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खरे मानवीय अनुभवों की कविताएँ

समीक्षित पुस्तक: शहर और शिकायतें
लेखक: प्रकृति करगेती
प्रकाशक: राधाकृष्ण प्रकाशन
प्रकाशित वर्ष: 2017
पृष्ठ: 112
मूल्य: 250 रु.
आईएसबीएन: 9788183618298


‘शहर और शिकायतें’ युवा लेखिका प्रकृति करगेती का पहला काव्य-संकलन है। कविताओं को पढ़ते हुए लगातार महसूस होता है कि कवयित्रियों की एक नयी पौध साँस लेने लगी है। एक ताज़ी टटकी पीढ़ी, जो सामाजिक अंतर्विरोधों के ताने-बाने को परे छटकाती अपनी शर्तों पर जीने को तैयार है, रिश्तों की ग्रंथियों से मुक्त, स्वावलंबी, आत्मविश्वास से लबालब भरी युवा पीढ़ी, जो स्त्री कविता को विमर्श के दायरे से बाहर खींच लाई है। जहाँ कवयित्री होना विशेषण नहीं संज्ञा है। जहाँ कविता सिर्फ़ कविता है– मानवीय अनुभवों की खरी बतकही। प्रकृति की कविताएँ युवा मन की कविताएँ हैं, शहर की भागम-भाग भरी ज़िंदगी के साथ तालमेल बिठाती, अवसर तलाशती, शहर-दर-शहर ठिकाने बदलती, अपने परिवेश के दुःख-दर्द को संजीदगी के साथ महसूस करती युवा मन की कविताएँ– जिनकी संवेदना को स्त्री कविता का “टैग” हटाकर भी पढ़ा जा सकता है। ऐसा नहीं है कि स्त्री और उसकी सामाजिक स्थिति पर प्रकृति मौन है या स्त्री जीवन की विडम्बनाओं पर उनकी नज़र नहीं जाती, पर उनकी कविता सिर्फ़ उस दायरे में अपनी पहचान नहीं ढूँढ़ती, वह एक बृहत्तर मानवीय परिधि में अपनी पहचान बनाती है। 

शहर उनकी संवेदना के केंद्र में है और शहर से शिकायतें होना लाज़मी है। रोज़मर्रा की शहरी ज़िंदगी के अनेक परिचित और कई अनछुए पहलू कविताओं में हैं। अपने आस-पास घटते जिन दृश्यों को अक़्सर हम उदासीन भाव से देखते हैं, नज़र अंदाज़ कर देते हैं उन्हें कुछ अलग नज़रिये से देखने का कौशल प्रकृति के पास है। “शहर अच्छा है/ भागता दौड़ता है/ टिमटिमाता है...” चकाचौंध करती चमकती रोशनियों का शहर सपने में आकर पुकारता है। “और एक रात/ मैं ही निकल गया/ इस सपने की तलाश में/ चकाचौंध रोशनी, भागम-भाग/ ये सब कैद करने..” पर विडम्बना यह कि शहर के मायाजाल में फँसकर व्यक्ति ख़ुद भी “शहर सा” हो जाता है। फिर “कोई सपना नहीं आता, शहर ही जगाता है, शहर ही उठाता है।” यह शहर किसी का घर नहीं है। “बस एक मौका और ढेर सारी संभावनाएँ” तलाशता व्यक्ति एक शहर से दूसरे शहर में ठिकाना बदलता रहता है। “बहुत कुछ पीछे छोड़कर/ एक शहर छोड़ आए/ बहुत तामझाम कर/ एक नए शहर आए।” शहर व्यक्ति को बसाता नहीं, विस्थापित करता है, “ हम सब ‘यहाँ’ नहीं रहते हैं/ ‘वहाँ’ रहने के इंतज़ार में हम/ ‘यहाँ’ रहने की एक/ ‘पार्ट-टाइम’ नौकरी करते हैं।”

प्रकृति करगेती की प्रकृति स्वप्नदर्शी है। शहर के आसमान पर जमी परत खुरचकर ‘एक चाँद और कुछ सितारे’ टपका लेने की आकांक्षा रखती है, “एक दरवाज़ा,/ ढूँढ रहे हैं/ जिसके पार मखमली बिस्तर हो/ ख़्वाबों का।” लेकिन वास्तविकताओं की खुरदरी धरती का अहसास बना रहता है। स्वप्न ठोस ज़मीन पर खड़े हैं क्योंकि– “आखिर, इस दुनिया का/ सामना करना है अब उसको”। यह दुनिया उस शहर में बसती है जहाँ की यांत्रिकता मनुष्य को वस्तुओं में तब्दील कर देती है, गाड़ियों को पकड़ने भागते, उसमें ख़ुद को ठूँसते, औरों को पीसते लोग मांस भरे मसनदों में बदल जाते हैं “जब मिलता है मौक़ा/ बैठने का/ टूट पड़ते हैं/ तशरीफ़ टिकाने/ और जब चूकता है मौक़ा/ हारकर,/ लटक जाते हैं हैंडलों के सहारे..” इस शहराती जीवन-पद्धति ने व्यक्ति का वजूद लील लिया है। वह हाड़-मांस का पुतला भर रह जाता है जो रोज़ सुबह परछाइयाँ उधार लेकर ख़ुद को घसीटता चलने को विवश है, “रोशनी के हर इक क़तरे से माँगा/ ये वजूद/ अँधेरों में कहीं उड़ जाता है जब/ हाड़-मांस अपने आप ही/ लुढ़क जाता है/ बिस्तर पर/ उसे अगली सुबह के उधार का इंतज़ार है।”

प्रकृति करगेती की शहराती संवेदना का एक तंतु प्रकृति से भी जुड़ा हुआ है। लेकिन प्रकृति से भावुक जुड़ाव का आग्रह नहीं है। शहर की अपनी सीमाओं में प्रकृति जैसी महसूस की जा सकती है, उसी का बोध किंचित व्यंग्यात्मकता और हल्की सी टीस के साथ ये कविताएँ कराती हैं। यहाँ बारिश भिगो कर सराबोर नहीं करती बल्कि “बारिश संग अपने लाती है/ ऊँची इमारतों पर/ लटकती बूँदें” जो अंतत: दीवार पर “धूल की लकीरों/ दीवारों के उखड़ते रंग/ और हल्की सी हरी काई” के रूप में दर्ज हो जाती हैं। “शहरों में/ बस खिड़कियों से ही/ अच्छी लगती है बारिश/ बाहर निकल कर कौन भीगना चाहता है?” बहुमंज़िला इमारतों में टँगे बाशिंदे बारिश को बालकनी में रखे पौधों से बूँद-बूँद टपकते और ग्रिल पर मोती से लटकते रूप में ही अनुभव करना चाहते हैं। क्योंकि “फ़र्श की कालीन ने गर/ बूँदें सोख ली/ तो इन कालीनों को कहाँ सुखायेंगे...?” प्रकृति से शहर का ये औपचारिक संबंध है, थोड़ा शिकायत भरा। बादल बारिश का वादा तोड़ देते हैं। “जैसे कह रहे हों.../ “जितना बचा है/ उतना दे रहे हैं/ हवाओं ने/ हमसे किया वादा भी नहीं निभाया/ हम भी तो बिखर गए देखो...।” यहाँ समंदर भी सौदागर है जो टूटी-फूटी सीपियों और दम तोड़ चुकी मछलियों के बदले “समेट ले जाता है/ रेत पर लिखे कई नाम/ कुछ मेरे अरमानों के रेत के टीले/ और मेरे पैरों तले की ज़मीन” शहर के नीरस उबाऊ लदे हुए दिनों से मुक्ति पाने का एक ज़रिया प्रकृति को महसूस करना भी है, पर वह शहर से लगभग नदारद है, तो एक व्यक्तिगत टोटका है प्रकृति करगेती के पास, जंगल से उठाई हुई देवदार की लकड़ी जिसे “फिर से भिगोकर सूँघ लेते हैं/ वो फिर से हैरान करता है/ वो फिर से रस भरता है/ क्यूँकि/ उसमें अब भी/ सारा जंगल महकता है।” कहीं- कहीं प्रकृति के क्रियाव्यापारों द्वारा जीवन स्थितियों की व्यंजना का प्रयास भी है। ‘नदी’ कविता में नदी उस युवा होती लड़की का प्रतीक बन जाती है जो अपने एकांत, निजता, स्वछंदता को ‘सेलिब्रेट’ करने की आकांक्षा रखती है। नदी समंदर में मिलने को बेताब नहीं है, उस ‘खारी मौत’ में बिलम्ब के लिए घूम-घूम कर रास्ते बना रही है क्योंकि “विशाल राक्षस  मुझे निगल जाए/ इससे पहले/ बहुत सारी अटखेलियाँ/ बहुत सारी अँगड़ाइयाँ बाकी हैं।”

