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कृष्णा सोबती हशमत के जामे में 

कृष्णा सोबती आधुनिक हिंदी साहित्य की अनमोल धरोहर हैं। वह अपनी रोचक क़िस्सागोई और विलक्षण देशज भाषा शैली से लैस प्रयोगशील रचनाकार रहीं हैं। इस दुनिया को छोड़ जाने के बाद भी लोगों में उनकी उपस्थिति का अहसास ख़त्म नहीं हुआ है। कृष्णा सोबती एक सशक्त कथा वाचक थीं, उनकी कथन शैली तीखी धारदार और चुनौती भरी हुआ करती थी। उन्होंने अपनी लंबी साहित्यिक यात्रा में हर नई कृति के साथ अपनी ही क्षमताओं का अतिक्रमण किया है। ‘डार से बिछुड़ी‘ से लेकर ’मित्रो मरजानी’, ‘यारों के यार’, ‘तिन पहाड़’, ‘बादलों के घेरे’, ’सूरजमुखी अंधेरे के’, ’जिंदगीनामा’, ‘ऐ लड़की’, ‘दिलो दानिश’, ‘हम हशमत’, ‘समय सरगम’, ‘शब्दों के आलोक में‘, ‘जैनी मेहरबान सिंह’, ‘सोबती-वैद संवाद’ और ‘लद्दाख: बुद्ध का कमंडल’ तक उनकी रचनात्मकता ने बौद्धिक उत्तेजना, आलोचनात्मक विमर्श, सामाजिक और नैतिक बहसें साहित्य संसार में पैदा की हैं, उनकी अनुगूँज साहित्य जगत में हमेशा सुनाई देती रहेंगी। कथा एवं काथेतर दोनों विधाओं में कृष्णा सोबती असाधारण सृजनात्मकता का बोध कराती हैं। 

भारतीय साहित्य के परिदृश्य में हिंदी की विश्वसनीय उपस्थिति के साथ कृष्णा सोबती अपनी संयमित अभिव्यक्ति और सुथरी रचनात्मकता के लिए जानी जाती हैं। कम लिखने को वे अपना परिचय मानती हैं, जिसे स्पष्ट इस तरह किया जा सकता है कि उनका ‘कम लिखना’ वास्तव में  ‘विशिष्ट‘ लिखना है। किसी युग में किसी भी भाषा में कुछ ही लेखक ऐसे होते हैं जिनकी रचनाएँ साहित्य और समाज में घटना की तरह प्रकट होती हैं और अपनी भावनात्मक ऊर्जा और कलात्मक उत्तेजना के लिए एक प्रबुद्ध पाठक वर्ग को लगातार आश्वस्त करती हैं। कृष्णा जी ने अपने कथा साहित्य के साथ-साथ कथेतर साहित्य में अपनी प्रखर चिंतनशील रचनात्मकता से जो बौद्धिक उत्तेजना, आलोचनात्मक विमर्श, सामाजिक और नैतिक बहसें साहित्य संसार में पैदा की हैं, वे बेजोड़ हैं। कृष्णा सोबती ने हिंदी की कथा-भाषा को एक नई ताज़गी दी है। उनके भाषा संस्कार के घनत्व, जीवंत प्रांजलता और संप्रेषण ने हमारे समय के अनेक पेचीदा सच आलोकित किए हैं। उनके रचना संसार की गहरी सघन ऐन्द्रीयता, तराश और लेखकीय अस्मिता ने एक बड़े पाठक वर्ग को अपनी ओर आकृष्ट किया है। कृष्णा सोबती साहित्य की समग्रता में अपने को साधारणता की मर्यादा में एक छोटी सी क़लम का पर्याय मानती हैं। समय को लाँघ जाने वाला लेखन ऐसे लेखन से कहीं अधिक बड़ा होना चाहिए – साहित्य को जीने और समझने वाले हर आस्थावान व्यक्ति की तरह यह निर्मम सत्य उनके सामने हमेशा उजागर रहता है। कृष्णा सोबती के समस्त लेखन में उनके द्वारा रचे गए कथेतर साहित्य का महत्व अलग धरातल पर उनके सामाजिक सरोकारों को रेखांकित करता है। उनका कथा साहित्य मूलत: स्त्री जीवन की विद्रूपताओं और विडंबनाओं का संवेदनशील दस्तावेज़ है। उपन्यास के अलावा संवाद, साक्षात्कार, संस्मरण और यात्रा-साहित्य जैसी विधाओं में भी वह स्वयं को अनेक रूपों में अभिव्यक्त करती हैं। अपने समकालीन साहित्य कर्मियों के साथ उनके प्रत्यक्ष एवं परोक्ष संबंधों को व्याख्यायित एवं विश्लेषित करने के लिए उन्होंने एक नई साहित्य विधा को आविष्कृत किया जिसमें वैचारिक चिंतन मौजूद है और साथ ही उन साहित्यकारों के साथ वाद, विवाद और संवाद उपलब्ध हैं। अपने से जुड़े चुनिन्दा पात्रों के जीवन के महत्वपूर्ण अंशों को उनकी वैचारिकी के साथ कृष्णा सोबती ने ‘हम हशमत‘ के चार भागों में लिपिबद्ध किया है। ‘हम हशमत‘ प्रथम 1977 में, द्वितीय 1999 में, तृतीय 2012 में प्रकाशित हुए। इस शृंखला का अंतिम और चौथा भाग हाल ही में प्रकाशित (2019) हुआ है। कृष्णा सोबती ने ’हशमत’ को सिर्फ़ एक उपनाम के रूप में ग्रहण नहीं किया था, बल्कि वह अपने आप में एक सम्पूर्ण व्यक्तित्व है। कृष्णा जी ने स्वयं कहा है कि जब वे ‘हशमत’ के रूप में लिखती हैं तो न सिर्फ़ उनकी भाषा, और शब्द–चयन कुछ अलग हो जाते हैं, इनका हस्त-लेख तक कुछ अलग हो जाता है। 

