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खुला आसमान

संध्या की बेला और बाहर हल्की बारिश, मैं खिड़की से सटी हुई पलंग पर बैठी बाहर देख रही थी। पत्तों पर गिरती पानी की बूँदें निश्छल स्वच्छ सुंदर चमकदार नज़र आ रही थीं। नज़रें जैसे नन्ही-नन्ही बूँदों पर टिकी हुई थीं कि तभी राशि ने मुझे आवाज़ लगाई, " दादी, आप क्या कर रही हो? मुझे एक अनुच्छेद लिखवा दो न।"

मैंने विनम्रता से कहा, "जाकर अपनी मम्मी से लिखवा लो न। मुझे क्यों परेशान कर रही हो?" उस दिन अनुराधा घर पर ही थी, मन कुछ अनमना होने के कारण ऑफ़िस नहीं गई थी।

राशि, मेरी पोती बहुत ही प्यारी सातवीं कक्षा में पढ़ती है, उसकी माँ बैंक में कार्यरत है यानी मेरी बहू अनुराधा। मेरा बेटा नवीन प्राइवेट सेक्टर में कार्य करता है। दोनों ही मिलजुल कर काम करते, विचारों के सुलझे हुए हैं। कभी अगर नोंक-झोंक हो भी गई तो एक दूसरे से सुलह भी पल में ही कर लेते हैं। नवीन कॉफी बना लाता और फिर दोनों हँसते हुए कॉफी पीने का आनंद लेते। अनुराधा समय से ही घर आ जाया करती है कभी अगर देर हो भी गई तो नवीन उसे लेने चला जाता। छुट्टी के दिन हम सभी कभी लूडो या कैरम खेलते, कभी डीवीडी में नई फ़िल्म देखते। किन्तु मैं सभी फ़िल्में नहीं देखती, एक ही घर में रहते हुए भी उन तीनों को अपनी जगह देने का प्रयास करती हूँ। आज भाग-दौड़ की ज़िंदगी में पति-पत्नी को अपनी जगह तो चाहिए, ताकि नज़दीकी बनी रहे। आखिर उनकी ख़ुशी में ही मेरी भी ख़ुशी है। राशि को कुछ-कुछ चीज़ें मेरी ही हाथों की अच्छी लगती हैं, जैसे हलवा, मठरी, गुझिया, नारियल के लड्डू।

राशि ने मेरी चुन्नी खींची और कहा, "दादी, आप मेरी हिन्दी टीचर हो और आपकी वज़ह से ही मुझे हमेशा अच्छे अंक आते हैं।" मैंने सोचा अब ये यूँ नहीं मानेगी, मुझे लिखवाना ही होगा। मैं हिन्दी की अध्यापिका रह चुकी थी, 18 वर्ष तक मैंने भी सर्विस की किन्तु अब कमर दर्द को लेकर परेशान रहने लगी थी। मैंने सर्विस ज़रा देर से आरम्भ की जब मेरे तीनों बच्चे स्कूल जाने लगे। वे स्वावलम्बी हो गए थे, मुझे सिर्फ़ उनके खाने की चिंता हुआ करती थी। आज दोनों बेटियाँ अपने ससुराल में स्वस्थ व ख़ुश हैं। मैंने राशि से पूछा, "अच्छा! अब बता किस विषय पर अनुच्छेद लिखना है?"

राशि ख़ुश हो कर बोली, "परिवार का महत्व"।

"सबसे पहले तुम ये बताओ कि परिवार का अर्थ तुम्हारी दृष्टि में क्या है? फिर तो मैं तुम्हें लिखवा ही दूँगी।"

उसने बड़े ही सुंदर और सहज भाषा में अपनी बात कहनी आरम्भ कर दी। मैं उसकी बातों को धैर्यता से सुन रही थी किंतु सुनते-सुनते ही मैं कहीं और खो रही थी।

