कुछ इस तरह से ज़िन्दगी को देखना
शायरी | ग़ज़ल डॉ. विजय कुमार सुखवानी3 May 2012
कुछ इस तरह से ज़िन्दगी को देखना
अंधेरों में भी तुम रोशनी को देखना
ज़र्रे ज़र्रे में फैला है उसी का वुजूद
हर एक शै में बस उसी को देखना
लबों की तबस्सुम पूरा सच नहीं कहती
आँखों में छिपी हुई नमी को देखना
देखना हो गर ख़ुदा को इस जमीं पर
किसी बच्चे की मासूम हँसी को देखना
फ़िजूल है आदमी में ख़ुदा को ढूँढना
बेहतर है आदमी में आदमी को देखना
हर शख़्स में होता है कुछ दीद के काबिल
ग़ौर से देखना जब भी किसी को देखना
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