कोलाहल
काव्य साहित्य | कविता कामिनी कामायनी15 Oct 2016
ये अजीब सा शोर आज फिर
आसमान मे भरने लगा है
सुबह से ही हवाएँ कुछ बोझिल सी हो चली हैं
ठिठकती रुक-रुक कर बढ़ती हैं आगे
लगाए पत्तों में कान
जानने को वह भी बेकरार कि आखिर
कौन सी क्रांति आने वाली है यहाँ
चारों ओर उमड़ रही है भीड़
हाथ मे झंडे हैं सबके
मगर गर्दन के ऊपर
सिर नदारद।
कोई जाँबाज़ कोई तीरंदाज़
लगा जाएगा उन खाली गर्दनों पर सिर अपना।
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