‘हशमत‘ का विषय उनके समकालीनों, साथी लेखकों के अलावा गोष्ठियों, पार्टियों में हुए उनके अनुभव और समसामयिक मुद्दों पर उनकी प्रतिक्रियाएँ हैं। ‘हम हशमत‘ के इस चौथे भाग में राजेन्द्र यादव और असद जैदी पर उनके आलेखों के अलावा इस समय के कुछ विवादों पर उनकी प्रतिक्रियाओं को प्रस्तुत किया गया है। साहित्य, लेखक की अस्मिता और संस्कृति से संबंधित उनके कुछ पठनीय आलेख भी इस भाग में शामिल किए गए हैं। देश के वर्तमान राजनीतिक और सामाजिक पर्यावरण से कृष्णा जी बहुत क्षुब्ध और निराश रहीं हैं, लोकतन्त्र के भविष्य की चिंता उन्हें बार-बार सताती है। इसकी छवियाँ ‘हम हशमत‘ के चौथे भाग में मुखर होकर सामने आई हैं।

कृष्णा सोबती ने समकालीन परिस्थितियों के बीच अपने सह-रचनाकारों, कलाकारों और अपने इष्ट चिंतकों के जीवन के बौद्धिक, सामाजिक एवं मानवीय पक्ष पर अपनी तरह का एक ‘विमर्श‘ (डिस्कोर्स) रचा है। इस नवीन विधा को शब्दबद्ध करने के लिए कृष्णा जी एक नए फ़लक को चुनती हैं जिसका इस्तेमाल आज तक किसी लेखक ने नहीं किया। ‘हम हशमत‘ एक वैचारिक शृंखला है जो बेतरतीब और बिखरी हुई कथन शैली में अनायास पैदा हुई निडर अभिव्यक्ति है। कृष्णा सोबती बेख़ौफ़ हैं, अनेक संदर्भों में जब वह आरोपी रचनाकारों से उनके किए पर जवाब तलब करती हैं। ‘हशमत‘ नामक एक अदृश्य पर्यवेक्षक का जामा ओढ़कर ‘अन्य पुरुष‘ शैली में वह रचनाकारों, पत्रकारों, संपादकों और अपने इष्ट मित्रों के आचरण और व्यवहार की पड़ताल करती हैं, उनके अच्छे –बुरे कृत्यों की बेबाक आलोचना करती हैं, नसीहतें देतीं हैं और जवाब तलब करती हैं। 

इस दौरान वह कहीं-कहीं संस्मरणात्मक शैली अख़्तियार करती हैं। ‘हम हशमत’ के चारों खंड कृष्णा सोबती के संस्मरणात्मक लेखों, आत्माभिव्यक्तियों, साक्षात्कारों तथा व्यक्तियों के शब्द चित्रों का कोलाज हैं। कृष्णा जी  स्वयं को ‘हशमत’ नामक एक अन्य पात्र के रूप में गढ़ लेती हैं और अपनी समझ से हिंदी साहित्य जगत की नामी-गिरामी हस्तियों के शब्द चित्रों को निर्मित करती हैं। 

‘हम हशमत‘ जब सन् 1977 में प्रकाशित हुआ तब हिंदी संस्मरण साहित्य में ‘हशमत‘ नामक एक कल्पित पात्र प्रकट हुआ जो तटस्थ भाव से चयनित विभूतियों के व्यक्तित्व, कृतित्व और उनके आचरण की आलोचनात्मक व्याख्या प्रस्तुत करने लगा। साहित्य जगत ने इस प्रयोग को बहुत सराहा। हशमत के कथन (नेरेशन) की भाषा और शैली ने हिंदी जगत में लोगों का ध्यान आकर्षित किया। वक़्त के उस पड़ाव पर किसी को यह अनुमान नहीं था कि हशमत आगे के सालों में भी सक्रिय बने रहेंगे और वह हमराही और हमराज़ बनकर और भी कई साहित्य मित्रों की चारित्रिक शल्यक्रिया करेंगे। ‘हम हशमत’ बोलते शब्द चित्रों की एक घूमती हुई रील है। एक विस्तृत जीवन फ़लक जैसे घूमता है और सामने एक के बाद एक चित्र उभरते जाते हैं – साफ़ और जीवंत, और अंत में जब पूरी रील घूम जाती है तो एक कथा अपने आप बुन जाती है। एक लंबी चित्र-कथा, जिसमे हर चित्र घटना है और हर चेहरा नायक। चुने हुए इन चेहरों में विख्यात लेखक हैं, पत्रकार हैं और अन्य आत्मीय जन हैं जिनमें से बहुतेरे हम सबके परिचित हैं। ‘हशमत’ को जीवन के सही और संपूर्ण मूल्यों की शिनाख़्त करने की बेचैनी है। अंतरंग बातचीत और अपनी तटस्थ दृष्टि के ज़रिए वे साहित्य के वास्तविक संदर्भों को खोजना चाहते हैं, वैचारिक गुत्थियों और व्यवस्थामूलक पेचीदगियों को सुलझाना चाहते हैं। ‘हम हशमत‘ के पहले खंड के अंत में जब ‘हशमत‘ अपना परिचय भी दे देते हैं तो पाठकीय जिज्ञासा सुखद विस्मय में बदल जाती है क्योंकि ‘हशमत‘ के रूप में स्वयं कृष्णा सोबती हैं जिन्होंने ‘हम हशमत’ जैसी समर्थ रचना द्वारा सिद्ध कर दिया कि वह एक सिद्धहस्त कथाकार के साथ साथ रचनादृष्टि संपन्न शब्द चित्रकार भी हैं। ‘हशमत‘ की जिज्ञासा ‘हम हशमत’ के एक खंड से समाप्त नहीं होती इसलिए यह सिलसिला जारी रहता है। यह जिज्ञासाओं का दौर ‘हम हशमत’ के दूसरे, तीसरे और चौथे खंड तक चलता जाता है। ‘हम हशमत’ में संस्मरण और जीवंत अनुभवों के रचनात्मक बोध के साथ-साथ कृष्णा सोबती की चिंतन की अनेक सरणियाँ समानान्तर प्रवाहित होती हैं। ‘हम हशमत’ के चारों खंडों में कृष्णा सोबती के सामाजिक सरोकार स्पष्ट रूप से प्रकट हुए हैं।

