खेल (भावना सक्सैना)
कथा साहित्य | लघुकथा भावना सक्सैना15 Mar 2020 (अंक: 152, द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)
छोटा सा बंदर बड़ी तन्मयता से पास पड़े रोटी के टुकड़ों को बारी-बारी उठा कर उलट-पलट कर देख रहा था, कोई ठीक लगता तो मुँह में डाल लेता, थोड़ा चुभलाता। पसंद न आता तो मुँह से निकाल कर फेंक देता।
वह बड़ी देर से दूर खड़ा यह खेल देख रहा था। उसे लगा कि रोटियाँ सूखी हैं और वह नन्हा बन्दर उन्हें खा नहीं पा रहा। छोटे से उस बन्दर को भूखा सोच उसका मन द्रवित हो गया।
पास ही रेहड़ी पर फल लिए खड़े फल वाले की ओर मुड़कर वह बोला "भैया ज़रा दो केले दे दो।"
"बस दो ही, बाऊजी बहुत बढ़िया केला है, छह तो लो कम से कम।"
"नहीं भैया मैं कहीं काम से जा रहा हूँ, रखने को जगह नहीं हो पाएगी, ये तो उस बन्दर के बच्चे के लिए ले रहा हूँ। वो बेचारा छोटा बंदर भूखा है... सूखी रोटियाँ खा नहीं पा रहा।"
फल वाला हँस कर बोला, "बाऊजी फिर पहले उधर पड़े छिलके देख लें, आते ही दो केले दिए मैंने उसे, खेल कर रहा है रोटियों से... इसका पेट भरा है। भूख होती तो कैसी भी खा लेता। सारा खेल भरे पेट पर ही सूझता है।"
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