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खोए हुए रास्तों को दमकाती ’अंजुरी भर चाँदनी’ 


पुस्तक: अंजुरी भर चाँदनी
लेखिका: उषा यादव
प्रकाशन: नमन प्रकाशन
मूल्य: रु. 350/- 
पृष्ठ: 144

अनगिनत समस्याओं को झेलकर भी स्त्री अपने परिवार को बचाये-बनाए रखने में ही अपने जीवन की सार्थकता समझती है। विपरीत परिस्थितियों में भी स्त्री धैर्य और विवेक न खोकर जीवन की समस्याओं का मुक़ाबला करती है और कठिनाइयों को पार करती है। अपने परिवेश और परिवार दोनों के बीच संतुलन साधते हुए स्त्री-जीवन अपने गौरव की रक्षा भी करता है। त्याग और समर्पण की भावना से पूर्ण होकर एक स्त्री अपने समाज को रोशनी देती है और अपने लिए रखती है बस ‘अंजुरी भर चाँदनी’। ’अंजुरी भर चाँदनी’ की अदम्य आभा से दीप्त उसका जीवन अपना मार्ग स्वयं तलाशता है। इस तलाश का आरम्भ होता है पुरुष समाज द्वारा अपनी इच्छाएँ ज़बरदस्ती थोपे जाने से और इसका अंत होता है उसकी छिटकी हुई ‘अंजुरी भर चाँदनी’ को अपने मन-मस्तिष्क में बसा लेने के कारण।

उषा यादव अपने नारी-विमर्श के कारण ख़ूब पढ़ी जाती हैं। उनके उपन्यासों की विशिष्टता रही है परिस्थितियों से जूझती नारी का विजयघोष। उषा यादव का नवीनतम प्रकाशित उपन्यास ‘अंजुरी भर चाँदनी’ ऐसी ही लड़की गीता की कहानी है। अनमेल विवाह और छोटी उम्र में परिवार बसाने के दुष्प्रभावों को यहाँ प्रमुखता से उठाया गया है। एक उज्ज्वल भविष्य के सपने की बुनावट में लगी गीता को एक ऐसी परिस्थिति में पहुँचा दिया जाता है, जहाँ उसका स्वयं का ही अस्तित्व धूमिल होता दिखाई देता है। अठारह वर्षीया गीता का विवाह अपने से लगभग दोगुनी उम्र के पैंतीस वर्षीय नीलकंठ के साथ कर दिया जाता है। इस बेमेल जोड़ी में गीता की इच्छा का कोई सम्मान नहीं रखा जाता। ग्रामीण माता-पिता नीलकंठ के अच्छे आर्थिक स्तर और रुतबे को देखकर ही गद्‌गद्‌ हो जाते हैं। नीलकंठ विश्वविद्यालय में प्रवक्ता है। अपने जीवन का लम्बा समय उसने एक प्रसिद्ध गुरुकुल में बिताया है। धर्माचार्य जी की नीलकंठ पर महती कृपा है। पारिवारिक परिस्थितियाँ कुछ ऐसी बनती हैं कि नीलकंठ को गुरुकुल छोड़कर गृहस्थ जीवन में प्रवेश करना पड़ता है। धर्माचार्य जी की कृपा से ही उसे विश्वविद्यालय में नौकरी भी मिल जाती है। नीलकंठ का बाहरी जीवन भले ही धार्मिक-आर्थिक रूप से पुष्ट दिखाई देता हो, परंतु उसकी मानसिक वृत्तियाँ उसे नरपिशाच की प्रतिष्ठा देती हैं। एक अधम व्यक्ति के सभी ‘गुण’ उसमें हैं, जो उसके अतीत और वर्तमान जीवन के अंतर को भयावहता के साथ दर्शाते हैं। दम्भ, छल-कपट, ईर्ष्या और वासना की अंधी गलियों में भटकता नीलकंठ तीन वर्षों में तीन संतानों का पिता बन जाता है। गीता की किसी भी भावना का उसे कोई ख़्याल नहीं। गृहस्थी का दमकता सूरज यहीं से काले बादलों में ढँपता शुरू होता है। मात्र इक्कीस-बाईस बरस की गीता शारीरिक-मानसिक रूप से इतनी सक्षम नहीं है कि दो पुत्रों और एक पुत्री का लालन-पालन भली-भाँति कर सके। इस कारण वह अपनी बड़ी बहन सीमा को सहायता के लिए गाँव से बुलवा लेती है।

