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क्रांति की मशाल है ’जारी है लड़ाई’

समीक्ष्य पुस्तक: जारी है लड़ाई
लेखक: संतोष पटेल
प्रकाशक: नवजागरण प्रकाशन, द्वारका
मूल्य: ₹125/-

क्रांति परिवर्तन के लिए ज़रूरी है। कवि संतोष पटेल का कविता संग्रह "जारी है लड़ाई" आज मैंने पढ़ा। इन कविताओं को पढ़कर मुझे जो महसूस हुआ, वह मैं आपके साथ साझा कर रही हूँ। कवि की लेखनी के ताक़त को देखते हुए, अनायास ही रामधारी सिंह दिनकर द्वारा रचित पंक्तियाँ याद आ गईं –

"क़लम देश की बड़ी शक्ति है भाव जगाने वाली
दिल ही नहीं दिमाग़ों में भी आग लगाने वाली" 

कवि संतोष पटेल का यह काव्य संग्रह क्रांतिकारी भाव से प्रेरित है। कवि एक सामाजिक कार्यकर्ता भी हैं जो हाशिए के समाज, दलित-पिछड़ों की समस्याओं एवं समाधान, उन्हें उचित न्याय दिलाने, उनकी प्रगति एवं जागृति के लिए निरंतर कार्यरत रहे हैं। इसके अलावा अपनी मातृभाषा भोजपुरी को आठवीं सूची में लाने के लिए अनवरत रूप से धरना प्रदर्शन, दिल्ली के जंतर मंतर पर व सोशल मीडिया आदि के माध्यम से अपनी बात सरकार को पहुँचाने के लिए अथक प्रयास कर रहे हैं। ऐसे व्यक्तित्व का धनी व्यक्ति जब काव्य सृजन करता है, तो उसकी रचनाएँ, उसके संघर्ष, उसकी क्रांतिकारी विचार हुंकार भरते हुए, तराशे गए शब्दों की पंक्तियों के रूप में खिलकर आते हैं। पाठक इन्हें पढ़ते समय स्वयं को उसी कविता में शामिल पाते हैं, इस तरह यह कविता  संग्रह आत्मीयता का भाव अधिक होने के कारण पाठकों को अपने साथ जोड़ कर रखता है। अनंत संभावनाओं से युक्त जीवन के अनछुए पहलुओं को कवि ने अपनी उर्वर प्रतिभा के साथ उभार कर लाने का प्रयास किया है, एवं उसमें सफल भी हुए हैं। इस संग्रह की सबसे अच्छी बात इसका स्पष्ट दृष्टिकोण है, ना उलझे हुए  बिंब, ना भाव बोध के स्तर पर क्लिष्टता।

इनकी कविता "मुझे जो घंटियाँ पसंद है" देखें-

"मुझे पसंद है स्कूल की घण्टियाँ
जो बनाती हैं शिक्षित"

’मुझे हमदर्दी है एंबुलेन्स की घण्टियों से' में जीवन की मार्मिकता एवं यथार्थ का सूक्ष्म चित्रण किया गया है । जिसमें समाज के उपेक्षित ग़रीब, रोज़ की कमाई करने वाले दिहाड़ी मज़दूरों की घंटियों की तुलना मंदिरों की घंटियों से की गई है। मंदिरों की  घंटियाँ धार्मिक  उन्मांधता एवं पाखंड परोसती हैं। जबकि राम दाने के लड्डू, गट्टा, हवा मिठाई, मकई के लावा बेचने वाली घंटियाँ उसके परिवार का पेट की आग बुझाने का काम करती हैं। वहीं स्कूल की घंटी, एंबुलेंस की घंटी कवि को इसीलिए पसंद है क्योंकि यह किसी की जान बचाने और शिक्षित बनाने के लिए होती हैं। घण्टियों की श्रेष्ठता को कवि ने  सूक्ष्मता से परिभाषित किया है। जिसने मुझे काफ़ी प्रभावित किया है।

