खाटप्रिया
काव्य साहित्य | कविता दिव्या माथुर28 Nov 2007
उलझ के इसकी गाँठों में
सुलझाया खुद को कई बार
सहलाया इसने कई बार
बहलाया मुझको कई बार
खदेड़ भगाती थी नैराश्य
दुर्दशा सहेज वह लेती थी
कितने करीब हम दोनों थे
जब सारी दुनिया बैरी थी
ज़रा सी बारिश होने पर
खुशबू से वह भर जाती थी
गर्व में तनके कभी कभी
कंधे उचका अड़ जाती थी
भइया को सिरहाने बिठा
पैताने को मैं दबाती थी
दी ज़रा सी कोई ढील कहीं
ये तुनक खड़ी हो जाती थी
अदवायन इसकी कसते
मैं स्वयं स्फूर्ति पाती थी
जकड़ के मेरे पैरों को
ये रस्ते पर ले आती थी
बड़े बड़े बचकाने आँसू
पिये बहुत मेरे इसने
ऊधम और शैतानी भी
चुपचाप सही झेली उसने
तन क्या मेरी आत्मा को भी
छीला कुरेदा था उसने
कुछ भी तो छिपा न पाती थी
मानो मैं थी इसके वश में
गद्देदार पलंग पर अब
लन्दन में भी मैं अकुलाई
क्यों भूले नहीं भूला पाई
मैं अपनी प्रिय चारपाई।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
पुस्तक चर्चा
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं