खोल
कथा साहित्य | लघुकथा रमेश ‘आचार्य’1 Jan 2015
मेरा रोज़ उसी रूट से ऑफ़िस आना-जाना होता था। उस रास्ते में दो बड़े अस्पताल आते थे। मुझे ऑफिस पहुँचने के लिए दो बसें पकड़नी होती थीं। दूसरी बस मैं अस्पताल के स्टैंड से लेता था। उस दिन भी मैं ऑफ़िस के लिए बस से जा रहा था। समय काटने के लिए मैं पत्रिका पलटने लगा। तभी एक तीसेक साल के युवक ने अपनी कारुणिक आवाज़ से सभी यात्रियों का ध्यान अपनी ओर खींचा। वह हाथ जोड़कर गिड़़गिड़ा रहा था, "बाबूजी, मुझ गरीब पर दया करो, भगवान आपका भला करेगा। मेरी औरत महीना भर से बहुत बीमार थी, उसे इलाज के लिए दिल्ली लाया था। लेकिन होनी को कौन टाल सकता है, कल रात उस बेचारी ने दम तोड़ दिया। उसकी लाश हस्पताल के बाहर पड़ी है। मेरे दो छोटे-छोटे बच्चे हैं, गाँव जाना तो दूर, मेरे पास अब उसके कफन तक के लिए एक फूटी कौड़ी भी नहीं हैं। अब तो आप लोग ही मेरा सहारा हो, मुझ पर रहम करो, रहम करो, कहते हुए वह ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा।"
बस में कुछ पल के लिए चुप्पी पसर गई और सब उसकी दर्दभरी दास्तान सुनकर द्रवित हो रहे थे या भविष्य में कभी हमारे साथ ऐसा न घटे, शायद इस भय से आशंकित हो रहे थे। उस युवक ने बस में ऐसा समां बाँध दिया कि उसकी दयनीय हालत देखकर सबका दिल पसीजने लगा। उसने जैसे ही मदद के लिए अपने हाथ फैलाए, अनायास ही सभी स्त्री-पुरुषों के हाथ अपनी-अपनी जेबों और पर्सों में चले गए। अब सब उसकी हथेली पर पाँच, दस और बीस के नोट रखते जा रहे थे। वह सबको दुआएँ देता जा रहा था। वह मेरे पास भी आया और अपनी रुलाईभरी आवाज़ में कहा, ‘बाबूजी’। मैंने भी इंसानियत के नाते या समझो, पुण्य-लाभ कमाने के लिए ज्यों ही जेब में हाथ डाला, तो सौ का नोट बाहर आ गया। इससे पहले की मैं कोई निणर्य लेता, उसने झट से हाथ बढ़ाकर नोट अपने पाले में कर लिया और दुआएँ देते हुए आगे बढ़़ गया। उसके पास अब अच्छी-ख़ासी रकम हो गई थी और वह अस्पताल का स्टॉप आने से पहले ही बस से उतर गया।
शाम को जब मैं घर वापसी के वक्त अस्पताल के स्टॉप की ओर जा रहा था तो मेरी नज़र फुटपाथ पर ताश खेलते लड़कों के झुण्ड पर गई। मैंने क्षणिक रुककर उन्हें देखा, तो मैं दंग रह गया। सुबह की बस वाला वही युवक, एक हाथ में सिगरेट और दूसरे में ताश के पत्ते पकड़े झुण्ड में बैठा था। उसने जैसे ही गर्दन उठाई तो मैंने उसके चेहरे की तरफ देखा। उसने मुझे पहचानकर भी नज़रअंदाज़ कर दिया और सिगरेट के कश लगाते हुए खेल में मस्त हो गया। तभी उसने पत्ते को ज़ोर से ज़मीन पर पटका और खुशी से उछला, मानो उसने एक बड़ी बाजी जीत ली हो। उसने उड़ती-सी एक नज़र मुझ पर फेंकी और ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगा। मुझे ऐसा लगा मानो कहानी वाला डाकू खड़क सिहं अपने खोल से बाहर निकलकर मुझ पर अट्टहास कर रहा हो।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
लघुकथा
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
बाल साहित्य कहानी
बाल साहित्य कविता
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं