कवच
काव्य साहित्य | कविता सुषम बेदी16 Nov 2007
टूटने का कोई नाम नहीं होता
शक्ल नहीं होती
आँसू नहीं होते
आहें नहीं होतीं।
होता है बस सपाट चेहरा
जिसे शक्ल पर
प्लास्टिक सर्जरी की तरह
मढ़ लिया जाता है।
भीतर दबा पुराना चेहरा
धीरे-धीरे अपनी हस्ती खो देता है।
हर नये टूटने की शक्ल
अलग होने लगती है
नये घाव सिर्फ़
प्लास्टिक के खोल से टकराते हैं
भीतर नहीं पहुँचते
न बाहर।
इसी तरह से बनाये जाते हैं
कवच।
इसी तरह से
लोकप्रिय होती है
प्लास्टिक सर्जरी
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