नीलकंठ का विवाह सीमा से ही होना निश्चित हुआ था, परंतु नीलकंठ ने साँवली सीमा को दरकिनार कर गोरे रंग-रूप की गीता से विवाह करने की इच्छा प्रकट की थी। परंतु अब सीमा के आ जाने से उसे गीता एक अनपढ़-गँवार औरत लगती है। सीमा धीरे-धीरे नीलकंठ पर अपना पूरा अधिकार जमा लेती है। नीलकंठ का तन-मन- धन, सभी कुछ अब सीमा का ही तो है। दोनों पुत्र भी सीमा मौसी को ही अपनी माँ समझते हैं। बेटी सारा की देखभाल में दिनभर व्यस्त गीता इन सबसे जैसे अपना मुँह ही मोड़ लेती है। घर में नौकरानी की तरह रहकर ही उसे जैसे सुख के मोतियों की तलाश है। पति और सौतन बनी बड़ी बहन के आगे जैसे वह जीवन का समर्पण ही कर चुकी है। समय करवट लेता है। गुरुकुल के सर्वेसर्वा धर्माचार्य जी नीलकंठ को एम.पी. का चुनाव लड़ने को उकसाते हैं। मन में पद-प्रतिष्ठा-वैभव पाने की दबी हुई चाह की अग्नि में मानो घी पड़ गया है। परिस्थितियाँ अनुकूल न भी हों, तब भी पैसे की ताक़त बहुत कुछ कर सकती है और फिर यहाँ तो धर्माचार्य जी का आशीर्वाद भी साथ है। नीलकंठ एम.पी. चुन लिया जाता है। सत्ता की शक्ति उसे और अधिक कठोर और दम्भी बना देती है। परिवार पर अब उसका कोई ध्यान नहीं रह पाता। पाँच वर्ष बाद फिर चुनाव आते हैं। धर्म और अर्थ पुनः अपनी सिद्धि की सूचना को सार्थक करते हुए नीलकंठ को एक बार फिर एम.पी. का पद दिलवाते हैं। इस बार भाग्य का खेल कुछ ऐसा है कि नीलकंठ को केंद्रीय मंत्री का पद प्राप्त होता है।

नीलकंठ को जल्द से अपने गृह जनपद पहुँचना है जो उसका चुनाव-क्षेत्र भी है। हज़ारों की संख्या में पार्टी कार्यकर्ता और शहर की जनता अपने लोकप्रिय नेताजी की प्रतीक्षा में स्टेशन पर खड़े हैं। अचानक मोबाइल की घंटी बजती है। सीमा के फोन उठाने पर नीलकंठ गीता को फोन देने के लिए कहता है। नीलकंठ गीता को भी स्वागत हेतु स्टेशन पर आने की ताकीद करता है। गीता अनमने और अचम्भित रूप से केवल ‘हूँ ऽ’ कहकर मोबाइल ऑफ़ कर देती है। वास्तव में ‘अंजुरी भर चाँदनी’ उपन्यास का आरम्भ इसी घटना से लेखिका ने दर्शाया है। नीलकंठ के फोन के बाद गीता के मन में सत्रह वर्ष पुरानी सारी यादों की रील घूम जाती है। मात्र अठारह वर्ष की आयु में नीलकंठ से विवाह, बिखरता-टूटता परिवार, सीमा और नीलकंठ का मर्यादाओं का तोड़ना, गीता की माटी की मूरत जैसी बेजान ज़िंदगी – ये सब बातें लेखिका ने एक प्रकार से ‘फ़्लैशबैक’ में दर्शाई है। गीता इसी समय अपनी पाठशाला की सर्वप्रिय अध्यापिका नीरजा दी को भी याद करती है। उनकी कर्तव्यनिष्ठा और समर्पण जैसे गुण पाठशाला के प्रत्येक बच्चे और अभिभावक के लिए पूजनीय से थे। परंतु आज जैसे सब कुछ पाकर भी गीता ने बहुत कुछ खोया है।

