अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

कोठरी और आकाश 

मैं और वो जेल की एक ही कोठरी में बंद थे। वह जेबकतरी करने के कारण छह माह के लिए बंद था और मैं हत्या करने के कारण आजीवन कारावास भुगत रहा था। पर वह मुझसे ज़्यादा शातिर था। जेल में वह ख़ुराफ़ात करता रहता था। कभी किसी क़ैदी से झगड़ा, तो कभी रसोइये से गाली-गलौज, तो कभी बंदियों में गुटबाज़ी करना, तो कभी कुछ और जेलर से लेकर संतरी तक हर कोई उस पर निगाह गड़ाये रहता, कि कहीं वह कोई नई आफ़त ना खड़ी कर दे। सभी उसे शंकित निगाहों से देखते थे। उस रोज़ वह मुझे नसीहत देने लगा-

"काम-धंधा ऐेसा रहना चाहिए कि पूरे समय जेल में ना रहना पड़े। छह महीने जेल में रहो और छह महीने बाहर। इस मामले में अपना काम चोखा है। पुलिस वाला अपने से ख़ुश है। रेलवे स्टेशन में अपना जलवा है और स्टेशन मास्टर वो तो अपना यार। तुम गड़बड़ किये। ऐेसा ही धंधा ढूँढते ठीक रहता।"

उसने मेरे कर्म के सामने प्रश्न चिन्ह लगा दिया। जब मैंने हत्या की थी, तब कोई प्रश्न नहीं था। जब वह जेल की कोठरी में मुझसे बतियाता है, तब प्रश्न हो जाता है। फिर मुझे रात को नींद नहीं आती प्रश्न है। मैं उस प्रश्न का जवाब कोठरी के रौशनदान से रात को दिखने वाले काले आकाश में ढूँढता हूँ। यहाँ से खरबों किलोमीटर दूर तारों वाले काले आकाश में। शायद वहाँ जवाब हो। 

उस रात भी ऐसा ही हुआ। मैं देर रात तक उसकी बात गुनता रहा। रात की ड्‌यूटी वाला क़ैदी चिल्ला रहा था- "जागते रहो"। मुझे नींद नहीं आ रही थी। उसका "जागते रहो" मेरे जागने को डिस्टर्ब कर रहा था। मेरे भीतर दो बातें खेल रही थीं, पहली उसका कहा"चोखा काम"और दूसरा"जागते रहो"। दो बातें जो एक दूसरे की उल्टी हैं। किसी खेल में दो प्रतिद्वंद्वी टीमों की तरह एक दूसरे के विपरीत भिड़़ने को आतुर। 

मैंने देखा वह सो चुका है। वह बहुत सोता है। मुझे जागता देखकर उसे हैरानी होती है। मुझे उससे बहुत कुछ पूछना है। वह जब भी आता है, मुझे कई बातें बताता है। पिछली बार उसने बताया था कि, क़रीब एक महीने पहले वह मेरे घर गया था। तब मेरी माँ का दमा पहले से ठीक हो गया था। जब वह गया था तब वह कुछ कम खाँस रही थी। देबू याने मेरा बेटा अब पूरे दो साल का हो गया है। दो साल बाद उसे स्कूल भेजना है। माँ अभी से चिंतित है। बोल रही थीं, विभुयाने कि मैं चाहता था, कि वह पढ़ने जाये। उसे स्कूल ज़रूर भेजना है। किसी अच्छे स्कूल में एडमीशन दिलाना है। पर उसे स्कूल कौन ले जायेगा? कौन ऐसे एडमीशन दिलायेगा? फ़ीस कौन देगा? माँ बहुत चिंतित है। माँ बहुत परेशान है। .......इसी तरह की कई और बातें वह मुझे बताता है। तरह-तरह की बातें। माँ की और देबू की बातें। 

