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कुमार रवीन्द्र से अवनीश सिंह चौहान की बातचीत

[10 जून 1940, लखनऊ, उत्तर प्रदेश में जन्मे प्रतिष्ठित साहित्यकार कुमार रवींद्र ने 1958 में लखनऊ विश्वविद्यालय से एम.ए. (अंग्रेज़ी साहित्य) की उपाधि प्राप्त करने के बाद दयानंद कॉलेज, हिसार (हरियाणा) में अंग्रेज़ी शिक्षक के रूप में कार्य किया और वहीं से सन 2000 में विभागाध्यक्ष के पद को सुशोभित करते हुए सेवानिवृत्त हुए। इन्होंने न केवल हिन्दी साहित्य में अविस्मरणीय कार्य किया, बल्कि अंग्रेज़ी भाषा में भी सर्जना की, जिसका प्रमाण इनके द्वारा सृजित एक दर्जन से अधिक प्रकाशित कृतियाँ हैं—  नवगीत संग्रह : 'आहत हैं वन' (1984), 'रखो खुला यह द्वार' (1985 & 2013), 'चेहरों के अंतरीप' (1987), 'पंख बिखरे रेत पर' (1992), 'सुनो तथागत' (2003), 'और हमने संधियाँ कीं' (2006), 'अप्प दीपो भव' (2016), 'हम खड़े एकान्त में' (2017), 'आदिम राग सुहाग का' (2018); कविता संग्रह : 'द सैप इज स्टिल ग्रीन' (The Sap Is Still Green, 1988, अंग्रेज़ी में) एवं 'लौटा दो पगडंडियाँ' (1990); काव्य-नाटक : 'एक और कौन्तेय' (1985), 'गाथा आहत संकल्पों की' (1998), 'अंगुलिमाल' (1998), 'कटे अंगूठे का पर्व' (2007), 'कहियत भिन्न न भिन्न' (2007); यात्रावृत्त : 'और...यह यायावरी मन की' (2013) एवं 'यात्राएँ और भी' (2018); आलोचना : 'नवगीत की अस्मिता' (2019)। साथ ही 'नवगीत दशक - दो' (1983) एवं 'नवगीत अर्धशती' (1986) (सं : डॉ. शम्भुनाथ सिंह) 'यात्रा में साथ-साथ' (सं : देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र', 1984), 'धार पर हम - दो' (सं : वीरेंद्र आस्तिक, 2010), 'शब्दपदी' (सं : निर्मल शुक्ल, 2008), 'नवगीत : नई दस्तकें' (सं : निर्मल शुक्ल, 2009), 'बीसवीं सदी के श्रेष्ठ गीत' (सं : मधुकर गौड़), ‘हरियर धान रुपहरे चावल' (सं : देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र'), 'शब्दायन' (सं : निर्मल शुक्ल, 2012), 'नई सदी के नवगीत — खंड - एक' (सं : डॉ ओम प्रकाश सिंह, 2015), दोहा संग्रह : 'सप्तपदी - एक' (सं : देवेन्द्र शर्मा 'इंद्र'), 'नई सदी के प्रतिनिधि दोहाकार' (सं : अशोक अंजुम), 'ग़ज़ल दुष्यंत के बाद — खंड - एक' (सं : दीक्षित दनकौरी), 'हिन्दुस्तानी ग़ज़लें' (सं : कमलेश्वर) 'बंजर धरती पर इन्द्रधनुष' (सं : कन्हैयालाल नंदन), 'हरियाणा की प्रतिनिधि कविता' (सं : माधव कौशिक) आदि समवेत काव्य संकलनों में भी इनकी रचनाएँ ससम्मान प्रकाशित हुईं। इन्हें 2005 में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ से 'साहित्य भूषण' सहित लगभग एक दर्जन सम्मानों/पुरस्कारों से अलंकृत किया गया। 01 जनवरी 2019 इनका निधन हो गया।] — अवनीश सिंह चौहान  


 

अवनीश सिंह चौहान— 

आप में गाने-गुनगुनाने का संस्कार कैसे पल्लवित और पोषित हुआ? यदि संभव हो तो इससे सम्बंधित अपनी स्मृतियों के बारे में भी कुछ बताएँ?