गाड़ी स्टेशन पर पहुँचने वाली है, ड्राइवर सूचना लेकर आता है। गीता गुलाबी साड़ी में सजी-धजी है। स्टेशन पहुँचकर नीलकंठ के भव्य स्वागत में आज उसकी पत्नी गीता भी सम्मिलित है। नीलकंठ भी गीता को जनता के सामने उचित मान-सम्मान प्रदान करता है। गीता के लिए यह बात आठवाँ अजूबा है, परंतु अपनी शालीनता और समर्पण को उसने छोड़ा नहीं है। नीलकंठ की गँवार पत्नी आज उसके साथ जनता को सम्बोधित भी करती है। यह बात नीलकंठ के लिए आठवाँ अजूबा है कि केवल बारहवीं पास अस्तित्वविहीन सी गीता में आज इतना आत्मविश्वास और आत्मबल कहाँ से आ गया। घर पहुँचने पर नीलकंठ सीमा को फटकारता है और अपने अचानक आने का कारण बतलाता है। सीमा ने पिछले दिन एक पत्रकार को नीलकंठ के मंत्री बनने पर साक्षात्कार दिया था, जिसमें उसके बेहूदा उत्तरों ने सीमा की मानसिकता को सामने ला दिया था। वह पत्रकार नीलकंठ का पुराना मित्र है, जिसके द्वारा नीलकंठ को संपूर्ण घटनाक्रम का विस्तार से पता चलता है। इसी बात की नाराज़गी में वह सीमा को अब अपना घर छोड़कर जाने के लिए कहता है। यहीं सीमा ख़ुलासा करती है कि गीता ने नीलकंठ को बिना बताए अपनी शिक्षा पूर्ण कर ली है और शीघ्र ही अध्यापिका की नौकरी करने के लिए यह भी घर छोड़ जाएगी। नीलकंठ को अपनी ग़लतियों का अहसास होता है और वह बार-बार गीता से घर नहीं छोड़ने के लिए प्रार्थना करता है। गीता भी आज दोराहे पर खड़ी है। एक ओर अपना पति-परिवार है, तो दूसरी ओर कुछ कर गुज़रने की चाह लिए एक मन। गीता यहाँ अपनी अंतरआत्मा की आवाज़ सुनती है और नीलकंठ का घर छोड़ देती है। अपनी बेटी सारा के साथ अंजुरी भर चाँदनी पाने का अदम्य विश्वास लिए गीता जीवन के कुरुक्षेत्र में निकल पड़ती है।