पर आज मैं अभी तक उससे वे सब बातें पूछ नहीं पाया हूँ। उससे पूछने के लिए मौक़ा देखना पड़़ता है। वह आसानी से नहीं बताता है। उससे बात पूछने के लिए उसे पटाना पड़़ता है। वह बहुत शातिर है। वह जान चुका है कि माँ और देबू कि बातें मेरे लिए कितनी अहमियत रखती हैं। इसलिए वह मुझे जल्दी नहीं बताता है। वह मुझे घुमाता है। वह मुझसे पूरे शिष्टाचार की अपेक्षा रखता है। बात जानने के लिए मुझे पहले ऐसे थोड़़ा ख़ुश करना पड़ता है। उसकी लल्लो-चप्पो करनी पड़़ती है। फिर जब मुझे यक़ीन हो जाता है, कि वह मुझसे ख़ुश है, बस तभी मैं उससे ये सब बातें पूछ सकता हूँ। अगर इस तरह नहीं पूछो तो सबकुछ गड़़बड़़ हो जाता है। वह चुप हो जाा है। यूँ प्रदर्शित करता है, जैसे वह मुझसे नाराज़ हो, जैसे मुझे उससे यह बात यूँ नहीं पूछनी चाहिए थी। फिर मैं लाचार हो जाता हूँ। वह जान चुका है, कि वे बातें मेरे लिए क्या अहमियत रखती हैं। उन बातों में मेरे प्राण हैं। काश मेरे पास उसे देने को कुछ होता, तो मैं उसे वह चीज़ माँ और देबू की बातों को बताने के ऐवज़ में उसे दे देता। मैं उन बातों के बदले कुछ भी दे सकता हूँ। अपनी साँसें भी। 

पता नहीं मुझे वे बातें कब पता चलेंगी? कब वह मुझे वे बातें बतायेगा। वे बातें जिसके लिए मैं उसके जेल में आने का इंतज़ार करता हूँ। उस रात मैं देर तक सोचता रहा। पता नहीं कब? पता नहीं किस समय? .........मैं उस समय तक सोचता रहा जब तक मुझे रात की ड्‌यूटी वाले क़ैदी की आवाज़ सुनाई देती रहीं -"जागते रहो।"

एक बार उसने मुझे झूठ बात बताई थी। उसने बताया था, कि माँ अब पूरी तरह से ठीक हो गई हैं। वह मेरी माँ को कुछ पैसे भी दे आया है। फिर मुझे पता चला कि उसने मुझसे झूठ कहा है। मैं उस पर नाराज़ हो गया। मैंने उससे कहा कि उसे इस तरह झूठ नहीं बोलना चाहिए था। बात बहुत बढ़ गई। मेरा और उसका झगड़ा हो गया। मैं हाथापाई पर उतर आया। हम दोनों का अच्छा ख़ासा झगड़ा हुआ। और फिर बातचीत बंद हो गई। पर कुछ दिनों के बाद मैंने अपनी ओर से उससे बात शुरू करने की कोशिश की। मुझे उससे बात करनी थी। मुझे उससे माँ और देबू की बात पूछनी थी। पर उसने फिर मुझे वे बातें नहीं बताईं। मैंने उससे माफ़ी माँगी। मैं उसके सामने गिड़गिड़ाया। पर उस पर कोई असर नहीं पड़ा। उसने मुझे वे बातें नहीं बताईं। मुझे अपने आप पर भी ग़ुस्सा आया। क्यों मैं उससे लड़़ पड़़ा? मेरी भी ग़लती है। चुपचाप सब सह लेता तो क्या हो जाता? मुझे चुप रहना था। हाँ मुझे चुप रहना था। बिना बात के दिक्क़त मोल ले ली। अब वह मुझे वे बातें नहीं बतायेगा। जब-जब मैं यह सोचता कि वह वे बातें मुझे नहीं बतायेगा, मुझे अजीब सी घबराहट और तक़लीफ़ होती और मैं फिर से गिड़गिड़ाता हुआ उससे माफ़ी माँगता। जेल के कुछ दूसरे बंदी भी मेरी तरफ़ से उसे समझाते पर वह नहीं माना। अगली बार जब वह जेल आया तब भी उसने शुरू-शुरू में मुझसे कोई बात नहीं की। पर मैंने उसे मना लिया। इस बार मेरा गिड़गिड़ाना काम आ गया। वह मान गया। पर वह मुझे कुछ बता नहीं पाया, क्योंकि वह मेरे घर तरफ़ नहीं गया था। पर इस बार वह ज़रूर गया होगा। इस बार वह ज़रूर ख़बर लाया होगा। 