'एक चिड़िया' कविता में –

'संस्कारों के ढहते किलों के नीचे
 दब गई है/एक चिड़िया/उसकी चहक'

जिसमें  कवि के क्षुब्ध मन से निकली आह  दिखती है। वर्तमान समय में मानवता को शर्मसार करती घटनाएँ इतनी बढ़ गई हैं, कवि  इनमें क्रांति की छुपी आग, बदलाव का तार सप्तक देखते हैं। जो दामिनी निर्भया या ज्योति के बलिदान को जाया नहीं जाने देगा । ऐसी बदलाव की आँधी परम्परागत विचार धारा को तोड़ने का मार्ग प्रशस्त करेंगी। महान भारत का और इसी 
सरज़मीं पर चिड़ियों की तरह हमारी बहन बेटियाँ चहक सकेंगी यह एक आशावादी कविता है।

"एक शब्द चुना है
 संधर्ष के लिए
 और डरने लगे हो तुम"

संविधान दलितों के सामाजिक, मानवीय, राजनैतिक एवं आर्थिक अधिकारों का दस्तावेज़ है यह दलित समाज के संघर्ष का ही प्रतिफल है। लेकिन समीक्षा के बहाने बार-बार लगातार संविधान की शक्ति को खोखला किया जा रहा है, ताकि दलितों से उनके अधिकारों को छीना जा सके। दलित दुनिया के सृजनहार हैं, उत्पादक है, कर्मठ, साहस वाले मेहनतकश लोग हैं। इनको पूरी तरीक़े से पंगु बनाने की क़वायद का उदाहरण कविता 'एक शब्द' है।

लोकतंत्र का चौथा खंभा कहे जाने वाले मुख्यधारा के मीडिया से कवि ने जो दंश भरे सवाल किए हैं, वह समाज की माँग है, क्योंकि आज का  मीडिया सरकार का महिमामंडन करने, चापलूसी करने, चरण वंदना में व्यस्त है। उसे न तो समाज से मतलब है न ही वास्तविकता से। न दिखती है किसी ग़रीब की परेशानी न ही उनका दुख। निष्पक्षता का पहन कर नक़ाब, खेलते हैं हमारी भावनाओं से एक गंदा खेल।

"दशरथ मांझी" को कवि ने अपने कविता में क्रांति का दूत माना है।  जिसने चट्टानों का सीना चीर कर दुर्गम मार्ग की दुश्वारियों को न्यूनतम करने का सफल प्रयास किया है। उसे कवि ने बख़ूबी दर्शाया है। इसके अलावा और भी कविताएँ हैं, एक नारी होने के नाते नारी सशक्तिकरण की कविताएँ मुझे ख़ासी आकर्षित करती रही हैं। इसमें "पहली शिक्षिका" और "वर्षों पुरानी परंपरा टूट गई ", "ऑनर किलिंग", "फिर तुम ही जनों" कविताओं  ने मुझे काफ़ी प्रभावित किया।

"खाली करो जंगल" आदिवासियों का विकट जीवन वृतांत है । 

उनका घर जो जंगल है, से बेदख़ल करके, उन्हें असहाय, अनाथ बेघर बनाया जा रहा है और उनकी मजबूरियों का फ़ायदा उठा कर उनके जीवन के साथ जो अन्याय हो रहा है उसके बारे में कवि खुलकर इस कविता में बता रहे हैं। कवि ने समाज में व्याप्त बुराइयों और अन्याय के विरुद्ध शंखनाद किया है, एवं एक कवि होने के नाते सारे विषयों पर पाठकों का ध्यान आकर्षित किया है। कवि का यह काव्य संग्रह समतावादी विचारों को स्थापित करने का प्रयास दिखता है। जिससे समाज मे व्याप्त बुराइयों का अंत हो सके। कवि के इस प्रयास की सराहना होनी चाहिए कि इस विकट समय में भी वे अपनी बात डंके के चोट पर कहते हैं।

– कृपी कश्यप
 

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