स्त्री उनकी कविता में एक सजग सामाजिक की दृष्टि से चित्रित है, यूँ संग्रह की चौंसठ में से कुल छः कविताओं में स्त्री केंद्र में है। इन में कहीं वे सीधे सपाट शब्दों में स्त्री की सामाजिक स्थिति पर प्रश्न उठाती हैं– “पर मैं इंसान क्यों नहीं?/ रीढ़ है/ पर सीधी नहीं/ ज़बान है पर खुलती नहीं”। समाज द्वारा दी गयी चिल्लर-सी आज़ादी से ऊब गयी स्त्री तय कर लेती है कि “ख़ुद के लिए जेबें सिएगी/ वो जेबें जो कभी/ उसके कपड़ों पर बनी ही नहीं।” पर सिर्फ़ वर्चस्व के लिए नहीं, वह दो जेबें सिलना चाहती है, एक तरफ़ ‘अपने हक भरकर रखेगी’ दूसरी तरफ ‘तुम्हारे हक महफूज़’ रखने के लिए।’ यहाँ स्त्री बराबरी का अधिकार जताते हुए संतुलन की आकांक्षा रखती है पर प्रश्न बना रहता है कि “क्या तुम तैयार हो/ अपनी जेबें फिर से टटोलने के लिए/ जो उसका है उसे वापस देने के लिए...” 

‘तुम्हारी इज़्ज़त नहीं मैं’, ’मावा’, ‘नंगी’ कविताओं में प्रकृति आक्रामक अंदाज़ में हवस का शिकार बनती स्त्रियों के साथ घटती अपमानजनक घटनाओं पर आक्रोश व्यक्त करती है। हर लड़की, जिसे आज़ादी का मावा, “इज़्ज़त-आबरू की पन्नी में” लपेट कर दिया गया है, उसके सामने दोहरी चुनौती है, हवस का शिकार होने से बचना है, दूसरी ओर परिवार की इज़्ज़त और माँ की चिंता से आज़ादी को बचाए रखने का संघर्ष भी, “अपने मावे को/ सहेजकर चलती हूँ/ कि इसे हवस अगर/ न भी खा सकी/ तो मेरी माँ की चिंता /ज़रूर खा जाएगी” शहर भर में कहीं भी लड़की उस निगाह से बच नहीं पाती जो, “बिन पास आए/ नंगा करके जाता है/ वो बिन छुए/ मुझे कहाँ-कहाँ छू जाता है/ उसका हल्का धक्का भी/ मेरी इज़्ज़त लूट ले जाता है।” ये कहना उन्हें ज़रूरी लगने लगता है कि – “इस बार/ और आख़िरी बार/ कह देती हूँ/ तुम्हारे घर की इज़्ज़त नहीं मैं/ आबरू नहीं/ इस बेड़ी को फेंक/ इस दुपट्टे पर/ आज मैं थूकती हूँ/ और ये चीखती हूँ/ कि/ तुम्हारी इज्ज़त नहीं मैं!” 

प्रेम उनकी कविता से लगभग नदारद है। सिर्फ़ एक कविता ‘नींद तैरती रही’ में उसकी झलक व्यंजित है। ‘पर किनारे /तुम बैठे थे/ अपनी यादों के कंकड़/ फेंकते रहे तालाबों में,/ छप-छप आवाज़ होती/ पानी में लहर उठती।” ‘पर झूठ से बेहतर’ कविता में लड़की इश्क़ की गहराई में गोते लगाना नहीं चाहती, “इसलिए भाग रही है/ अपना आसमान ढूँढ़ने।” यह उस नयी लड़की का आत्म-सत्य है जो निजता को प्रेम से बड़ा मूल्य मानती है। पारिवारिक रिश्तों के भी समीकरण यहाँ दिखाई नहीं देते, सिर्फ़ माँ की याद का उल्लेख एक दो कविताओं में है। “सर्दी की धूप में/ गोदी मिल जाती तो क्या बात थी/ छुपा लेते ख़ुद को उसमें/ एक हाथ सहला रहा होता बालों को...” ‘बुत के अन्दर’, ‘चोटी’, ‘कौन से करवट’, ‘परत-दर-परत’, ‘मेरी अय्याश मिज़ाज सोच’, ‘अखरोट’, ‘शब्द सा बना दो’ जैसी कुछ कविताओं में प्रकृति अपने अंतर्मन की गुत्थियों को खोलती, अपनी पहचान टटोलती प्रतीत होतीं हैं। वह शब्द सा हो जाना चाहती हैं– निडर, आज़ाद, किसी भी बंधन से मुक्त– “उन्हें परवाह नहीं/ कि वो कितने आँके जायेंगे/ उन्हें परवाह नहीं/ किसी और जैसा बनाने की” व्यक्तिगत आकांक्षाओं को व्यक्त करती इन कविताओं से उनके मानसिक भूगोल की झलक मिलती हैं पर प्रकृति का भावलोक अंतर्मन से ज्यादा बाहरी परिवेश पर टिका है। वे अपने अनुभव को व्यक्तिगत संवेदना के रूप में प्रस्तुत नहीं करती, उसे मानवीय अनुभव में बदल कर कविता रचती हैं। बहुत संयमित, सधी क़लम से स्थितियों का ख़ाका खींचती हैं। शहर की जद्दोजहद भरी भीड़ का हिस्सा होते हुए भी वे एक दूरी बनाकर दृश्यों पर फ़ोकस कर पाती हैं। उनकी कविताओं में न अतिशय भावुकता है न रोमानी उन्माद। एक फोटोग्राफर की तरह अलग-अलग कोणों से शहर और समाज को शब्दों के फ्रेम में क़ैद करती कविता है यह।

शहर, प्रकृति, स्त्री और कुछ ख़्वाबों-ख़यालों से सम्बद्ध विषयों के अतिरिक्त समसामयिक राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक समस्याओं पर भी व्यंग्य या तल्ख़ टिप्पणियाँ करती कुछ कविताएँ प्रकृति की अभिव्यक्ति के फलक को विस्तार देती हैं। ‘डिस्क्लेमर’, ‘मलाला’, ‘दीवाली’, ‘इयर-बड्स’, ‘ग़ालिब उठता है कब्र से अपनी’, ‘तारीख़’ शीर्षक कविताएँ विषय विविधता के कारण ध्यानाकर्षित करती हैं। प्रकृति कहीं सांकेतिक रूप से और कहीं सरसरी तौर पर विषयों को छू कर रह जाती हैं। बारीक़ चिंतन, गहन विश्लेषण इन कविताओं में नहीं है। “इयर-बड्स से कान का मैल निकला/ तो उस पीले के पीछे, सफ़ेद रुई को देख/ ख्याल आया,/ एक कूबड़ हुई कमर का/ एक सूखी चमड़ी का/ मांस पर उभरी/ पसलियों का” पर यह ख्याल किसी गहन चिंतन-विश्लेषण या मार्मिक संवेदना की ओर नहीं ले जाता, अनुत्तरित छूट जाता है। “सोचा थोड़ी देर/ फिर इयर-बड्स फेंक दिए/ कूड़ेदान में/ अब मैं क्या करूँ?/ मेरे घर की खेती भी तो बंजर पड़ी है।” सामाजिक विसंगतियों पर प्रकृति की यह कोफ़्त कहीं-कहीं तीखे व्यंग्य और आक्रोश में भी परिवर्तित होती है। ‘तुम्हारी इज़्ज़त नहीं मैं’, ‘कुछ नया दिखा सकते हो’, ‘पेशाब की थैली’, कविताएँ बहुत तल्ख़ शब्दों में सवाल पूछती हैं या असहमती का स्वर उठाती हैं।  

प्रकृति की कविताओं की एक अन्य विशेषता है उनकी विनोदप्रियता।  गहन संवेदना से युक्त होने पर भी वे बोझिल नहीं हैं। एक ख़ुशनुमा माहौल रचता विनोद कविताओं को नया आयाम देता है। ‘झड़प’, ‘अठन्नी’, ‘ला सको तो लेती आना’, ‘अब हम बच्चे तो नहीं’ शीर्षक कविताएँ पाठक को गुदगुदाती हैं। वस्तुत: प्रकृति की कविता उन्हीं के शब्दों में, “एक ही करवट की नीरसता का आभास” नहीं कराती। उसमें विषय विविधता है और कथन की अलग-अलग भंगिमाएँ भी । अपने आसपास घटने वाली छोटी-छोटी हरकतों को पकड़ पाने, उसे नए अर्थ से भर देने की कला उनकी लेखनी की संभावनाशीलता के प्रति आश्वस्त करती है। इस कला को सिद्ध करने में उनकी कल्पना महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। रूपकों की भाषा में कविता बुनने का उनका अपना अनूठा अंदाज़ है, जो प्रभावित करता है। किसी भी स्थिति, भाव, विचार, घटना को किसी सादृश्य का जामा पहना कर वे उसे मनचाहा रूप दे देती हैं और  किसी सधे निर्देशक की तरह उन्हें किसी भी भूमिका में अवतरित कर सकती हैं। जलते कोयले और आसमान के तारों की तकरार , मौसम पर बात करते लोगों की नोंक-झोंक, सड़कों पर ट्रैफिक जाम में फँसे लोगों का उन्माद, अठन्नी से गप-शप, रिज्यूमे की कंकाल के रूप में परिकल्पना उनकी रचनात्मक  भाषा का सशक्त उदाहरण प्रस्तुत करती हैं।  “पलट कर देखोगे पन्ने/ तो नज़र आएँगे/ पंजरों की सलाखों को पकड़े/ कुछ कैद ख़याल/ टुकटुकी लगाए, बाहर देखते…।” दृश्य रचने में उन्हें महारत हासिल है। भागता दौड़ता शहर और उसकी भीड़ भरी ज़िंदगी के अनेक दृश्य पूरी नाटकीयता के साथ कविताओं में सजीव हो उठते हैं। “लड़ती हैं/ भिड़ती हैं/ हार्न बन बिलखती हैं/ ‘मादरचोद, दिसत नहीं का?’/ ‘तुझं आईची, माईची’/ ‘पुढे या चेपुन दया?’/ कह/ चीखतीं हैं, चिल्लाती हैं/ मन पर पड़े/ ‘डेंट’ और ‘स्क्रैच’ का/ मातम मनाती हैं...”  ‘सभ्यता के सिक्के’, ‘केंचुली’, ‘रेगमाल’, ‘गर्दन एक कुँए जैसी’, ‘बुत के अन्दर’ शीर्षक कविताओं में उनकी अभिव्यक्ति जिन बिम्बों के माध्यम से संवेदना को भाषा में रूपांतरित करती है, वह उनकी रचनात्मक प्रतिभा का प्रमाण प्रस्तुत करने के लिए पर्याप्त है। कुल मिलाकर प्रकृति करगेती का यह संकलन साहित्य की दहलीज़ पर एक उभरती हुई युवा लेखिका की दस्तक है, आवेगपूर्ण पर सधे हुए स्वर में उपस्थिति दर्ज़ कराती दमदार दस्तक।

रेखा उप्रेती
एसोसिएट प्रोफेसर 
हिंदी विभाग 
इन्द्रप्रस्थ कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय 

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