की परवरिश में वो अपने स्वभाव के बिल्कुल विपरीत थी।

परसन्नी दादा ने पंडित जी को प्रणाम किया, पंडित जी ने सुखी रहने का आशीर्वाद दिया। हरिया भी आ गया, कथा की तैयारी होने लगी, दादा ने कुर्ता धोती सदरी पहनी। पंडित परमानंद जी आँगन में बैठकर नवग्रह बनाने लगे, कलश सजाया गया, उस पर घी का दीपक जलाया गया। बीच-बीच में पंडित जी संस्कृत में मंत्रोच्चार भी करते जाते। हरिया पूरे गाँव में कथा का बुलावा दे आया था, धीरे-धीरे लोग आने शुरू हो गए थे। मुहल्ले के बच्चों में भारी उत्साह था... सब एकत्र होकर धमा-चौकड़ी कर रहे थे, कुछ लुका-छिपी खेल रहे थे। 

ग्रामीण जीवन में धन का अभाव ज़रूर था पर चेहरों पर सहज मुस्कान की झलक आसानी से देखी जा सकती थी। 

भरोसे काका, छोटकउनू, सत्ती बाबा, रमई भइया, पुजारी (गंगू को गाँव के लोग इसी नाम से जानते थे), दातादीन, दईली, दुक्खी, चंदूबाबू, रामदयाल, बिसेसर, भगान, दर्शन, कंधई, देउता, बचोले, संगठा, परसादी, निहोरे ये सभी लोग आ गए थे। सब बैठकर आपस में एक दूसरे की कुशल-क्षेम पूछ रहे थे। सभी की चर्चा में वही बात थी जो कल गाँव की चौपाल में बैठक हुई थी। कल गाँव में मुखिया जी ने एक बैठक बुलाई थी, मुद्दा था सरकार द्वारा चलाये जा रहे बीस सूत्रीय कार्यक्रम और सहकारिता से गाँवों का विकास करना। गाँव के मुखिया छैलबिहारी जी... जो 55 बीघे के काश्तकार थे, और तेईस वर्षों से मुखिया भी थे। मुखिया जी के जीवन में सिर्फ़ एक ही दुःख था कि उनकी पत्नी चालीस वर्ष की अवस्था में उनका साथ छोड़कर दुनिया से चली गयी थी। मुखिया जी ने दूसरी शादी फिर कभी  नहींं की। मुखिया जी का संयुक्त परिवार था, एक भाई लेखपाल... एक भतीजा विदेश में... एक भाई और उनका बड़ा लड़का फौज में था।

मुखिया जी ने पद पर रहते हुए कई लोगों की मदद भी की थी, उनकी मदद दिन के उजाले में कम और रात के अँधेरे में अधिक होती थी। पड़ोस में एक महिला का पति चार महीने पहले गुज़र गया था, उसके पास जीविका का कोई साधन  नहींं था। उसको मुखिया जी ने डेढ़ बीघे ज़मीन आवंटित कर कर दी थी। मुखिया जी ने भी अपने जीवन में सहकारिता के सिद्धांत को पूरी तरह अपना लिया था। उनकी सहकारिता का गाँव को तब पता चला जब वही पड़ोस की महिला पति के मरने के ग्यारहवें महीने बाद गर्भवती हुई । पहली बार मुझे सहकारिता का एक नया मतलब समझ में आया... पर अफ़सोस कि ऐसा अवसर अपने हिस्से में आज तक  नहीं आया।
ये बात जंगल में लगी आग की तरह गाँव में फैल गयी ...सभी लोग सुनकर दंग रह गये।

बिसेसर मुखिया जी को देखकर अक्सर ये पंक्तियाँ मन ही मन में गुनगुनाता था... जो उनके चित्र और चरित्र दोनों को एक साथ प्रस्तुत करती हैं - 

"तानाशाही  चली  गयी  पर 
अब  भी  ताना  बाक़ी  है।
कहीं-कहीं  पूँजीपतियों  का 
अभी   घराना  बाक़ी  है।
बुधुआ की लुगाई लगती थी 
सारे  गाँव   की   भौजाई,
चली गई सब शान-ओ-शौक़त
महज़    तराना  बाक़ी  है।"

ज़मीदारी सरकारी फ़ाइलों में बहुत (लगभग ढाई दशक ) पहले ही मर (समाप्त) चुकी थी, पर कहीं-कहीं उसकी सड़ाँध अभी तक बाक़ी थी। पद प्रभाव और पैसा बहुत कुछ अपने आवरण में छिपा लेता है। जैसे जंगल में लगी आग धीरे-धीरे शांत हो जाती है, वैसे ही इस तरह की घटनाओं से त्वरा में निकली बातें भी तत्काल शोर तो बहुत करती हैं पर कुछ समय बाद ग़ायब हो जाती हैं। क्योंकि समाज की याददाश्त बहुत कमज़ोर होती है।

परसन्नी दादा के दरवाज़े पर लगभग डेढ़ सौ आदमियों की भीड़ एकत्र हो चुकी थी। इतने में मुखिया जी भी आ गए... सब लोग उनको देखकर उनके सम्मान में खड़े हो गए। 

इधर कथा का तीसरा अध्याय समाप्त हो चुका था... पंडित जी ने शंख बजाया। ख़बरी दादी और परसन्नी दादा दोनों बड़े ध्यान से कथा सुन रहे थे। पंडित जी कथा में कभी लकड़हारा तो कभी कलावती और कभी लीलावती की बातें बड़े सुंदर ढंग से बता रहे थे। दादा तो कथा बड़े ध्यान से सुन रहे थे पर दादी का ध्यान बीच-बीच में इधर-उधर की बातों में चला जाता था।

परसन्नी दादा ख़बरी दादी की इस चकर-मकर को देखकर आँखें तरेर देते... तो दादी शांत होकर कथा सुनने लगती।

कुछ-कुछ अँधेरा होने लगा था... दरवाजे पर रोशनी के लिए एक लालटेन और एक ढिबरी जलाकर मैकू ने रख दिया था। तखत पर बैठे भरोसे काका गाँजा रगड़ रहे थे, बचोले बगल में बैठे बीड़ी से उसकी तमाखू निकाल रहे थे गाँजा में गबड़ने के लिए।

सामने खटिया पर बैठे सत्ती बाबा उसी खटिया से एक रस्सी निकाल कर उसकी बिड़री बनाने में लगे थे जो गाँजा पीने के काम आती है। दातादीन अलाव के पास बैठकर चिलम साफ कर रहा था। परसादी जो सत्ती बाबा का सबसे छोटा लड़का था... उसको भी गाँजा पीने की लत बचपन में ही लग गई थी... पर सबके सामने ऐसा करने से वो बचता था, दातादीन और परसादी दोनों लँगोटिया यार थे। दोनों में आँखों से ही इशारा हो गया कि चुप्पे-से एक फूँक बाद में सबकी नज़र बचाकर...दोनों ख़ुश हो गए।

मुखिया छैलबिहारी जी और चंदूबाबू दोनों एक खटिया पर बैठकर कुछ गहन मंत्रणा कर रहे थे, पता  नहीं मंत्रणा थी या कुमंत्रणा। धीमी आवाज़ में की जाने वाली बातें दो प्रकार की होती हैं... एक अपने फ़ायदे के लिए... दूसरी किसी को हानि पहुँचाने के लिए।

दुक्खी खैनी रगड़ने में भिड़े थे, दर्शन बड़ी देर से इंतज़ार कर रहा था और मन ही मन कह रहा था कि खैनी है कि बीरबल की खिचड़ी... अभी तक बन ही  नहीं गयी... इतनी देर में तो आदमी पता  नहीं कितने काम निपटा ले। रामदयाल अलाव के पास बैठे ताप रहे थे... साथ ही सुपाड़ी भी कतर कर खा रहे थे। 

घर में पंडित जी कथा समाप्त करने के बाद हवन कराने लगे, हवन में दादा दादी बहुएँ और लड़के सभी साथ बैठकर आहुतियाँ डाल रहे थे। अंतिम आहुति से पहले सभी लोग एक साथ खड़े हो गए... दादा ने नारियल पकड़ा दादी ने पान का पत्ता और बहुओं तथा बेटों ने बची हुई हवन सामग्री लेकर पंडित जी के स्वाहा बोलने के साथ ही अंतिम आहुति अग्नि में डाल दी, सभी ने पंडित जी के साथ जयकारा लगाया, कथा सम्पन्न हो गयी। हरिया ने आरती का थाल लेकर पहले घर में सबको आरती दिखाई और बाद में दरवाज़े आ गया। प्रसाद बाँटने की तैयारी पहले ही दुरुस्त थी... पुजारी इस काम में सबसे ज़्यादा माहिर थे। बच्चों ने उनके इस काम की कुशलता के कारण उनका एक नया नाम चुटकिहा दादा रख दिया था। आरती की थाल से आज हरिया को अच्छी-ख़ासी रक़म (लगभग सवा पाँच रुपये) मिल गयी थी, बाक़ी कुछ पंडित जी से और परसन्नी दादा से भी मिल गई, हरिया बहुत ख़ुश था। लोग धीरे-धीरे प्रसाद लेकर खिसकने लगे ...बच्चे अभी तक पुजारी के आगे-पीछे लगे थे कि प्रसाद एक बार और मिल जाय। पुजारी खीझकर बीच-बीच में उनको डाँट भी देते थे।

कथा सुनकर परसन्नी दादा बहुत ख़ुश थे... दरवाज़े पर अब सिर्फ़ पंडित परमानंद जी, हरिया व मैकू ही शेष रह गए थे। परसन्नी दादा ने पंडित जी को दक्षिणा देकर विदा किया। मैकू और हरिया भी खाना और प्रसाद लेकर अपने-अपने घर गए। घर के सब लोग आज बहुत थक गए थे... अतः सब अपने-अपने बिस्तर पर गहरी नींद में खर्राटे मारने लगे।

सुबह हुई तो परसन्नी दादा दरवाज़े की दशा देखकर दंग रह गए...! एक खटिया टूटी पड़ी थी... कुएँ की जगत पर रखी पानी भरने वाली उबहना ग़ायब थी...! तखत पर गाँजे की चिलम और कुछ अधजली तमाखू ओस में गीली हुई पड़ी थी...। खटिया के नीचे बीड़ी के काग़ज, बुझी हुई माचिस की कुछ तीलियाँ पड़ी थी। पूरे दरवाज़े पर कागज़ के पन्ने बिखरे पड़े थे।  पिछवाड़े से आकर ख़बरी दादी ने बताया कि चार भीरी अर्रही के झाँखर, तीन लौकी, पाँच बम्हनी कुम्हड़ा और आधी लड़िहा पैरा भी ग़ायब है। अलाव की आग ठण्डी हो चुकी थी...। पास ही पान की पीक पड़ी उसको मुँह चिढ़ा रही थी। दरवाज़े का ये दृश्य बहुत कुछ कह रहा था... परसन्नी दादा की स्मृति-पटल से कथा के पात्र और धर्मानुराग दोनों एक साथ ग़ायब थे...। अभी तक सत्यनारायण जी का नाम कहीँ पर नहीं आया था!

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

......गिलहरी
|

सारे बच्चों से आगे न दौड़ो तो आँखों के सामने…

...और सत्संग चलता रहा
|

"संत सतगुरु इस धरती पर भगवान हैं। वे…

 जिज्ञासा
|

सुबह-सुबह अख़बार खोलते ही निधन वाले कालम…

 बेशर्म
|

थियेटर से बाहर निकलते ही, पूर्णिमा की नज़र…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

पुस्तक समीक्षा

कविता

लघुकथा

कहानी

कविता-मुक्तक

हास्य-व्यंग्य कविता

गीत-नवगीत

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं