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कोई भी शख़्स  हर  मैदान  में  क़ाबिल  नहीं होता

कोई भी शख़्स  हर  मैदान  में  क़ाबिल  नहीं होता
जो आक़िल है कभी वो मौत से ग़ाफ़िल नहीं होता


उसे  इंसान  कहना  भी  है  इक  तौहीन  इसाँ  की
जो सुख दुख में भी अपनों के कभी शामिल नहीं होता


कोई  रंज-ओ-अलम होता  न  होता दर्द-ए-दिल  यारो
सुकूँ से कटते दिन जीना  यहाँ  मुश्किल नहीं होता


सुनाते  थक  गया  हूँ  दास्तान-ए-ग़म  ज़माने  को
किसी से कुछ बताने के  लिए अब दिल नहीं होता


है नाशुक्री वफ़ा  के  बदले  में  कुछ  चाहना  यारो
वफ़ा हासिल है ख़ुद इससे बड़ा हासिल नहीं होता


ये है  बहर-ए-ग़म-ए-हस्ती  इसी  में  डूबना  होगा
यही साहिल  है  इसमें  दूसरा  साहिल  नहीं  होता


लुटाते हैं मता-ए-जाँ भी  राह-ए हक़ मे दिल वाले
जमा करता वो धन दुनिया में जो आक़िल नहीं होता


मशक्कत के बिना हमने तो कुछ मिलते नहीं देखा
निवाला तक तो मुँह में ख़ुद-ब-ख़ुद दाखिल नहीं होता


जो शेर-ए-दिल है वो डरता  नहीं हक़ बात कहने में
कभी बुज़दिल कोई भी रहबर-ए-कामिल नहीं होता


गया मकतब न जो पर मुत्तक़ी है वो तो आलिम है
ख़ुदा को  जानने  वाला  कभी  जाहिल  नहीं होता


किताबें पढ़के हर कोई 'निज़ाम' आलिम न हो पाया
वो आलिम होके भी जाहिल है जो आदिल नहीं होता

– निज़ाम-फतेहपुरी
 

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