ख़्वाहिशों की ’माया’
कथा साहित्य | कहानी दामोदर सिंह राजपुरोहित23 May 2017
बात उन दिनों की है जब वो बहुत अमीर हुआ करती थी।
पानी में उसके जहाज़ चलते थे, और हवा में उसके राकेट उड़ा करते थे।
"माया" यही नाम था उसका!
अल्हड़ता तो उसमे कूट कूटकर भरी हुई थी
12-13 साल उम्र थी, बालिका से किशोरी बनने की कगार पर थी वो लड़की।
शाम का समय था, सूरज लगभग अस्त सा हो गया था। वो अपने ननिहाल में घर के पीछे बने खलिहान में अपने चचेरे भाई बहनों के साथ साधारण गाँवो वाले खेल (निसंडी खोड्यो खाती आदि) खेल रही थी।
वो अपनी मस्ती में तल्लीन थी कि उसके कन्धो पर दो हाथों का स्पर्श हुआ।
उसने पलट कर देखा तो उसे दो ख़ूबसूरत सी आँखें दिखीं, सुन्दर सी शक़्ल और लम्बे से बालों वाला एक लड़का खड़ा था।
उसे पता नहीं क्या हुआ वो तो सिर्फ़ उसकी आँखें ही देख रही थी। माया एकदम मूर्तिवत सी हो गयी थी।
फिर माया ने अपने आपको सँभाला और वो जैसे ही कुछ बोलने लगी तभी वो लड़का बोला, "आपकी आँखें बहुत ख़ूबसूरत है, आप हँसती हुई बहुत अच्छी लगती हो।"
माया ने आश्चर्य से पूछा, "जी कौन आप?"
लड़के मुस्कुराते हुए उत्तर दिया, "माही, जी माही नाम है मेरा....."
तभी किसी ने आवाज़ लगायी, "छोरी माय्ली"!
और वो लड़का भाग गया।
घर पे आने के बाद आज वो जल्दी से खाना खा के थोड़ा जल्दी ही सो गयी।
सोते ही उसके कानों में गूँजने लगे, "आपकी आँखें बहुत ख़ूबसूरत हैं; आप हँसती हुई बहुत अच्छी लगती हो...."
"माही...माह़ी नाम है मेरा"!
जहाँ माँ अक्सर कहा करती थी कि "इस सुगली छोरी को कैसे पार लगाऊँगी" और दादी उसके नाक को लेकर "फिंडकी" कहा करती थी।
उसके भाई तो कभी उसकी चिंता ही नहीं करते थे, वे तो निश्चिन्त थे कि इसकी तो रखवाली की ज़रूरत ही नहीं है''….
और आज अचानक से इतनी तारीफ़!
सुबह उठते ही माँ से जाके बोली "माँ मुझे भी शैम्पू ला दो ना मेट से सर ठीक से धुलता है" (मेट - पश्चिमी राजस्थान में पायी जाने वाली एक विशेष प्रकार की मिट्टी जिसे महिलायें सर धोने में भी इस्तेमाल करती हैं)।
माँ आँखें फाड़-फाड़ के देखने लगी, और अन्दर जा के काजल की डिब्बी ला के टीका लगा के बोली, "कितनी सुन्दर लग रही है मेरी लाडो। मुझे तो अंदाज़ ही नहीं लगा था; नज़र ना लग जाए मेरी लाडो को!"
माया शर्मा सी गयी लेकिन उसपे तो अभी भी उन ख़ूबसूरत आँखों का ही असर था, और उसके कानों में तो अभी भी वो शब्द गूँज रहे थे, "माही.....माही नाम है मेरा।"
उसके बाद तो माया की तो जैसे दुनिया ही बदल गयी।
अब राकेट, जहाज़ सब छूट गये थे।
अब तो दिन भर बस आईने के सामने बैठ कर अपनी आँखों को निहारती रहती थी और हँसती रहती थी।
माँ और दादी थोड़े ख़ुश थे और भाई भी कभी-कभी शक़ की निगाहों से देखते थे कि इसे अचानक क्या हो गया है?
पापा को तो कोई फ़िक्र नहीं थी। उनके लिए तो वो पहले भी उतनी ही लाडली थी और अभी भी उतनी ही लाडली है।
उसने माही को बहुत ढूँढा, बार-बार खलिहान में जाके खड़ी हो जाती थी कि शायद वो आएगा।
माया स्कूल, कॉलेज, बाज़ार, सड़क, कॉलोनी हर जगह उन दो ख़ूबसूरत आँखों को ढूँढती थी।
रात को बिस्तर पर सिकुड़कर सोयी हुई भी कई बार कंधों पर उन दो हाथो के स्पर्श को महसूस करती थी।
कई जगह से उसने अपनी सहेलियों से भी पता लगाने की कोशिश भी की लेकिन उसे निराशा ही हाथ लगी।
माया अब 23 वर्ष की हो गयी थी, माँ बाप ने अपने पसंद के लड़के से शादी तय कर दी थी।
आज उसकी मेहंदी थी सहेलियों के बीच में बेठी हुई थी और हाथ में पिया के नाम की मेहंदी लग रही थी। तभी उसकी चचेरी बहिन दौड़ती हुई आई, "दीदी पोज़ देने के लिए तैयार हो जाओ फोटोग्राफर भैया आये हैं।"
जैसे ही फ़ोटोग्राफ़र कमरे में आया तो माया को तो झटका सा लगा।
वो ही आँखें, वो ही चेहरा, वो ही लम्बे बाल!
दिल तो किया कि जाके गले लग जाऊँ अपने माही के लेकिन......
पैरों में मर्यादा की बेड़ियाँ थीं, हाथों में पिया के नाम की मेहंदी थी, और आँखों पर समाज का पहरा था।
ऐसे ही मूक बनी खड़ी थी वो - तभी एक सुरीली सी आवाज़ गूँजी…
"स्माइल प्लीज़ ..........आप हँसती हुई बहुत अच्छी लगती हो!"
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