मुझे लगता काश माँ पढ़ी लिखी होतीं। ताकि वह मुझे चिट्ठी भेज पाती। तब माँ और देबू की बातें जानने किसी और की ज़रूरत नहीं पड़ती। चिट्ठियों से सब कुछ पता चल जाता। मैं देबू को ज़रूर पढ़ाऊँगा। उसको ज़रूर स्कूल भेजूँगा। पर तभी मुझे याद आया कि माँ कह रही थीं, कि देबू को स्कूल कैसे भेजेंगे? कैसे? कोई भी तो नहीं है, जो उसे स्कूल में भर्ती करा दे। उसकी स्कूल की फ़ीस कौन भरेगा? ....सोचने-सोचते मेरा मन भारी हो जाता। 

अगले दिन सुबह-सुबह ही सिपाही आ गया। उसने बताया आज हम दोनों को गड्‌ढे खोदने हैं। पौधे लगाने के गड्‌ढे। चार गड्‌ढे मुझे खोदने हैं और चार गड्‌ढे उसे खोदने हैं। मैंने सोचा कि उसके हिस्से के गड्‌ढे भी मैं ही खोद दूँगा। तब वह मुझसे ख़ुश हो जायेगा और मुझे माँ और देबू की बातें बता देगा। जब मैंने ऐसे बताया कि उसके हिस्से के गड्‌ढे भी मैं ही खोद दूँगा, तो वह काफ़ी ख़ुश हुआ। उसने ड्‌यूटी वाले सिपाही से एक बीड़़ी ली और फूँकने लगा। पूरे समय वह उस सिपाही से बतियाता रहा और मैं जेल के बग़ीचे में जेल की दीवार के किनारे-किनारे गड्‌ढे खोदता रहा। 

जब सारा काम हो गया, तब तक शाम हो गई थी। मैं बहुत थक गया था। बैरक में लौटते समय उसने मुझे वे बातें बताईं। 
"माँ अब बिस्तर से कम उठ पाती है। उसका दमा बढ़ गया है। वैद्य कहता है, कि बुढ़ापे का मर्ज है। मरते तक चलता है।"

"चौका चूल्हा कैसे करती है?"

"उसी कमरे में खाना बनाती है और उसी में सोती है। घर से बाहर कम ही निकलती है। थोड़़ा चल ले तो थक जाती है। सो पूरे समय घर ही रहती है।"

"माँ कुछ कह रही थी?"

"कह रही थी, गीता के मरने के बाद विभु दूसरी शादी कर लेता तो ठीक रहता।"

ऐसा होता, तो ठीक रहता। ऐसा करते तो ठीक रहता। पीछे बहुत कुछ "ऐसा" छूट गया है जो कुछ और होता तो ठीक रहता। अतीत में छूटे हुए कुछ गड्‌ढे जिनमें मेरा पैर चला जाता है और मैं मुँह के बल गिर पड़़ता हूँ। 

गीता को मरे छह साल हुआ। कभी सोचा ही नहीं कि दुबारा ब्याह करूँ। माँ पहले साल से ही मेरे पीछे पड़़ गई थीं। ब्याह कर ले, ब्याह कर ले, ....रटती रहतीं और वह उन पर झल्ला जाता। पता नहीं क्यों गीता की ख़ाली जगह किसी और को देते हुए अच्छा नहीं लगता था। ऐसा ख़्याल मन में आते ही एक अजीब सी मतली सी होने लगती थी। उसने माँ को कई बार कहा था, कि वह अकेले रह सकता है पर दुबारा ब्याह नहीं करेगा। पर माँ तो कभी समझ ही नहीं पाईं। आज भी यही कहती हैं, कि दुबारा ब्याह कर लेता तो ठीक रहता। पर आज कभी-कभी उसे लगता है, कि माँ ठीक कहती थीं। उसे गीता की ख़ाली जगह किसी और को दे देनी थी। वह अपने भीतर के एक हिस्से को काटकर, फेंककर ऐसा कर सकता था। पर उसने नहीं किया। माँ सही कहती थी। उसने गलती की। वह शायद दुबारा शादी कर सकता था। 

"माँ और क्या कह रही थीं?"

