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ख़ुद को कोस रहा है

ग़ुरूर किस बात का
ख़ुदायी दावा कर बैठा
मान लिया कि,
मैं ताक़तवर और निडर हूँ...
आदम की औलाद हूँ...
चरिंद और परिंद से बेहतर
सारे मख़लूक़ात में आला हूँ
हुक़ूमत तुम नहीं
कायनात  बनाने वाले के हाथ में है
फिर क़ुदरती चीज़ों पर
हक़ किस बात का ?
कमज़ोर, मजबूर, बेसहारा से
चरिंद के माफ़िक सुलूक क्यों?
मुल्क़ तो, कभी मज़हब के नाम पर
इंसानियत का गला घोंटने लगा
मरने और मारने का आदी हो गया
कभी वसूलों का,
तो कभी अक़ीदह का...
क़त्ल करने लगा
परिंदों का पर और चरिंदों का घर
छीनकर क़ैदी बनाया...
अपना समझ बाँटवारा किया...
समन्दर, दरिया और आसमां का

लेकिन आज
जब क़ुदरत ने करवट बदली,
सब कुछ उल्टा लगने लगा
शान और गुमान, गुमनाम हो गया
ख़ुद क़ैदी लगने लगा हूँ
अपने करतूतों से...
कमज़ोर महसूस कर रहा हूँ
ख़ुद को कोस रहा है
गिड़गिड़ा रहा हूँ, चीख़ रहा हूँ
वजूद की भीख माँग रहा हूँ...

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