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क्रूर ज़माना और तुम

यह कैसा क्रूर ज़माना है
जब बूँद बूँद के लिए आदमी तरस रहा
 
वैसे तो विजय चाँद पर भी पा ली उसने
पर धरती यह जो उसकी जन्मदात्री है
जल रही और जल रहे पुत्र उसके प्यारे
 
यों तो बहुत तरक़्क़ी की है 
ज्ञान और विज्ञान ने
साधन बहुत जुटाये हैं उनने 
सुविधा के लिए मनुज की
सारे विलास की चीज़ें उसके लिए 
सहज उपलब्ध कराई
फिर भी क्या कह सकते हो 
वह सुखी और सब चिंताओं से मुक्त है?
 
अब देखो इसी महामारी कोरोना को
कितनी मौतें हो रही रोज़ और सब 
लाचारी महसूस रहे।
 
पत्थर को कोई पूज रहा 
कोई पुकारता ईश्वर को
विज्ञान विवश चुपचाप सभी कुछ देख रहा
 
इसलिए मनुष्यो सावधान अब हो जाओ
यह सभी तुम्हारी ही बेजा करतूतों का फल है।
जब तक न सुधारोगे ख़ुद को
और बाज़ नहीं आओगे अपने दुष्कर्मों से
तब तक ऐसे ही  ऐसे ही तुम 
हरदम मरते जाओगे
और विज्ञान भी बेबस हो 
कुछ कर ना पायेगा।
 
वैसे कह सकते हो 
यह कैसा क्रूर ज़माना है
पर इसके दोषी तुम ख़ुद हो।
हाँ, तुम ख़ुद हो।

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