कृष्णा सोबती ने इस विधा में अपने समकालीनों को विषय बनाया। इस अर्थ में वे उनकी स्मृति के नहीं प्रत्याक्षानुभव के विषय हैं। कुछ उनके हमउम्र और हमसफ़र हैं। इनमें से ‘हम हशमत’ के पहले भाग में निर्मल वर्मा, भीष्म साहनी, कृष्ण बलदेव वैद, अमजद भट्टी, महेंद्र भल्ला, जैसे कथाकार, नागार्जुन जैसे कवि और दूसरे भाग में साहित्य की नामचीन हस्तियों में नामवर सिंह, अज्ञेय, अश्क, नेमिचन्द्र जैन, मंटो, बलवंत सिंह, राजेन्द्र सिंह बेदी, उमाशंकर जोशी, कमलेशर जैसे वरिष्ठों के साथ अपेक्षाकृत कम उम्र के अशोक वाजपेयी, प्रयाग शुक्ल, गोविंद मिश्र, मनोहर श्याम जोशी, मंजू एहतेशाम, सत्यने कुमार, स्वदेश दीपक, नासिरा शर्मा और गोविंद मिश्र जैसे रचनाकार शामिल हैं। सिर्फ़ लेखक बिरादरी के लोग ही नहीं शीला संधू और अरविंद कुमार जैसे प्रकाशक मित्रों और कन्हैयालाल नन्दन जैसे लेखक-संपादक ने भी इन संस्मरणों में जगह पाई है। इनमें कुछ नाम ऐसे भी हैं जिन पर अलग-अलग कारणों से कुछ कहना कृष्णा जी को ज़रूरी लगा। इनमें मंटो पर एक संक्षिप्त लेख, बलवंत सिंह और राजेन्द्र सिंह बेदी के महत्व की तरफ इशारा और एक बातचीत के हवाले से ‘उमाशंकर जोशी‘ की वैचारिकता के एक पक्ष पर रोशनी डालने की कोशिशों का उल्लेख किया जा सकता है। इन संस्मरणों को लिपिबद्ध करने के लिए कृष्णा जी ने अपनी निजता को ‘हशमत’ नाम के एक नाट्य चरित्र की भूमिका में ढाल लिया। यह युक्ति ‘विषय‘ से एक दूरी और तटस्थता बनाए रखने के लिए इस्तेमाल की गई है। प्रकारांतर से ‘हशमत’ लेखकीय जगत में उनका पर्याय हो गए। इन संस्मरणों में उनके कथाकार व्यक्तित्व के साथ आलोचक का भी सुखद मेल हो गया है। 

कृष्णा जी पुरुष सत्ता द्वारा निर्मित असहिष्णु साहित्य-समाज में एक पुरुष (हशमत) का बाना धरकर अपने समकालीनों के माध्यम से इस शती पर फैले हिंदी साहित्य समाज का वैचारिक विमर्श प्रस्तुत करती हैं। 

‘हशमत‘ के तीसरे खंड में शामिल हैं- सत्येन कुमार, जयदेव, निर्मल वर्मा, अशोक वाजपेयी, देवेन्द्र इससर, निर्मला जैन, विभूतिनारायण राय, रवीन्द्र कालिया, शंभुनाथ, गिरिधर राठी, आलोक मेहता और विष्णु खरे।

अपने समकालीनों की साहित्यिक, सामाजिक एवं राजनीतिक गतिविधियों पर ’हशमत’ की दृष्टि सतर्कतापूर्ण है। यह सतर्कता कृष्णा जी की रचनात्मकता को नया आयाम प्रदान करता है।कृष्णा जी ने स्वयं कहा है कि जब वे ‘हशमत’ के रूप में लिखती हैं तो न सिर्फ़ उनकी भाषा और शब्द चयन कुछ अलग हो जाते हैं, उनका हस्तलेख तक अलग हो जाता है। उन्होंने इस कार्य के लिए ‘हशमत’ को केवल एक उपनाम की तरह ग्रहण नहीं किया बल्कि वह अपने आप में एक संपूर्ण व्यक्तित्व है। 

‘हम हशमत‘ के तीसरे भाग में विभूतिनारायण राय पर रचित शब्दचित्र विशेष ध्यान आकर्षित करता है। कृष्णा जी ने बेबाकी से परोक्ष एवं प्रत्यक्ष रूप से ‘नया ज्ञानोदय‘ के ‘बेवफाई विशेषांक‘ में प्रकाशित विभूतिनारायण के इंटरव्यू से साहित्य जगत में उत्पन्न भूचाल के लिए संपादक और विभूतिनारायण, दोनों को कठघरे में खड़ा किया। ‘बाज आए मुहब्बत से उठा लो पानदान अपना‘ शीर्षक से लिपिबद्ध इस चारित्रिक शब्दचित्र में विभूतिनारायण राय की हिंदी लेखिकाओं के प्रति अभद्र और क्षुद्र दृष्टि उपर्युक्त इंटरव्यू में झलकती है, कृष्णाजी उसकी तीखी भर्त्सना करती हैं। इस शब्द चित्र की भाषा शैली विशेष आकर्षण का विषय है। ‘हशमत’ का उर्दू भाषा प्रयोग विषय में व्यंग्यात्मक प्रहार के लिए सटीक लगता है। जिस तरह से विभूतिनारायण अपनी पुलिसिया ताक़त और राजनीतिक हल्कों में अपने दबदबे की हैसियत से, लेखिकाओं के आक्रामक विरोधी तेवर के बावजूद, अपने पद को खोने की कगार पर पहुँचकर भी स्वयं को बचाकर ले गए, इस पर कृष्णा जी ने विभूतिनारायण राय के अनैतिक आचरण की पुरज़ोर भर्त्सना की है। उनके तीखे तेवर की एक मिसाल प्रस्तुत है – “आपके पाक-साफ़ नामवाली मशहूर हस्ती के साथ जो हादसा हो गुज़रा है उसके लिए तो न अफ़सोस ज़ाहिर किया जा सकता है, न मुबारकबादियाँ दी जा सकती हैं और न ही प्रेमचंद की गवाही के साथ मामला रफा-दफा होने पर जनाब की ज़िंदाबादियाँ ही बुलाई जा सकती हैं।“ 

 ‘हम हशमत’ के चौथे (अंतिम) भाग में असद जैदी और राजेन्द्र यादव पर उनके आलेखों के अलावा इस समय के कुछ विवादों पर उनकी प्रतिक्रियाएँ शामिल हैं। इसमें साहित्य, लेखक की अस्मिता और संस्कृति से संबंधित उनके विशेष आलेख संकलित हैं। देश के वर्तमान राजनीतिक और विखंडित सामाजिक ध्रुवीकरण के माहौल से कृष्णा जी क्षुब्ध, उद्विग्न और निराश हुई हैं। भारतीय लोकतंत्र की बहुमूल्य समन्वयवादी परंपरा पर प्रहार उन्हें उद्वेलित करता है। उनके विचार इस संदर्भ में प्रखरता से प्रतिबिंबित हुए हैं। इस भाग में राजेन्द्र यादव, असद जैदी, नामवर सिंह और वाचस्पति पाठक से जुड़े संस्मरण मौजूद हैं। गिरिराज किशोर के उपन्यास ‘यथा प्रस्तावित‘ पर सामयिक परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में आलोचनात्मक दृष्टि प्रस्तुत की गई है। हिंदी पत्रकारिता जगत में राजेन्द्र यादव द्वारा संपादित ‘हंस‘ का स्थान अतिविशिष्ट है। राजेन्द्र यादव ने लेखक की अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के अधिकार से कभी समझौता नहीं किया। धार्मिक और सांप्रदायिक फतवों पर उन्होंने निडर टिप्पणियाँ कीं और बहस के लिए पक्ष और विपक्ष को चुनौती दी। राजेन्द्र यादव ने स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद शक्ति गलियारों के प्रभुत्व की ओर दौड़ती राजनीति की खलबलाहट को जिस तरह सर्जानात्मक वैचारिकता में ढालने का प्रयत्न ‘हंस‘ में किया, वह हमारी बौद्धिक बिरादरी की उत्तेजनाओं को अंकित करने को ही लक्ष्योन्मुख था। राजेन्द्र यादव की हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं के अंतर-संबंध के विषय में प्रतिपादित समन्वयात्मक धारणा की कृष्णा जी प्रबल समर्थक थीं। राजेन्द्र यादव नई पीढ़ी के नए प्रतिभावान लेखकों को तलाशने में कोई कसर नहीं छोड़ते थे, इस बात को कृष्णा जी बख़ूबी जानती थीं और वह राजेन्द्र जी के इस प्रयत्न की प्रशंसक थीं। राजेन्द्र यादव ने हिंदी के नए महत्वाकांक्षी लेखक समूह को, सुदूर क़स्बों, शहरों, महानगरों से उभरते युवा हिंदी समाज को ‘ हंस‘ में प्रतिष्ठित किया। कृष्णा सोबती के आकलन से यह स्पष्ट होता है कि नए ताज़ा लेखकों का ख़ासा जमावड़ा ‘हंस’ से प्रोत्साहित होता रहा और आलोचना की क्षेत्रीय और पारिवारिक संगतियों में पनपता गया। राजेन्द्र यादव में प्रतिद्वंद्वियों से उलझने का एक विलक्षण हुनर विद्यमान था जिसके बल पर वे अपने कट्टर आलोचकों और विरोधियों से स्वेच्छा से भिड़ जाते और विजयी होते। राजेन्द्र यादव के द्वारा प्रतिष्ठापित ‘हंस‘ के साहित्यिक अवदान के प्रति कृष्णा जी अपने उद्गार व्यक्त करती हैं – “उपन्यास सम्राट प्रेमचंद जी कि अर्जित संपदा को पहचानने की निगाहबानी यादव के पास थी। नहीं तो शायद आज हम ‘हंस‘ का प्रकाशन न देख पाते। दोनों (प्रेमचंद और राजेन्द्र यादव) का गहरा विश्वास था कि देश की अन्य भाषाओं की भावनात्मक और बौद्धिक भाषायी निधि की साझी संस्कारिता से ही राष्ट्रभाषा का विस्तार होगा। हिंदी साहित्य के इन ऐतिहासिक प्रतीकों की दूरदर्शिता के प्रति हम कृतज्ञ हैं।“ 

हिंदी कवि असद जैदी की राष्ट्रवादी काव्य चेतना का बहुत ही मार्मिक संस्मरण है – सावधान प्यारो, हिंदुस्तान हम सबका है! कृष्णा सोबती भावुकतापूर्ण शब्दों में असद जैदी के जीवन संघर्ष पर प्रकाश डालती हैं। वह इस देश में संविधान के अनुसार जो बराबरी का अधिकार सभी नागरिकों को प्राप्त है उसके साथ जिस तरह की छेड़छाड़ की जा रही है उसकी ओर संकेत करती है। असद जैदी की क़लम से लिखी गई हर कविता में यह आवाज़ गूँज रही है। असद को उनके अब्बा ने दिल्ली पढ़ने के लिए जब भेजा तो असद को जेएनयू के भाषा विभाग में रशियन में दाख़िला मिला। असद ने जेएनयू में एक पूरे हिंदुस्तान को बसा हुआ पाया। हिंदी उर्दू का संगम वहाँ की भाषा संस्कृति की मूल विशेषता रही है। असद ने इसी भाषिक संस्कार को अपनाया। कृष्णा जी असद जैदी के काव्य संग्रह ‘बहनें‘ का ज़िक्र करती हैं जिसके लिए असद पुरस्कृत होते हैं भारत की सुप्रसिद्ध नृत्यांगना लीला सैम्सन के साथ। मौजूदा परिवेशगत संदर्भ में कृष्णा जी के विचार महत्वपूर्ण हैं - “भारत का संस्कारी स्रोत न किसी एक धर्म का है, न एक संप्रदाय का। न किसी एक जाति का। सावधान! हिंदुस्तान हम सबका है। कुदरत ने जो महिमामयी सीमाएँ हमारे महादेश को बख्शी हैं वे इसके सांस्कृतिक मनोभाव और स्थापत्य में एकत्व और विविधता के संस्कारों को शताब्दियों तक प्रवाहित करती रहेंगी।“

कृष्णा सोबती के लेखन में हिंदी, उर्दू का घालमेल बहुत सहज और स्वाभाविक दिखाई देता है। पाकिस्तान की सरहदों के साथ यहाँ के पंजाब प्रांत की पंजाबी और ख़ालिस देशज सीमावर्ती भाषाओं और बोलियों पर कृष्णा जी की पकड़ अद्भुत है। उनके कथा और कथेतर साहित्य में इन तमाम बोलियों के अनगिनत बिंब उभर उभर कर आते हैं। इसलिए वह अपील करती हैं – “उर्दू और उर्दू शब्दों को पराई आँखों से न देखिए। बहुत वक़्त गुज़र गया इन दोनों हिंदी, उर्दू भारतीय भाषाओं को एक दूसरे में मिलकर भारतीय भाषायी संसार को सुघड़ता से भारतीय कृतियों का विस्तार करते।“ 

कृष्णा सोबती की सामाजिक और राजनीतिक सरोकारी दृष्टि, उनकी इतने बरसों की साहित्य साधना का निचोड़, शेष वैचारिक लेखों में प्रस्फुटित हुआ है। ‘लोक की प्रतिष्ठा में ही लेखक का गणतन्त्र है‘ आलेख में कृष्णा सोबती भारतीय गणतन्त्र में लोक की प्रतिष्ठा को सर्वोपरि मानती हैं। लेखकीय स्वतन्त्रता गणतन्त्र की सफलता का मापदंड है। अभिव्यक्ति की स्वेच्छा और स्वतन्त्रता के प्रति जो वर्तमान वातावरण निर्मित किया गया है, उसके प्रति कृष्णा जी न केवल चिंतित हैं अपितु उसका वह खुलकर प्रतिरोध करती हैं। उनकी दृष्टि में इस शताब्दी ने भारतीय लोकतान्त्रिक मूल्यों, आस्थाओं और विश्वासों को आश्वस्त किया है जिसे तहस-नहस करने का षडयंत्र रचा जा रहा है। लोक की महत्ता को नकारा जा रहा है। भारत की बहुआयामी भाषिक संस्कृति के प्रति वह नतमस्तक हैं । कृष्ण जी भारतीय भाषा परिवार के लेखकीय अवदान से संतुष्ट हैं क्योंकि इन लोगों ने ज़िम्मेदारी से समाज में घटित होते परिवर्तनों पर अपनी दृष्टि केन्द्रित की है और इन परिवर्तनों के परिणामों से समाज को आगाह किया है। वह साहित्य के उद्देश्य को परिभाषित करती हैं। कृष्णा जी को लेखक की ईमानदारी पर भरोसा है। उनके विचार से सर्जक का जन्म पाना मानवीय जन्म का अलौकिक पुरस्कार है जो कदाचित पिछले जन्म का पुण्य होगा। स्वयं को कवियों की तुलना में कमतर आँकना कवियों के प्रति कृष्णा जी के विनम्र श्रद्धाभाव का प्रतीक है। लोकतान्त्रिक राजनीतिक सामाजिक ढाँचे में लेखक को लिखने की स्वेच्छा बिना किसी शर्त के उपलब्ध होती है और वह इसे अपनी सोच के अनुरूप सृजन में ढालता है। इस निबंध में कृष्णा जी के ‘भाषा‘ के प्रति विचार दृष्टव्य हैं - “भाषा इस लोक की जीवंतता का रोमांस है।“ भाषा में प्रकृति और समस्त संसार का संवेदन निहित है। यह सच है कि ऐसा कुछ भी नहीं जिसे शब्द न व्यक्त कर सकें। जीवन और मरण को शब्दों की सत्ता से माप लेते हैं। कृष्णा जी भारतीय भाषा परिवार में समाहित देश की आत्मिक एकता और निजता के भाव को आसानी से पकड़ लेती हैं। भारतीय भाषाओं के विशाल परिवार में उपस्थित हर भाषा अपनी निजता को अनेक रूपों और शैलियों में प्रस्तुत करती हैं। भारत की हर छोटी बड़ी भाषा अपनी विविधता में उसी केंद्रीय इकाई को प्रस्तुत और तरंगित करते हैं जिसे हम भारतीयता के नाम से पुकारते हैं। वर्तमान संदर्भ में लेखक को स्वायत्तता का प्रश्न बेचैन कर रहा है – कृष्णा जी इस स्थिति का संज्ञान लेती हैं। कृष्णा जी का यह दृढ़ अभिमत है कि साहित्य कभी नियंत्रित नहीं होता और न ही इसे किया जा सकता है। आज जब लेखक की विचारधारा पर असहमति के औज़ार से हमला कर उसकी आवाज़ को ख़त्म करने की साज़िश रची जा रही है तो कृष्णा जी इस बदलते आक्रामक माहौल के प्रति चिंता व्यक्त करती हैं। इतिहास भी साहित्य का अभिन्न हिस्सा है, यह एक निर्विवाद सत्य है। साहित्य की सीमाओं में इतिहास की प्रामाणिकता और पौराणिकता दोनों एक दूसरे के विरोध में एक दूसरे का अतिक्रमण करने की कोशिश करते हैं। इतिहास से छेड़छाड़ करने की कोशिश को कृष्णा जी स्वीकार नहीं करतीं। उनके अनुसार “इतिहास सिर्फ़ वह नहीं जो हुकूमतों के प्रमाणों और दस्तावेज़ों के साथ व्यवस्था के खातों में दर्ज है। इतिहास वह भी है जो लोक-मानस की भागीरथी के साथ-साथ बहता है, पनपता है, और जनमानस के सांस्कृतिक पुख़्तापन में ज़िंदा रहता है।“ जिस तरह से मौजूदा राजनीति ने देश को अनेक टुकड़ों में बाँट दिया है ख़ासकार अमीर और ग़रीब, शिक्षित और निरक्षर, धर्म और मज़हब, संप्रदाय और आस्था-अनास्था, शक्तिशाली और कमज़ोर। दलित एवं वंचित समुदायों को जिस तरह संगठित ढंग से हाशिये पर धकेला जा रहा है, इन स्थितियों से कृष्णा सोबती का विचलित होना जायज़ है। “धर्म निरपेक्ष राष्ट्र होने के नाते जो एक दूसरे के नज़दीक थे, वह अब एक-दूसरे के ख़िलाफ़ बनते हैं। “ कृष्णा जी आगाह करती हैं – “हमें सावधान होना होगा। साहित्य में भी इसकी बाँट शुरू है। हिंदू लेखन, मुस्लिम लेखन, हिन्दुत्व लेखन, महिला लेखन, ब्राह्मण लेखन, ठाकुर लेखन, और न जाने कितने कितने कुल गोत्रों के लेखन।“ उपर्युक्त विभाजन सृजन की भावना और साहित्य के उद्देश्य को निरस्त करता है। इस देश के नागरिकों के लिए यह आवश्यक है कि “वे राजनीतिक दलों की नीतियों, कूटनीतियों और कुटिल नीतियों से अलग अपने में तालीम जगाएँ इस बड़े राष्ट्र भारत की भारतीयता को जीने की।“ कृष्णा सोबती ने अपने मन की बात इस निबंध में स्पष्ट कर दी है – “आज नागरिक को ऐसी सरकार चाहिए जो सामाजिक विभिन्नताओं और राजनीतिक विषमताओं को दूर कर बड़े राष्ट्र का वजूद सुदृढ़ करे। राजनीतिक दलों के आपसी विरोध-गतिरोध को अलग रख राष्ट्रीय अस्मिता के मानदंड क़ायम कर सके।“ 

साहित्य जगत कृष्णा सोबती के स्त्रीवादी औपन्यासिक कृतियों में उनके स्त्री पात्रों के जीवन में व्याप्त शोषण के प्रसंगों से भली भाँति परिचित हैं। उनके अनुसार पितृपक्ष को स्त्रीपक्ष की नई भाषा, नया संस्कार सीखना होगा क्योंकि परिवार की निर्णायक शक्ति की बाँट स्त्री तक अगर नहीं पहुँच सकी तो पहुँचने वाली है। उसे हमारा संविधान वही अधिकार देता है जो आपको प्राप्त है। शिक्षा, क़ानून और स्त्री की आर्थिक स्वतन्त्रता उसे पुरुष की बराबरी के उकसाती है। उसने अपनी लोच और अनुभव के बल पर यह प्रामाणित किया है कि वह कार्यकारी क्षमता में पुरुष से कम नहीं। नारी अस्मिता और स्त्री मुक्ति से जुड़े आंदोलनों को भारतीय परिवेश में समझना ज़रूरी है। देवी दुर्गा का दर्जा देकर हमने उसका मनोविज्ञान बादल दिया है। उसकी मानसिकता, देशभाषा, आत्मविश्वास, सब पितृसत्ता द्वारा संचालित होते हैं। वह हमेशा से दूसरों के लिए दूसरों के निमित्त ही हुई है। उसे इस चौखटे के सांस्कृतिक चंगुल से निकलना होगा। एक व्यक्ति की हैसियत से समाज में अपने को स्थापित करना होगा। ख़ुद की निगाह से देखना होगा अपने को, अपने को प्रामाणित करने के लिए ऐसा करना न मात्र विद्रोह है और न पितृसत्तात्मक ढाँचे पर प्रहार। 

कृष्णा सोबती एक सशक्त स्त्री पक्षधर कथाकार होने के साथ-साथ सामाजिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक परिवर्तन की प्रखर आलोचक रहीं हैं। उन्होंने भारतीय जीवन को उसकी समग्रता और परिपूर्णता में आकलित किया है। भारतीय जीवन विधान में व्याप्त समकालीनता और सनातनता के बीच छिड़े संघर्ष के प्रति भी वह जागरूक हैं और संतुलन और समन्वय का मार्ग सुझाती हैं। इंक़लाब ज़िंदाबाद की स्थिति से निकलकर हम एक सुदृढ़ संवैधानिक शासन तंत्र विकसित कर चुके हैं। कृष्णा जी इस विषय पर निष्कर्ष रूप में कहती हैं कि “ध्यान रहे कि इस संवैधानिक शासन तंत्र में इस महादेश का साहित्य और साहित्यकार अपने विचार में नियंत्रित नहीं किया जा सकता। उस पर क़ब्ज़ा नहीं किया जा सकता। ‘लोक‘ की प्रतिष्ठा में हमारा लोकतन्त्र है और हम लेखकगण लोकतन्त्र में विश्वास रखते हैं।“ 

कृष्णा सोबती, वर्तमान संदर्भ में लेखक की प्रासंगिकता पर विचार करना अपना कर्तव्य समझती हैं। राजेन्द्र यादव का वह अनेक स्थलों पर उल्लेख करती हैं क्योंकि राजेन्द्र यादव ‘हंस‘ के संपादकत्व काल में लेखकीय दायित्व एवं उसकी प्रसगिकता पर अक्सर चर्चा किया करते थे। जो सवाल कृष्णा जी के मस्तिष्क में उठते हैं उनमें पहला सवाल है – “क्या लेखक का लेखक होना ही लेखकीय प्रासंगिकता की पहली और मुख्य शर्त नहीं?“ वह लेखक की प्रतिबद्धता के कारकों की पड़ताल करना चाहती हैं। वह आज की औद्योगिक संस्कृति से लेखक को सावधान करती हैं। उनकी दृष्टि में जिस रूप में वर्तमान औद्योगिक युग में सामाजिक संस्थाओं, आर्थिक विषमता और सामूहिकता ने जिस संस्थागत मानव को जन्म दिया है वह लेखकीय व्यक्तित्व को समूल नष्ट कर देने की क्षमता रखता है। कृष्णा सोबती का यह पर्यवेक्षण सही साबित होता है जब वह कहती हैं कि “ज़ाहिर है हम सब लेखक, किसी भी देश के हों, एक संक्रांति काल से गुज़र रहे हैं। आज किसी इंजीनियर, डॉक्टर, वकील। कंपनी मैनेजर, कंपनी मालिक, उद्योगपति, ब्यूरोक्रेट - वे सब पेशे जो विशेषज्ञों की सूची में आते हैं, अपने अपने काम में मसरूफ़ हैं। लेखक इस सूची से बाहर है।“ यह एक विचारणीय प्रश्न है कि क्या वास्तव में लेखक आज हाशिए पर चला गया है? भारत में लेखकीय कार्य चाहे वह पूर्ण-कालिक ही क्यों न हो, फिर भी उसे पेशे का दर्जा हासिल नहीं है। इसके बावजूद देश भर में फैले लेखकों का विशाल  समुदाय इस बात का प्रमाण है कि आर्थिक रूप से हाशिए के बाहर का आदमी होते हुए भी, साधारण दिखने वाले लेखक ने अपने लेखक होने के अहसास को, अपने लेखन से प्रतिबद्ध रहते हुए विश्वास की गहराई से जिया है,। 