"जेल से छुट्टी का पूछ रही थीं। सो मैंने बता दिया अभी मंजूर नहीं हो पायेगी। तीन सौ दो के मुलजिम की छुट्टी बड़ी कठिन है....कहो बरसों ना मिले।"

मैं चुप हो गया। उसने शायद मेरा चेहरा पढ़ लिया । फिर अपनी तरफ़ से ही कहने लगा-

"देख विभु इस बारे में मैं बार-बार झूठ नहीं बोल सकता। हर बार तेरी माँ कहती है कि, छुट्टी का क्या हुआ? पिछली बार तो कहा था, कि अबके मंजूर हो जायेगी, फिर काहे नहीं हुई? दरख़्वास्त गई के नहीं? जेलर सा’ब क्या कह रहे थे? तुम मिले थे क्या? क्यों नहीं मिले? काहे नहीं बात की?....ये सब किचर-पिचर अपने से नहीं होती। सो मैंने सही-सही बता दी।"
मैं इस उम्मीद को बने रहने देना चाहता था। मुझे अच्छा नहीं लगा कि माँ की यह उम्मीद थोड़ा सा बिखर गई। वह एक अनिश्चित सा इंतज़ार करती रहती थी, कि विभु की छुट्‌टी मंजूर होगी और वह कुछ दिनों के लिए घर आयेगा। ‍उसे भी ऐसा सोचकर अच्छा लगता, कि माँ को यक़ीन है छुट्टी मंजूर हो जायेगी। क्या मालूम यह बात सही हो जाय। ऐसा कई बार हुआ है। माँ सोचती है और वह बात हो जाती है। यह उम्मीद बनी रहती तो ठीक रहता....। 

छुट्टी वाली बात पर माँ ने कुछ कहा?"

"नहीं...कुछ नहीं कहा....।"

"कुछ तो कहा होगा।"

"नहीं बस चुप हो गईं..।"

"काकू घर आये थे।"

"हाँ माँ बता रही थीं, दो माह पहले आये थे। बस एक रोज़ को। कुछ गल्ला रख गये हैं। कह रहे थे अब ना हो पायेगा। यह आख़री बार है। विभुको बताओ वही देखे...। तो माँ ने भी उसे खरी-खरी सुना दी। कह रही थीं, थोड़़ा चिढ़ गया था।"

"पर माँ को ऐसा नहीं कहना था।"

"काहे...।"

"काकू के अलावा अब और कौन है, जो उनकी मदद कर सके।"

"पर अब वे नहीं आयेंगे मदद करने। माँ ख़ुद कह रही थी। वो साफ़ कह गये हैं। अब वे नहीं आयेंगे।"

"स्साले...सब स्वार्थी हैं...सब। जब तक मतलब है, चिपके रहेंगे गुड़ में मक्खी की तरह और जब मतलब पूरा हो गया पलट के भी नहीं देखते....पुराने रास्ते भूल जाते हैं।"

हम दोनों थोड़ी देर चुपचाप बैठेरहे। वह सुट्टा फूँकता रहा। 

"देबू कैसा है?"

"पूरे समय घर में बंद रहता है। माँ घर को भीतर से बंद रखती हैं। कहीं बाहर चला गया तो कहाँ ढूँढने जायेंगी। उसकी भी जेल ही हो गई समझो....।"

"देबू घर में कैसे रहता होगा?"

"वह तो बस मौक़ा ताकता था, कि कब घर का दरवाज़ा खुले और वो ये भाग, वो भाग....। गली मोहल्लों में ठुमकता घूमता। मुझे ही दौड़़ना पड़़ता था, उसके पीछे। उसके पीछे भागते-भागते मैं हाँफ जाता था। एक खेल सा हो जाता था। माँ कहतीं, पूरे मोहल्ले किलकारी मारता घूमता है, इसे नज़र लग जाती है, सो मैं ध्यान रक्खा करूँ कि कहीं बाहर ना भाग जाये। पर देबू कहीं मानता था। हर रोज़ माँ नमक और मिर्च से उसकी नज़र उतारती थीं। मुझे उसे यूँ भागता देखकर बड़ा मज़ा आता था। मैं जान-बूझकर घर का दरवाज़ा खोल देता था, ताकि वह घर से बाहर भाग जाये और मुझे उसे उसके पीछे भागते हुए पकड़़ने का मज़ा आये। पर अब वह घर में बंद सा है।"

वह घर में कैसे रह लेता होगा? वह तो रह ही नहीं सकता था। क्या वह याद करता होगा कि वह कैसे किलकारी मारते हुए भागता था और मैं उसके पीछे-पीछे दौड़ता था। क्या वह इतना बड़ा हो गया है कि इन बातों को सोच सके? ....घर में बंद-बंद उसे घुटन नहीं होती होगी? मुझे अपने भीतर कुछ बिखरता सा लगा। जैसे पतझर में सूखे पत्तों का ढेर जो हवा में बिखरता रहता है। 

वह सो गया था। मुझे नींद नहीं आ रही थी। थोड़ी देर बाद किसी के बूटों की आवाज़ सुनाई दी। वे जेलर साहेब थे। जब वे मेरी कोठरी के सामने से गुज़रे मैं उनके सामने हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। 

"साहेब...मेरे को सिर्फ़ दो रोज़ के लिए छोड़ दीजिये। मैं वापस आ जाऊँगा। यक़ीन मानो साहेब बराबर लौट आऊँगा। सिर्फ़ एक बार.....।"

"तुम अजीब पागल हो....यह क्या मेरे बस की बात है?"

"साहेब आप कर सकते हो...साहेब मेरे एक बेटा है, देबू ....।"

"यह संभव नहीं है।...अच्छा ठीक है, तुम एप्लीकेशन लगा दो, तुम्हारे पैरोल का मामला सरकार को मंजूरी के लिए भेज देते हैं।"

मेरी पैरोल दो बार नामंजूर हो चुकी थी। जेलर साहेब बता रहे थे कि, पुलिस ने रिपोर्ट दी थी, कि मैं शातिर हूँ। अगर छूट गया तो बवाल करूँगा। सरकार ने पुलिस की रिपोर्टको सही माना और मेरी छुट्टी नामंजूर हो गई। मैं फिर से जेलर साहेब के सामने घिघियाने लगा।"साहेब छुट्टी तो नामंजूर हो जाती है। ...आप तो सक्षम हो दो रोज़ के लिए छोड़़ दो साहेब... सिर्फ़ दो रोज़ के लिए।"

अबकी बार जेलर साहेब ने मुझे घुड़क दिया। और आगे बढ़ गये। 

उस रात फिर से मुझे नींद नहीं आई। मैं पूरी रात जागता रहा। उस रात रौशनदान के पर के काले आकाश को देखकर मुझे बचपन की एक बात याद आई। तब मैं बहुत छोटा था। तब पिताजी ज़िंदा थे। गर्मियों के दिन थे और मैं रात को पिताजी के पास सोता था। पिताजी मुझे एक कहानी सुनाते और कहानी के बाद मुझसे पूछते-

"विभु तुम कौन सा तारा लोगे?"

मैं हर बार एक ही चमकीले तारे की ओर इशारा करता। फिर कुछ दिनों बाद माँ ने उस तारे का नाम रख दिया - विभु का तारा। वह तारा आज भी जेल की कोठरी से रौशनदान के पार दिख रहा है। एक अजीब सी इच्छा हुई। काश वह तारा रौशनदान पर कर जेल की इस अँधियारी कोठरी में आ जाता। अगर ऐसा हो जाय तो मैं उस तारे को अपनी मुट्ठी में भींच लूँगा....ठीक उसी तरह जिस तरह लोगों के हाथों में हमारी कुछ धड़कनें भिंची होती हैं, जिन्हें वे गिड़गिड़़ाने पर और नाक रगड़़ने पर भी नहीं देते हैं। मैं भी उस तारे को अपनी मुट्ठी में भींच लूँगा और किसी को नहीं दूँगा, कोई माँगे तब भी नहीं...कोई गिड़गिड़ाये तब भी नहीं...। हाँ मैं नहीं दूँगा। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

......गिलहरी
|

सारे बच्चों से आगे न दौड़ो तो आँखों के सामने…

...और सत्संग चलता रहा
|

"संत सतगुरु इस धरती पर भगवान हैं। वे…

 जिज्ञासा
|

सुबह-सुबह अख़बार खोलते ही निधन वाले कालम…

 बेशर्म
|

थियेटर से बाहर निकलते ही, पूर्णिमा की नज़र…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी

कविता

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं