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कुछ तो गाओ

(साभार "उठो पार्थ! गांडीव संभालो" काव्य संकलन से)

 

कुछ तो गाओ
मैं भी मन की बीन तरंगित कर लूँ।


गर गीतों में हो लोच न तो तुम
अपनी अंगड़ाई भर दो।
आंचल का अल्हड़पन भर दो,
कंगन की तरुणाई भर दो।


मैं तो कब से छंद रच रहा,
चुन-चुन कर सपनों के साये,
जो छंदों को गीत बना दे,
ऐसे अधर न मिल पाये।


मेरी जड़ता इन अधरों को
छु कर चेतन हो जाएगी--
कुछ तो गाओ
वीणा के सोये तारों में
फिर से जीवन भर लूँ।


कुछ तो गाओ
मैं भी मन की बीन तरंगित कर लूँ।


यह तो तेरा रूप रूपसी!
जिससे रस मदिरा बन जाते,
यह तो राधा का कटाक्ष,
जो ग्वाले गोपी-कृष्ण कहाते।


हर वंशी की लय में बजता,
ढलकर रूप कोई सरगम-सा,
तुम भी अपना रूप ढाल दो,
इस वीणा की तार-तार पर।


अपनी इस नीरसा रसा में,
तनिक स्नेह रस भर लूँ--
कुछ तो गाओ
मैं भी मन की बीन तरंगित कर लूँ।

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