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कृतघ्नता

"सुकून चाहिए तो कमज़ोर इंसानों की मदद करें। यह बहुत सरल तरीक़ा है।" सुबोध जी ने यह सूत्र बचपन में किसी पुस्तक में पढ़ा था। उनकी जवानी और प्रौढ़ावस्था के दिन तो आपाधापी में बीतते रहे पर इधर जीवन के उत्तरार्द्ध में उन्हें इस सूत्र ने सुकून पाने के लिए उकसाना शुरू किया। वजह भी थी। उनकी बेटी विवाह के बाद अपने पति के साथ ऑस्ट्रेलिया चली गई और बेटा उच्च शिक्षा करने के बाद अमेरिका चला गया। ख़ैर, शुरू में तो वे गाहे-बगाहे आसपास रहने वाले कमज़ोर लोगों की मदद करते रहे। लेकिन कुछ वर्ष बाद वे कहीं सड़क के किनारे पेड़ के नीचे सोये एक कृशकाय युवा को रिक्शे में लादकर अपने घर ले आए। उस युवक तरसेम ने उन्हें बताया कि उसका इस दुनिया में कोई नहीं है और उसने ग़रीबी से तंग आकर आत्महत्या की कोशिश भी की। 

बहरहाल, उन्होंने उस युवक को कार चलाना सिखाया और फिर उसका लाइसेंस भी बनवा दिया। कुछ महीनों बाद वह युवक किसी 'टूर और ट्रैवल कंपनी ' में नौकरी पर लग गया। ख़ैर, उसका उनके घर आना-जाना जारी रहा। इस दौरान एक दिन के लिए सुबोध जी किसी काम से कहीं बाहर गए और जब लौटकर आए तो उन्हें घर के किचन में अपनी वृद्धा पत्नी का शव मिला। पुलिस जाँच में पता चला कि उनकी हत्या लूटपाट के इरादे से की गई थी। हत्यारा घर से गहने और नक़दी ले गया था। ताज्जुब की बात यह थी कि हत्यारा कोई और नहीं, वही तरसेम था जिसकी उन्होंने मदद की थी। बचपन में पढ़े उस सूत्र से उन्हें सुकून तो नहीं मिला, उनका जीवन सूना ज़रूर हो गया।    

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