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कौवे की लकड़ी

कहावतों का अपना एक ठोस आकार-प्रकार होता है और वे सच्चाई के बहुत ही क़रीब होती हैं। ऐसी ही एक कहावत है "पक्षियों में कौवा और आदमियों में नौव्वा"।

इस कहावत का आधा अंश फ़िलहाल हमारे काम का है जिस पर हमें विस्तार से चर्चा करनी है और इसका दूसरा अंश जिस पर और कभी चर्चा की जा सकती है। वैसे दूसरा अंश पहले अंश से इस तरह जुड़ा हुआ है कि उसे उससे अलग कर पाना थोड़ा कठिन कार्य सा प्रतीत हो रहा है। दूसरे अंश पर अपनी बातचीत दो-चार पंक्तियों में ही कहकर समाप्त की जा सकती है। मान लें सौ आदमी हैं, आदमियों में नौंवा याने कि एक या फिर नौ आदमियों को हमें अलग करना पड़ेगा। बचे 91-91 में एक आदमी ऐसा होता है जो दस पर अपना प्रभुत्व क़ायम रखकर शासन का तंत्र चलाता है। इसी एक आदमी का हम अपनी कहानी में लेकर पहले वाक्यांश से जोड़ने का प्रयास करेंगे। तब जाकर पूरी कहावत का अर्थ हम अच्छी तरह पकड़ पाएँगे।

कौवे का अपना चरित्र होता है जिसका वर्गीकरण हम बड़ी आसानी से कर सकते हैं। इसमें उसकी बुद्धिमता, दूरदर्शिता, धूर्तता, चालाकी, लम्पटता, कर्कशता एवं साथ ही सेवा-भाव आदि का समावेश कर सकते हैं। आश्चर्य होता है कि इतने सारे दोष-गुण और वे भी एक साथ कौवे को छोड़कर किसी और पक्षी में नहीं पाए जा सकते। अतएव पक्षियों में सिरमौर बने रहने का सौभाग्य यदि किसी को प्राप्त होता है तो वह एकमात्र पक्षी "कौवा" ही है। यदि घड़े में पानी कम है तो वह कंकड़ डालकर पानी पीकर उड़ जाएगा। यदि भूखा है तो निडर होकर रोटी लेकर भाग जाएगा। यदि किसी पेड़ पर उसका घोंसला है तो क्या मजाल आप पेड़ पर चढ़ जाएँ? काँव-काँव की कर्कश आवाज़ निकालकर वह अपनी टोली इकट्ठी कर लेगा और आप पर आक्रमण कर बैठेगा। यदि धोखे से वह सिर पर बैठ जाए तो समझ लो कि आप पर पहाड़ टूट पड़ेगा। मौत को नज़दीक जानकर आपको ठंडा पसीना आने लगेगा। यदि आपको अपने पुरखों से मिलना हो तो भी आपको इसी से संपर्क बनाए रखना होता है। कीड़े-मकौड़ों को बड़े चाव से चट कर जाता है। इस तरह वह प्रकृति में संतुलन बनाए रखने में भी अपना योगदान देता है। कहीं वह काकभुषुण्डि बनकर कन्हैया के हाथ से रोटी छीनकर खाने का सौभाग्य भी प्राप्त कर लेता है। तो कहीं वह रात के अँधेरे का फ़ायदा उठाकर अपने अण्डों को कोयल के घोंसले में छोड़ आता है। और बदले में उसके अंडे चुराकर अपनी भूख मिटा लेता है। अण्डे सेंतने का काम कोयल करती है और बच्चे पैदा होते हैं कौवे के। इस तरह वह बड़े शान से जीता है।

ऐसी भी एक मान्यता है कि जिस पेड़ पर कौवे का घोंसला हो उसे कृष्ण-पक्ष में काटकर, इसी पक्ष में उसकी कुर्सी बना दी जाए तो उस पर बैठने वाले व्यक्ति के अन्दर कौवे के सारे गुणधर्म प्रकट होने लगते हैं। जैसा कि हमने आदमियों की संख्या में से एक आदमी को अलग छाँट लिया था। वह आदमी जो नेतृत्व दे रहा होता है, में उसके गुणधर्म हम स्पष्ट रूप से देख सकते हैं।

एक ऐसा ही पेड़ जिस पर कौवे का घोंसला था, कृष्ण-पक्ष में काटा गया और संयोग से उसकी कुर्सी बनी वह भी कृष्ण-पक्ष में। उस कुर्सी पर एक आदमी बैठा और बैठते ही उसके आदमीयत के गुण लोप होते चले गए और कौवे के गुणधर्म उभर कर सामने आने लगे। और अब यह विशिष्ट व्यक्ति जनप्रिय "नेता" कहलाने लगा।

अब नेता के चरित्र को लीजिए। यदि उसकी कुर्सी पर कोई और आकर बैठ जाता है तो पहले वाला नेता दूसरे पर सांप्रदायिक, देशद्रोही, चरित्रहीन होने का लाँछन लगाने लगता है, और अपना एक ग्रुप बनाकर दूसरे वाले को कुर्सी छोड़ने पर विवश कर देता है, या फिर उसकी पार्टी के कुछ लोगों को साम, दाम, दण्ड और भेद की नीति से अपनी ओर मिला लेते हैं। पहले वाले की सरकार शक्ति-परीक्षण में अल्पमत में आ जाती है और उसे मजबूरन सीट खाली करनी पड़ती है। ऐसे व्यक्ति को हर समय आशंका बनी रहती है और वह फूँक-फूँक कर अपने पैर बढ़ाता और जहाँ भी अवसर मिलता है, वह दूसरे पर तरह-तरह के हथकंडे अपनाकर लाँछन लगाते रहता है। कभी वह कड़ा रुख पाकर पैंतरा बदल लेता है। इस तरह एक आम आदमी बुद्धिमान होने का खिताब पा लेता है। वह ऊपर से सेवाभाव की चादर ओढ़कर अपनी दक्षता का प्रमाण भी देता रहता है। यदि कहीं बाढ़ आती है तो वह अपनी आँखों से आँसुओं की बाढ़ बहाने लगता है। सूखा पड़ता है तो वह भी सूख सा जाता है और जब भी बोलता है तो बड़ी चालाकी से देश प्रेम बखानता अपने प्रतिद्वंद्वियों को ललकारता, जनता के दिल और दिमाग़ में छा जाना चाता है। जनता उस पर सहज ही विश्वास करने लग जाती है। एक बार उसने जनता का विश्वास प्राप्त कर लिया तो फ़िर वह बड़ी-बड़ी योजनाओं की घोषणाएँ करता है, उन्हें साकार रूप देने के लिए वह विदेशों के दौरे लगाता है, एक्सपर्ट बुलाता है और इस तरह काग़ज़ी घोड़े दौड़ा-दौड़ा कर वह करोड़ों की रकम उदरस्थ कर जाता है।

यदि हम कौवे में और नेता में तुलनात्मक अध्ययन करें तो हम पाते हैं कि दोनों के गुणधर्म में एक सी समानता है। फ़र्क एक मामूली सा है कि कौवा शरीर से काला होता है और नेता गोरा जबकि वह दिल से, अन्दर से काला होता है।

इतना बड़ा आरोप लगाने की हम में न तो हिम्मत है और न ही सामर्थ्य। हम इतना ज़रूर कह सकते हैं कि यह दोष हमारा नहीं बल्कि उस व्यक्ति का दोष है जिसने यह कहावत बनाई। उसकी यह मान्यता है कि जिस पेड़ पर कौवे का घोंसला हो, उसे कृष्ण-पक्ष में काटा जाए और फिर इसी पक्ष में कुर्सी बनाई जाए तो उस पर बैठने वाले व्यक्ति के सदगुण अपने-आप बदलने लग जाते हैं और उसमें अपने-आप कौवे के गुणधर्म प्रकट होने लग जाते हैं।

सा कि हमने कहानी में पढ़ा था कि कभी एक राजा हुए थे, जिसका नाम विक्रमादित्य था, उनका अपना एक जादुई सिंहासन था जिस पर बैठकर वह राज्य चलाते थे और अनोखे निर्णय दिया करते थे। कालान्तर में वह सिंहासन धरती के गर्भ में कहाँ समा गया, कोई नहीं जानता। इसे खोज निकालने के लिए किसी ने प्रयास न किया हो, ऐसा संभव नहीं है बावजूद इसके काफ़ी खोजबीन के बाद भी वह सिंहासन आज तक नहीं मिल पाया है। आदमी की शुरू से ही खोजी प्रवृत्ति रही है। सिंहासन न मिल पाने का ग़म उसने नहीं पाला और न ही सिंहासन पर बैठने की उसकी उम्मीद कभी टूटी।

वह खोज करता रहा, करता रहा। दुर्भाग्य कहें या सौभाग्य उसे मालूम नहीं था कि वह कौवे की लकड़ी की कुर्सी बना रहा है। जब कुर्सी बन गई तो वह उस पर बैठकर राज्य चलाने लगा। शासन करने लगा। कुर्सी पर बैठते ही उसके गुणधर्म कब बदल गए, उसे पता ही नहीं चल पाया।

उस कुर्सी विशेष का आज इतना मोह बढ़ चुका है कि कोई भी रम्भा या मेनका चाहकर भी उसका मोहभंग नहीं कर सकती। यदि स्वर्ग से इन्द्र इन्द्रासन लेकर आए और उससे कहे कि वह अपनी कुर्सी से इसे बदल ले, तो वह स्पष्ट रूप से उन्हें मना कर देगा।

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