 कृष्ण सोबती ‘हम-हशमत’ के चौथे भाग में संस्मरण लेखन की अपेक्षा अपनी वैचारिक भावभूमि को स्पष्ट करने के लिए राष्ट्रीयता से जुड़े सवालों और विवादों पर गंभीरता से चर्चा करती हैं। कृष्णा जी की चिंतन प्रणाली भारत के वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य की पृष्ठभूमि में सार्थक लगती है। यह विडंबना ही है कि अपने इस वैचारिक संघर्ष के प्रभाव को जाने बिना ही वह इस दुनिया से चल बसीं। ‘राष्ट्र की साहित्यिक संस्कृति नागरिक समाज की थाती है‘ शीर्षक से कृष्णा जी लेखक की स्वायत्तता में सरकार की दख़ल को स्वीकार नहीं करतीं हैं और वह इसका तीव्र विरोध करती हैं। साहित्य का मुख्य स्वर प्रतिरोध भी है। यह प्रतिरोध लेखक की स्वतंत्र अभिव्यक्ति से उद्भूत परिणाम हो सकता है। इस संदर्भ में कृष्णा जी के विचार दृष्टव्य हैं – “मानवीय चेतना की आंतरिक स्वायत्तता लेखक की अर्जित निधि है। इसे संभव बनाने और जीवित रखने वाली कोई भी अच्छी सार्वभौमिक रचना पात्रों के इकहरे छायाचित्रों से नहीं, टकराहटों से होकर उभरती हैं और कथ्य की बुनावट और बनावट में घुलमिल जाती है।“ कृष्णा जी लेखक के निकट अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को सर्वोपरि मानती हैं क्योंकि उसी में उसकी सृजन शक्ति स्थित रहती है। लोकतन्त्र में लेखक की अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता में सत्ता का हस्तक्षेप स्वीकार्य नहीं होता, कृष्णा सोबती इस विचार की प्रबल समर्थक हैं। सन् 2016 में सरकारी सहायता प्राप्त एक संस्था को अपनी पत्रिकाओं के प्रकाशन के लिए यह शपथ-पत्र भरने के लिए कहा गया कि उनकी पुस्तक या पत्रिकाओं में भारत सरकार की नीतियों या राष्ट्रनीतियों के ख़िलाफ़ कुछ नहीं हो। इस संदर्भ में कृष्णा सोबती की प्रतिक्रिया दृष्टव्य है – 

"आख़िर कोई भी राजनीतिक दल अपने को भारतीय संस्कृति का अलमबरदार क्यों समझ बैठे। वह किसी राजनीतिक दल की पूँजी नहीं। राष्ट्र की संस्कृति किसी भी राजनीतिक दल की बपौती नहीं। वह नागरिक समाज की थाती है। यह विरासत उन्हीं से उपजी है और उन्हीं में प्रवाहित होती है।" वह स्पष्ट रूप से सत्ता-तंत्र की उन नीतियों का विरोध करती हैं जो लोगों को विभाजित करने वाली रणनीतियाँ बनाती है। उनके अनुसार यह रणनीतियाँ न सिर्फ़ लोकतन्त्र के ख़िलाफ़ सिद्ध होंगी बल्कि वह आने वाली पीढ़ियों और उनके भविष्य के लिए भी ख़तरनाक होंगी। 

कृष्णा जी लेखक, सत्ता, संस्कृति और नागरिक के अंतर-संबंधों की पड़ताल, मौजूदा राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में करती हैं। इस संदर्भ में उनकी चिंताएँ अनेक हैं। देश काल की स्थितियों पर निर्विराम कृष्णा जी की दृष्टि बनी रहती है। देश की समसामयिक राजनीतिक विचारधाराओं की टकराहट, देश में बदलता इतिहास बोध, देश में बढ़ते सांप्रदायिक वैमनस्य एवं अल्पसंख्यक समुदायों में बढ़ती असुरक्षा और अलगाव के माहौल के प्रति देश हित में कृष्णा जी अपने विचार प्रकट करती हैं। सांप्रदायिक और धार्मिक उन्माद से उत्पन्न अराजक स्थितियाँ जो प्रच्छन्न रूप से आज समाज में हावी हो रही हैं, उन्हें समझने की आवश्यकता है। इतिहास और पौराणिकता में भेद करना आवश्यक है। इस संदर्भ में उनकी टिप्पणी ध्यातव्य है – “इतिहास पौराणिकता नहीं और पौराणिकता को इतिहास कहकर धर्म समुदाय से नत्थी करना भारत के सांस्कृतिक इतिहास का उपहास करना है। हम जिस अतीतोन्मुखी इतिहास की ओर देख रहे हैं और उसे मनमाने ढंग से गढ़-पढ़ रहे हैं। उसका मूल एक वैभवशाली भारतीय अतीत के नाम पर इतिहास के नए पन्नों में फरफरा रहा है। आज के जटिल समयों में जन-मानस को ग़लत उत्तेजनाओं से विषाक्त करना लोकतान्त्रिक ढाँचे में गहरी दरारें डालने से कम नहीं। कोई भी धर्म संप्रदाय हो, जीवन-मूल्यों की उदासीनता उसकी नैतिक संहिता को विरोधाभासों में बदल देती है।“ कृष्णा सोबती के विचार से सांप्रदायिक सक्रियता और सत्ता द्वारा सांप्रदायिक ध्रुवीकरण निश्चय ही विभिन्न जातियों, धर्म-पंथों को विभाजित करेगा। वह सवाल करती हैं कि - मात्र हिन्दुत्व अभियान लोक की वैयक्तिक और सामूहिक चेतना को कैसे प्रतिष्ठित करेगा? क्या कोई सांप्रदायिक संगठन संपूर्ण भारतीय समाज का प्रतिनिधित्व कर सकता है? जो कर सकता है, वह है भारत का राष्ट्रीय संविधान। क़ानून। उनकी राय में संस्कृति को नागरिकों के लिए छोड़ देना चाहिए। संस्कृति नागरिकों के जीवन विधान से निर्मित होती है। भारतीय जन-जीवन में जितनी विविधता है उतनी उसकी संस्कृति भी उसी रूप में सामासिकता को धारण किए हुए है। कृष्णा सोबती इसी विचारधारा की पक्षधर हैं। वह स्वीकार करती हैं कि भारतीय समाज एकरूप नहीं – नाना रूप हैं। धर्म को तर्क बनाकर एक साथ गाँव, क़स्बा, शहर, देश, राष्ट्र, वतन, क्षेत्र को विभाजित करने में किन राजनीतिक अपेक्षाओं को हम सच करना चाहते हैं, यह जानना हर नागरिक का अधिकार है। कृष्णा सोबती का राष्ट्रवाद भारत के लोक में बसता है। भारत जैसे लोकतन्त्र में भारतीय लोक सर्वोपरि है। उसने संवैधानिक अधिकारों के बल पर पुरानी निरीहता और बेचारगी का अतिक्रमण किया है। समाज में लोकतान्त्रिक विवेक जगाने की चेष्टाएँ की हैं। हम इसे नष्ट करने के लिए क्यों उतारू हैं? कृष्णा सोबती के शब्दों में – “किसी भी धर्म द्वारा धर्म का आतंक फैलाना भारतीय संविधान के विरुद्ध है। फैलाने वाले बहु-संख्यक हों या अल्पसंख्यक।“ हमें यह कदापि नहीं भूलना चाहिए कि संविधान की जिस धुरी के इर्द-गिर्द नागरिक संस्कृति राष्ट्रीय स्वरूप धारण करती है – वही उसका दिशा निर्देश भी करती है। भारतीय संस्कृति और बदलते मूल्यों के संदर्भ में कृष्णा जी नैतिकता के पुराने चुक गए मूल्यों का जो रूप हमारी जीवन शैली ढोए जा रही है – उनके क्रमिक विघटन और अवमूल्यन की स्थितियों पर विचार करती हैं। आधुनिक संदर्भ में उभरते और छिन्न-भिन्न होते स्त्री-पुरुषों के संबंधों में एक नया आयाम खुला है। स्त्री की आर्थिक स्वतन्त्रता और बराबरी के तेवर से, तलाक़ के क़ानून ने पुरानी भारतीय विवाह संस्था को गहरा झटका दिया है। नई अर्थ व्यवस्था और चौखट में भारतीय नारी अपने पुराने और नए स्वरूप में ताल-मेल बिठाने के लिए प्रयत्नशील है। इसी के साथ-साथ भारतीय जीवन से जुड़े जन्म-जन्मांतर वाले प्रेम और आसक्ति के अर्थ भी बदले हैं। कृष्णा जी उस भारतीय मानस की प्रशंसा करती हैं जिसने बिना किसी वैचारिक दुविधा के विज्ञान की उपयोगिता और सामर्थ्य को स्वीकार किया है। इसके साथ-साथ दिलचस्प तथ्य यह है कि अगर अंधविश्वासों में कमी आई है तो सामाजिक रूप में धर्म के छोटे बड़े मठ, आश्रम और मठाधीशों की बाढ़ भी आई है। कृष्णा जी आज के मीडिया के संबंध में उस सत्य की ओर ध्यान दिलाती हैं जिसका शिकार समूचा भारतीय लोकतन्त्र है। मीडिया को लोकतन्त्र का चौथा स्तम्भ माना गया है किन्तु जब यह स्तम्भ ही ढहने लगे तो लोकतन्त्र का क्या हश्र होगा? यह परिवर्तन जो एक साथ पूरे देश में उभरा है, वह है ‘मीडिया’ की मदद से प्रस्तुत होने वाला दृष्टिकोण। इस दृष्टिकोण में मिलाजुला झूठ और सच। आज का मीडिया झूठ अधिक और सच कम परोस रहा है। ‘फेक न्यूज़‘ (झूठी ख़बर) का प्रचार करने वाले मीडिया ने देश के जन मानस को प्रभावित किया है। भारतीय मीडिया की विश्वसनीयता आज प्रश्नों के घेरे में है। कृष्णा सोबती के अनुसार राजनीतिज्ञों ने अपना विश्वास और चमक दोनों खोए हैं। एक ख़ास तरह की पैंतरेबाज़ी और संयोग-सुलभता के गलियारे ने हमारे जनजीवन को आतंकित किया है। यहाँ तक कि इस प्रक्रिया में भ्रष्टाचार को सुविधा और सुयोग का नाम दिया गया है, और सही वह है जिससे आपका स्वार्थ जुड़ा है, ग़लत वह है जिससे आपका स्वार्थ नहीं जुड़ा। 

’हम हशमत‘ में संकलित संस्मरणों को पढ़ते हुए एक तिलिस्म की-सी गिरफ़्त में कुछ परिचित, कुछ अल्प-परिचित या अपरिचित व्यक्तियों के साथ नए सिरे से पहचान क़ायम करने का सुख होता है। जिन्हें हम अपने ढंग से जानते पहचानते रहे हैं, उन्हें भी एक दूसरी आँख की रोशनी में नए सिरे से चीह्नना होता है। अपनी पहचान में कुछ सही-ग़लत करते हुए या फिर कुछ ऐसे विस्मय के भाव से कि यह तो हमने जाना या पहचाना ही नहीं था। ‘हम हशमत‘ हमारे समकालीन जीवन-फलक पर एक लंबे आख्यान का प्रतिबिंब है। इसमें हर चित्र घटना है और हर चेहरा कथानायक। ‘हशमत‘ की जीवंतता और भाषायी चित्रात्मकता उन्हें कालजयी मुखड़े के स्थापत्य में स्थित कर देती है। यह कृष्णा सोबती की क़लम की वह तुर्श और तीखी भंगिमा है, जो समय के पेचोख़म में सिर छुपाए बैठे मामूलीपन की आँख में सीधी जाकर लगती है। 

डॉ. एम वेंकटेश्वर 
हैदराबाद। 

संदर्भ ग्रंथ : 

हम हशमत भाग – 1 कृष्णा सोबती (राजकमल प्रकाशन, दिल्ली) 
हम हशमत भाग – 2 कृष्णा सोबती (राजकमल प्रकाशन, दिल्ली) 
हम हशमत भाग – 3 कृष्णा सोबती (राजकमल प्रकाशन, दिल्ली) 
हम हशमत – 4 कृष्णा सोबती (राजकमल प्रकाशन, दिल्ली) 

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