सच ही कहा है बालमन बहुत ही कोमल होता है उनकी अपनी सोच अपने नज़रिये होते हैं। शायद हम बड़े कभी भी उनकी नज़र से बातों को समझने को तैयार नहीं होते और न ही छोटों को अपनी राय देने की इज़ाज़त देते हैं। बच्चे दिल से निर्णय भावुकतावश अवश्य लेते हैं किन्तु हम बड़े बुद्धिजीवी कुछ अनुचित निर्णय ले लेते हैं। आज मुझे अपने स्कूल के वो दिन याद आ गए जब मैं 7वीं कक्षा ब को हिंदी पढ़ाती थी। मुझे बच्चों से बेहद लगाव था। एक दिन मैंने कक्षा के सभी बच्चों से परिवार के विषय में पूछा कि उनके घर पर कितने सदस्य रहते हैं और उनसे रिश्ता क्या है? सभी बच्चे उत्सुकता व्यक्त करते हुए अपनी-अपनी बातें कहने लगे। कई मुख्य जानकारी बच्चों से मिली और उसी में मैंने कुछ बातें जोड़ते हुए कई जानकारी और भी दी। कक्षा में दो पक्ष बना कर एकल परिवार व सामूहिक परिवार पर चर्चा की गई। चर्चा समाप्त करते हुए मैंने उन सभी बच्चों को गृहकार्य दे दिया। "परिवार के महत्व" के विषय पर अनुच्छेद लिख कर लाएँ।

अगले ही दिन बच्चे गृहकार्य पूरा कर लाए और सभी अपनी कॉपी को एकत्रित कर स्टॉफ रूम में मेरी मेज़ पर पहुँचा गए। मैं अपनी समय-सारणी के अनुसार ही थोड़ी-थोड़ी कॉपी की जाँच आरम्भ कर दी। दूसरे ही दिन अचानक एक कॉपी मेरे हाथ आई नाम रेणू था, उसके अनुच्छेद लेखन को पढ़ा तो आश्चर्य चकित रह गई। वह अपने अनुच्छेद में अपने परिवार की चर्चा करते हुए, कई ऐसी बातें लिख गई थी जो हम बड़े होकर भी नज़रअंदाज कर देते हैं। अनुच्छेद की कुछ लाइनें इस प्रकार थीं, "हमारे घर में तीन ही लोग हैं। सभी अपने-अपने कमरे में रहते हैं, बात करने या हँसी की कोई आवाज़ नहीं आती अगर कुछ सुनाई देती है तो पापा के लड़ने की आवाज़। मम्मी ख़ामोशी से शांति बनाए रखने के लिए सब बातों पर पर्दा डाल देती हैं। पापा प्रतिदिन देर से आते हैं और कुछ न कुछ बहाना खोज कर मम्मी से लड़ पड़ते हैं। मैं चाह कर भी कुछ नहीं कह पाती, वरना मुझ पर हाथ भी उठा देते हैं। पर्व त्योहार पर भी हमारे जीवन में रंग नहीं भर पाते। पापा को...." इतना पढ़ना ही था कि तत्काल ही मैंने रेणू को बुलवाया और अकेले में उससे बात की। मैंने पूछा, "रेणू तुमने अनुच्छेद में क्या लिखा है?"

रेणू चुपचाप ख़ामोश-सी हो गई। मैंने अपने क़रीब करते हुए बहुत प्यार से पूछा, "क्या बात है?"

रेणू की बातों में बग़ावत स्पष्ट नज़र आ रही थी, मुझे उस घर में नहीं रहना, पापा अच्छे नहीं हैं। मम्मी सारे दिन काम करती हैं और पढ़ाई में भी मेरी मदद करती हैं। देर रात खाने पर पापा का इंतज़ार भी करती हैं पर पापा सदा ही नाख़ुश रहते हैं। साथ ही मम्मी के हाथ में ख़र्च करने को पैसे भी नहीं होते हैं। मैं उस चोट खाई बालमन की पीड़ा को समझ रही थी, उसे अपनी बातों से समझाने का प्रयास कर रह थी।

कहते हैं बच्चों का मन नन्हे पौधों की तरह होता है उसकी देखरेख जिस प्रकार की जाए वैसा ही बढ़ता है। कहीं न कहीं परिवार के माहौल का प्रभाव बच्चे पर पड़ता ही है। अब मैं हर दिन रेणू से मिल कर एकांत में बातें करती थी और उसे समझाती कि तुम्हें अपनी मम्मी के लिए एक अच्छा इंसान व आत्मनिर्भर बनना है। रेणू ने मेरी बातों को समझते हुए कहा, " मैं आत्मनिर्भर हो कर मम्मी को सारी ख़ुशियाँ दूँगी।"

राशि ने नाराज़ स्वर में मुझे हिलाते हुए कहा, "दादी आप तो मेरी बातें सुन ही नहीं रही हो मैं दोबारा से नहीं कहूँगी अब आप ही पूरा अनुच्छेद लिखवाइएगा।" राशि ने मम्मी से शिकायत की कि मम्मी देखो न दादी मेरी मदद ही नहीं कर रही है। तभी अनुराधा मेरी चाय की प्याली लेते हुए आई शायद उसने मेरी नम आँखें देख लीं और राशि को कुछ अन्य विषय पढ़ने के लिए कह कर भेज दिया। अनुराधा मुझसे पूछ बैठी "क्या हुआ माँ आप कुछ परेशान हो?" मैंने रेणू दास के विषय में बात करते हुए उस घटना का ज़िक्र कर दिया। अनुराधा भी भावुक हो उठी किन्तु दूसरे ही पल उसने पूछा, "रेणू कहाँ की रहने वाली थी? देखने में कैसी थी?" मैंने बताया कि रेणू दास की आँखें नीली, घुँघराले बाल, छोटे क़द की और लिखावट सुंदर हुआ करती थी।

अनुराधा ने कहा, "माँ, आप चिंतित न हों। आप के आशीष से वो अवश्य ही जीवन में सफल हुई होगी।" ये कहते हुए अनुराधा बालकनी में चली गई और फोन पर किसी से बातें करने लगी। मैं अपना मन बहलाने के लिए राशि के पास चली गई।

तभी आधे घंटे में अनुराधा ने आवाज़ लगाई, "मम्मी जी कोई आप से मिलने आया है।" मैं सोच में पड़ गई कि इस वक़्त तो मेरी सहेलियाँ योगा क्लब में जातीं हैं कौन मुझसे मिलने आया होगा? मैं जैसे ही ड्राइंग रुम में आई, देखा एक मेरी ही बहु के उम्र की लड़की सामने खड़ी थी जिसकी शक्ल कुछ-कुछ जानी पहचानी सी लग रही थी।

तभी उसने आगे बढ़कर मेरा पैर छूआ और कहा, "मैम मुझे पहचाना नहीं, मैं रेणू! रेणू दास।"

मैं बिल्कुल स्तब्ध सी रह गई। ये कैसे? मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा था, मैं कभी अन्नु की ओर देखती तो कभी रेणू की ओर।

"माँ मैंने जब आपकी बात सुनी तो मुझे शक हुआ फिर मैंने रेणू को फोन कर सारी बात बताई।"

"हाँ, मैम और फिर मैं तो ख़ुद को रोक नहीं पाई। मैं और अनुराधा एक ही साथ एक ही ऑफ़िस में हैं।"

रेणू और मैं गले मिले, फिर मैंने माँ और पिता के विषय में पूछा कि कैसे हैं? रेणू पूर्ण रूप से संतुष्ट व ख़ुश नज़र आ रही थी। उसने कहा, "मैम, आप मेरे घर पर आओ माँ से मिलवाऊँगी।"

फिर मैंने टोकते हुए कहा, "पापा कैसे हैं?"

"पापा की तो बात ही मत करिए वो अब हमारे जीवन में नहीं हैं, उन्होंने हमें छोड़कर दूसरी शादी कर ली।" रेणू ने आँसू छुपाते हुए कहा, "कोई नहीं मैम जो होता है अच्छे के लिए होता है। हमारे जीवन में अब ख़ुशी के पल लौट आए हैं, मुझे खुला आसमान मिल गया है। अब हम खुली हवा में साँस ले रहे हैं।" हम तीनों ने बैठकर चाय का आनंद उठाया और पुरानी यादों को ताज़ा भी किया। रेणू ने चलते हुए कहा, "अनुराधा जी, मैम को लेकर घर पर ज़रूर आइएगा। कल रविवार है, हम साथ मिलकर दोपहर का खाना खाएँगें। माँ भी आप से मिलकर बहुत ख़ुश होगी।" रेणू की ख़ुशी का ठिकाना ही नहीं रहा।

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