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कविता पाठ के बाद

शब्दों के अथाह जल में 
मछली की तरह तैरती हूँ,
कभी किसी हीरे की चमक जैसे शब्द से प्रभावित, 
आ जाती हूँ उसकी पकड़ में।
वह शब्द जी उठता है दिल में,
अपनी पूरी अर्थ संवेदना के साथ
और आंँखों से करुणा के रूप में बह निकलता है।


मैं,
कविता नहीं जानती
रूप और बिंब विधान भी नहीं,
मैं केवल देख रही होती हूँ
कवि की उस शुद्ध आत्मा को,
जो अपने सारे आवरण उतार,
संवेदना के अतल में डूबी हुई होती है।


मैं,
शायद शब्द भी नहीं जानती,
उसके ऊपरी मुलम्मे को बहुत पीछे छोड़,
निकल जाती हूँ उसकी अर्थ की घाटियों में
भावनाओं का हाथ पकड़े,
अनेक परतों में छिपे
उस गहरे और बहुत गहरे अर्थ की चमक को
अपनी आँखों में समेटने की,
मन में बसाने की
गहरी आकुलता के साथ,
बढ़ती हूँ उन चुने हुए शब्दों की तरफ़
और पकड़ में आ जाती हूँ।


मन,
कविता की पंक्तियों,
पंक्तियों के बीच की खाली जगहों में
मचलता है,
उनसे बँध बँध कर भी छूटना चाहता है।

 

यह कैसा आकर्षण है,
मन मछली सा
अर्थों के इस जाल में
फँस-फँसकर,
संवेदना की हीरक ज्योति तक
पहुँचने के लिए,
आकुल है,
स्वयं,
अनेकों बार 
मर जाने को तैयार है॥

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