उषा यादव अपने पात्रों के चरित्र गढ़ने में खूब माहिर है। प्रत्येक पात्र अपनी स्थिति को पूर्णतया सिद्ध करता दिखता है। नारी चरित्रों पर उषा यादव विशेष ध्यान देती हुईं दिखती हैं। उनके नारी पात्र भले ही पद-दलित और शोषित हों, परंतु कुछ कर गुजरने की सच्ची लगन और आत्मबल उन्हें वक्त के थपेड़े सहने की ताकत देता है। गीता की भी कमोबेश यही सच्चाई है। एक अच्छी बेटी, अच्छी पत्नी, अच्छी माँ के गुण उसमें हैं, परंतु पुरुषवादी वर्चस्व की प्रवृत्ति उसके पाँव की जंजीर है। पैंतीस वर्ष तक अनेकानेक समस्याओं से जूझते हुए उसे जीवन की अंधेरी रातों में एक चमक-सी दिखाई देती है। संघर्षो से जूझती हुई एक स्त्री कैसे अपना खोया हुआ सम्मान दुबारा प्राप्त करती है, गीता इसका ज्वलंत प्रमाण है। गीता की बड़ी बहन सीमा उससे तीन वर्ष बड़ी है। आत्मसम्मान उसमें भी है, परंतु नीलकंठ द्वारा ठुकराये जाने पर वह मर्माहत होती है और गीता से बदला लेने की भावना रखती है। इसी कारण से वह नीलकंठ को अपने प्रति आकर्षित करती है। नीलकंठ का बचपन गुरुकुल में बीता है। गुरुकुल में धर्म और धन दोनों की ही व्यापकता उसे आकर्षित करती है। परंतु लोभ और लालच उसे भला आदमी नहीं बनने देते। मानवोचित कमजोरियों का पुतला है नीलकंठ। योग्यता न होते हुए भी विश्वविद्यालय में प्रवक्ता का पद उसे धर्माचार्य की सिफारिश पर ही मिलता है। अपने पास-पड़ोस, सहकर्मियों, परिवारीजनों के प्रति उसकी कोई निष्ठा नहीं है। प्रतिष्ठा की चाह उसे अंधा बना देती है। अपने बच्चों का भी वह कभी ध्यान नहीं रखता दिखाई देता है। बड़े-बड़े धार्मिक केन्द्रों में चलने वाली आर्थिक-सामाजिक गतिविधियों को लेखिका ने बड़ी गहराई से दर्शाया है। सत्ता प्रतिष्ठान भी इन्हीं केंद्रों के अधीन कहीं न कहीं आज भी है। विश्वविद्यालयों में नौकरी के लिए कैसी-कैसी सिफारिशें और उठापटक चलती है, इसकी बानगी स्वयं नीलकंठ है। अपने साक्षात्कार के समय नाममात्र का परिचय ही उसके सामने प्रश्न के रूप में सामने आते हैं। यही सिफारिशें उसे मंत्री पद तक पहुँचाती हैं। मूल्यों का विचलन और अंध प्रयासों का प्रदर्शन, नीलकंठ का जीवन इससे अधिक नहीं है।

सीमा के एक छोटे से साक्षात्कार के उत्तर सुनकर नीलकंठ की आँखें खुलती हैं और जीवन की वास्तविकता का भान उसे तिरेपन वर्ष की आयु में होता है। उपन्यास अपनी सामान्य गति से चलता है, परंतु अंतिम पृष्ठों में जाकर असामान्य तेजी से घटनाएँ घटती चली जाती हैं। गीता, सीमा और नीलकंठ तीनों को ही अपनी वास्तविक स्थ्ािितयों का ज्ञान अंत में होता है और संदेह व अविश्वास के बादल छँट जाते हैं। उपन्यास के नाम की सार्थकता स्वयंसिद्ध है। तीनों मुख्य चरित्रों के लिए अंजुरी भर चाँदनी का अपना-अपना महत्व है। मगर अंत में गीता का जीवन, कर्मनिष्ठा की उजियाली रात में दृढ़निश्चय और स्वाभिमान की अंजुरी भर चाँदनी से ही अपनी राह ढूँढ लेता है। ग्रामीण क्षेत्र से आई गीता धन-सम्पदा पाकर भी इसे ठुकरा देती है और बच्चों की शिक्षिका बन जाती है।

अपने सामाजिक संदर्भ में प्रस्तुत उपन्यास पूर्णतया सफल रचना है। स्त्री सशक्तिकरण की एक बेहतरीन मिसाल बनकर ‘अंजुरी भर चाँदनी’ हमारे समक्ष आता है। एक भावुक किशोरी से गीता का मजबूत इरादों वाली सशक्त नारी बनना प्रभावित करता है।

डॉ. नितिन सेठी
सी-231, शाहदाना कॉलोनी,
बरेली (243005)
मो.: 9027422306
 

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