कुमार रवीन्द्र— 

यह बताना कठिन है। रामायण का सस्वर पाठ माँ के मुँह से समझ आने की उम्र से पहले ही सुना होगा और तभी शायद उसे दोहराने की कोशिश भी की होगी| समझ की यादों में मीरा-सूर के पद, कबीर के दोहे, राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की रचनाओं का पाठ, बच्चन जी के गीत, फ़िल्मी गाने, सोहर-कजरी-आल्हा और तमाम क़िस्म के घरेलू पर्व-उत्सव प्रसंगों पर गाये जाने वाले लोकगीत आदि बसे हुए हैं। इन्हें गाने की कोशिश की भी याद है। बड़े होकर प्रसाद-पन्त-निराला के गीत पढ़े-गाये। प्रसादजी का 'आँसू' काव्य विद्यार्थी जीवन में मुझे याद हो गया था और उसे मैं सस्वर गाया करता था। अंग्रेज़ी की रोमांटिक लिरिक पोएट्री के गायन का भी थोड़ा–बहुत अभ्यास मैंने किया था, ऐसा याद पड़ता है। उम्र के इस समापन-पड़ाव पर ये स्मृतियाँ भी अतीत होने लगी हैं। अब तो अपना कंठ-स्वर स्वयं को ही अजनबी लगने लगा है।

अवनीश सिंह चौहान— 

आप अपनी वय के उन गिने-चुने प्रबुद्ध नवगीतकारों में से हैं, जो न केवल प्रिंट मीडिया से जुड़े रहे, बल्कि इंटरनेट के माध्यम से भी हिन्दी साहित्य जगत में सक्रिय रहे हैं। इन्टरनेट पर वर्तमान में नवगीत के स्थिति कैसी है और भविष्य में इसके माध्यम से क्या-कुछ विशेष होने की उम्मीद है? 

कुमार रवीन्द्र— 

इंटरनेट से मेरा जुड़ाव अभी हाल का ही है। अभी मैं ठीक से उस पर उपलब्ध नवगीत रचनाओं से परिचित नहीं हो पाया हूँ। अस्तु, ऐसी कोई टिप्पणी करना मेरे लिए संभव नहीं होगा जिसे प्रामाणिक कहा जा सके। जितना मेरा परिचय उससे ब्लॉग-पत्रिकाओं के माध्यम से हुआ है, उससे एक मिश्रित प्रतिक्रिया ही उपजी है और वह यह कि पूर्व-परिचित हस्ताक्षरों की ही अधिकांशतः उस पर भी प्रभावी उपस्थिति दिखाई देती है। मेरे लिए कुछ युवा गीतकवियों से उसके माध्यम से जुड़ना सुखद रहा है। उनसे नवगीत के भविष्य के प्रति आस्थाएँ-अपेक्षाएँ भी जागी हैं। हाँ, एक बात निश्चित है कि वेब-पत्रिकाओं के माध्यम से कविता की प्रस्तुति धीरे–धीरे अधिक परिपक्व होकर आएगी और यह भी कि नई पीढ़ी से जुड़ने, उनमें कविता के प्रति रुचि-रुझान जगाने की दृष्टि से इंटरनेट एक सशक्त माध्यम है एवं भविष्य में कविता की प्रस्तुति का संभवतः वही सबसे प्रामाणिक मंच होगा। हाँ, एक बात का ध्यान रखना ज़रूरी है कि उस पर आने वाली रचनाएँ स्तरीय हों और इस मुद्दे पर कोई भी समझौता न किया जाये। श्रेष्ठ रचनाओं का ही प्रसारण हो, तभी उसकी प्रामाणिकता बन पाएगी। 

अवनीश सिंह चौहान— 

आप ताउम्र नवगीत, ग़ज़ल, दोहा, काव्य-नाटक, संस्मरण एवं यात्रावृत्त लिखते रहे हैं। इतनी विधाओं में लिखना और स्थापित होना क्या दुष्कर नहीं है? आज की कविता की मुद्रा कैसी है? वर्तमान में कवि का सबसे प्रमुख सरोकार क्या है?

कुमार रवीन्द्र— 

नवगीत और नई ग़ज़ल आज की कविता के दो विशिष्ट छान्दसिक रूप हैं। जहाँ तक कथ्य का प्रश्न है, वह आज की कविता की सभी उप-विधाओं में लगभग एक ही है, क्योंकि आज के एक संवेदनशील व्यक्ति के सामने जो प्रश्न हैं, वे अलग-अलग नहीं हैं — वही फ़िलवक़्त से जूझती अनुभूतियाँ, वही रागात्मक अस्मिताओं और आस्थाओं के क्षरण की चिंताएँ, वही पदार्थिक ऊहापोहों के बरख़िलाफ़ मानुषी आस्तिकताओं की जुझारू भंगिमा—फिर वह मुद्रा चाहे किसी भी विधा में हो, एक ही है। मेरी रचनाधर्मिता तमाम अन्य विधाओं में भी अपनी अभिव्यक्ति तलाशती रही है, यथा— नवगीत, ग़ज़ल, दोहा, काव्य-नाटक, यात्रावृत्त, संस्मरण आदि और उन सभी में लगभग एक ही तलाश आपको मिलेगी और वह है मनुष्य होने की, जिसके आज के आशयमुक्त समय में बिला जाने का ख़तरा सबसे बड़ा है। मेरी राय में, यही है आज के कवि का सबसे प्रमुख सरोकार। फिर विधा कोई भी हो, बात तो वही है यानी समय से संवाद करने के साथ स्वयं से भी संवाद करने की — ख़ुद को अपने समय-सन्दर्भ में परिभाषित-व्याख्यायित करने की। मेरे नवगीत और मेरी ग़ज़लें सहोदर हैं। मैंने कहीं यह बात कही भी है कि मैं अपनी ग़ज़लों-दोहों को अपने नवगीतों का ही विस्तार मानता हूँ। जहाँ तक एक से अधिक विधाओं में लेखन और उनमें एक मुक़ाम हासिल करने का सवाल है, उसके बारे में मुझे बस इतना ही कहना है कि मैं आज भी ख़ुद को कविता की पाठशाला की शुरूआती ज़मात के शागिर्द के रूप में ही देख पाता हूँ और हर रचना के बाद एक असंतुष्टि, एक अधूरेपन का अहसास ही मुझे लगता है। 

अवनीश सिंह चौहान— 

यद्यपि गीत और नवगीत में घनिष्ठ सम्बन्ध है, गीत एवं नवगीत में मूलभूत अंतर क्या है? आज के जटिल जीवन-प्रसंगों को केंद्र में रखकर नवगीत अनुभव-अनुभूतियों को किस प्रकार अभिव्यक्त कर रहा है?

कुमार रवीन्द्र— 

वैसे यह मानना पूरी तरह ग़लत नहीं है कि नवगीत भी गीत है, किन्तु यह मानना या सोचना-समझना कि दोनों में कोई अंतर नहीं है, उतना ही भ्रामक है जितना यह कहना कि इनका कोई रिश्ता नहीं है। मैंने अपने कई आलेखों में दोनों के घनिष्ठ रिश्ते की बात कही है, साथ ही यह भी कहा है कि दोनों के बीच पिता-पुत्र का रिश्ता होते हुए भी वे एक दूसरे के ‘क्लोन’ नहीं हैं। उनके ‘जींस’ एक होते हुए भी उन ‘जींस’ की अवधारणा उनमें अलग-अलग ढंग से होती है। उनका यह अंतर कई स्तरों पर साफ़ दिखाई देता है। 

'नवगीत' की प्रयोगधर्मी अभिव्यक्ति का एक प्रमुख पहलू है उसके कथ्य का मनुष्य के अवचेतन से जुड़ाव। यह जुड़ाव हमारे जातीय बोध के मूल संस्कारों को 'नवगीत' में सक्रिय रखता है। मानुषी अवचेतन की धारा . . . प्रवाह में झील या पोखर के जैसी बँधी हुई या जड़ीभूत नहीं होती; न ही सागर की तरह कभी एकदम शांत, अनुशासित एवं मेखलाबद्ध तो कभी उच्छल और चरम विद्रोही। वह धारा तो एक पर्वतीय नदी की भाँति ऊँचे–नीचे धरातलों के समानांतर पूर्वापर अनुभवों-अनुभूतियों को समेटती, उनसे आकार ग्रहण करती चलती है। उसमें अनामिल, एक-दूजे से नितांत अजनबी सन्दर्भों की एक-साथ उपस्थिति हो सकती है। ऊपर से यह धारा कभी उच्छाल, कभी सुप्त, कभी लुप्त लगती है, पर नीचे इसमें गंभीर एकात्मकता होती है। नवगीत इसी गहरे में बह रही एकात्म अवचेतन भाव-धारा का गीत है। इसीलिए उसके बिम्बों में कई उथल-पुथल, असंतुलन, अर्थाभास या असंगति जैसी आवृत्तियाँ होने लगती हैं। इसके विपरीत पारंपरिक गीत का मुखड़े से ही एक पूर्व-निश्चित ढाँचा होता है, जिसमें अर्थों को निश्चित एवं अपेक्षित शब्द-बिम्बों में रूपायित किया जाता है। उनका एक सायास प्रबन्धन होता है। इधर नवगीत में भावों को सहज बहने दिया जाता है। ये भाव आगे-पीछे बिना किसी पहचाने अथवा पूर्व-नियोजित आकृति के अपने को प्रस्फुटित या विस्फोटित करने को काफ़ी हद तक स्वतंत्र होते हैं। नवगीत का प्रारंभ कहीं से भी होकर उसका समापन कहीं भी हो सकता है। मुखड़ा नवगीत का निर्धारक तत्त्व नहीं होता। हाँ, उससे दिशा-निर्देश अवश्य होता है और वह दिशा-निर्देश भी राजमार्ग का नहीं, पगडंडी का होता है, जिसमें छोटी-मोटी भटकन की पूरी गुंजाइश होती है। नवगीत शुद्ध व्यक्तिगत या समष्टिगत भी नहीं होता। यह या वह की बात नवगीत पर लागू नहीं होती। व्यक्ति-अनुभूति एवं समष्टि-संवेदना, दोनों एक-साथ एक नवगीत में उपस्थित हो सकते हैं, अधिकांशतः होते भी हैं। व्यक्तिपरक और समष्टिपरक, कई बार बिल्कुल असंबद्ध चिंतन-अनुभूति बिम्बों का एक दूसरे पर आरोपण हो सकता है, एक-दूजे में प्रवाह हो सकता है। एक पारंपरिक गीत इस प्रकार की असंबद्धता को साध नहीं पाता है और इसीलिए उसे स्वीकार भी नहीं करता। कथ्य का यह बेडौलपन नवगीत को रास आता है, क्योंकि आज के जटिल जीवन-प्रसंगों में भी अनुभव-अनुभूतियों के धरातल पर इसी तरह की असंगति या बेडौलपन दिखाई देता है। कथ्य का यह खुरदुरापन नवगीत को पारंपरिक गीत से स्पष्टतः अलगाता है। 

एक और महत्त्वपूर्ण बात है कि नवगीत अर्थ-संक्षेप में यक़ीन रखता है। इसीलिए वह अधिक सुगठित, अधिक गहरे और सांकेतिक होकर प्रस्तुत होता है। उसमें अर्थ-विपर्यय या बिखराव नहीं होता, जैसा पारंपरिक गीत में अक़्सर होते पाया जाता है। नवगीत में अर्थ-बिम्ब अधिक सघन होकर प्रस्तुत होते हैं। सहज आमफ़हम बिम्बों के भी संकेतार्थ नवगीत को अतिरिक्त रूप से अर्थ-गहन बनाते हैं। नवगीत में अर्थों के शाब्दिक पहलू से अधिक शब्दों के ध्वन्यात्मक संकेतों, गूँजों-अनुगूँजों, पारस्परिक संघातों, उनमें निहित सारे सांस्कृतिक परिवेश के रूपांकन की अमित संभावनाएँ तलाशी जाती हैं। यह तलाश सायास या साग्रह नहीं होती। यह शब्दों में अर्थों के अगोपन होने की प्रक्रिया का ही अंग होती है। नवगीत में अनुपस्थित अर्थ, जो अच्छी कविता का मर्म होता है और जो कविता के अर्थ को गहनता प्रदान करता है, अधिक प्रभावी ढंग से प्रस्तुत हो पाता है, क्योंकि नवगीत शब्दों के बीच में छिपे ध्वन्यात्मक आदिम इंगितों को बड़ी सहजता से भाषित कर लेता है। पारंपरिक गीत इन इंगितों को या तो पहचान नहीं पाता या उन्हें भाषित कर पाने में अक्षम सिद्ध होता है, क्योंकि वह शब्दों के रूढ़ और अति-साधारण अर्थों तक ही अपने को सीमित रखने को विवश होता है। पारंपरिक गीत इसीलिए परंपरा के विकास, उसके भविष्योन्मुखी होने की प्रक्रिया में कोई विशेष योगदान नहीं दे पाता। इसके बरअक्स नवगीत अपनी प्रयोगधर्मी प्रकृति के कारण जातीय एवं भाषिक परंपरा को नये आयाम, नई दिशा एवं भंगिमाएँ दे पाने में समर्थ होता है। नयेपन का सम्यक-संतुलित समन्वयन नवगीत की विशिष्ट उपलब्धि रही है। प्रयोगधर्मिता का आग्रह उसे नये अर्थों, नई संभावनाओं का खोजी बनाता है। इन्हीं प्रयोग-आग्रही अर्थ-प्रस्तुतियों से नवगीत के माध्यम से परंपरा का नवीकरण होता रहा है। 

अवनीश सिंह चौहान— 

आपने गीत से नवगीत की यात्रा को न केवल देखा है, बल्कि एक रचनाकार के रूप में उसमें सहयात्री भी रहे हैं। आपके समय में ही कई महत्वपूर्ण समवेत संकलन (गीत-नवगीत) प्रकाशित हुए हैं— 'नवगीत दशक - एक, दो, तीन' , ' नवगीत अर्द्धशती', 'पाँच जोड़ बाँसुरी', 'श्रेष्ठ हिन्दी गीत संचयन', 'धार पर हम - एक', 'धार पर हम - दो', 'शब्दपदी', 'नवगीत : नई दस्तकें' आदि। कई अन्य संकलन भी काफ़ी चर्चित रहे हैं। इन संकलनों में क्या विशेष रहा जिसे उपलब्धि के रूप में देखा जा सके?

कुमार रवीन्द्र— 

इन संकलनों के अतिरिक्त कुछ और महत्त्वपूर्ण संकलन हैं— 'यात्रा में साथ-साथ' (संपादक : देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र'), 'नवगीत एकादश' (संपादक : डॉ. भारतेंदु मिश्र), 'सात हाथ सेतु के' (संपादक : मधुसूदन साहा), 'नवगीत और उसका युगबोध' (संपादक : राधेश्याम बन्धु) एवं उद्भ्रांत द्वारा प्रस्तुत एवं तथाकथित रूप से डॉ. शंभुनाथ सिंह जी द्वारा ही संपादित 'नवगीत सप्तक', जिनकी नवगीत के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। जहाँ तक 'पाँच जोड़ बाँसुरी' एवं साहित्य अकादमी द्वारा संचयित 'श्रेष्ठ हिंदी गीत संचयन' का प्रश्न है, ये विशुद्ध नवगीत संग्रह नहीं थे, हालाँकि उनमें कई महत्त्वपूर्ण नवगीतकारों की रचनाओं को भी शामिल किया गया था। डॉ. शंभुनाथ सिंह द्वारा संपादित तीस नवगीतकारों के त्रिखंडीय समवेत संकलन 'नवगीत दशक' की नवगीत के विकास एवं उसे दिशा देने में निश्चित ही एक ऐतिहासिक भूमिका रही है। उन्हीं के द्वारा संपादित 'नवगीत अर्द्धशती', उसकी भूमिका में प्रस्तुत विस्तृत नवगीत विमर्श एवं नवगीत के समूचे परिप्रेक्ष्य को एक साथ पेश करने की दृष्टि से नवगीत अध्येता के लिए एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण सन्दर्भ-ग्रन्थ है। भाई वीरेन्द्र आस्तिक द्वारा संपादित 'धार पर हम - एक और दो' की इधर के वर्षों में नवगीत विमर्श को दिशा देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। 'धार पर हम'- दो की लंबी संपादकीय भूमिका हिंदी नवगीत और उस पर हुए विमर्शों पर सटीक एवं सार्थक टिप्पणी की दृष्टि से एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ है। भाई निर्मल शुक्ल द्वारा संयोजित— 'शब्दपदी' एवं 'नवगीत : नई दस्तकें' के माध्यम से नवगीत विमर्श और उसकी अधुनातन प्रस्तुति बड़े ही सुष्ठ ढंग से हो पाई है। अंतिम चारों संकलन नवगीत के समकालीन सन्दर्भ को सही परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करने की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। इनके माध्यम से नवगीत की आज की कविता की केन्द्रीय विधा के रूप में प्रस्तुति हो पाई है। 

अवनीश सिंह चौहान— 

नवगीत के क्षेत्र में ज़बरदस्त ख़ेमेबाज़ी देखी जाती रही है। यह कहाँ तक उचित या अनुचित है? और क्या यह नवगीत के लिए किसी प्रकार की चिंता का विषय भी है?

कुमार रवीन्द्र— 

ख़ेमेबाज़ी भी भारतीय अस्मिता का हिस्सा है। उसके सकारात्मक-नकारात्मक दोनों ही पहलू हैं। साहित्य के क्षेत्र में यह ख़ेमेबाज़ी कोई नई चीज़ नहीं है। हर युग में यह रही है— हर विधा में रही है — आज भी है। हिंदी का भाषीय इलाक़ा काफ़ी विस्तृत है और आधुनिक संचार संसाधनों के होते हुए भी पूरे क्षेत्र में हो रही सांस्कृतिक-सारस्वत गतिविधियों का एक ही मंच पर एक ही समय पर सही परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत हो पाना आज भी संभव नहीं हो पाया है। शिविरगत होकर कम से कम उस विशेष क्षेत्र में तो उस विधा विशेष को प्रश्रय मिल ही जाता है। क्षेत्रीय शिविरबद्धता अगर क्षेत्र विशेष में सिमटकर रह जाती है तो वह अपनी व्यापक पहचान नहीं बना पाती और वहीं समाप्त हो जाती है। किन्तु जब वह विस्तार पाकर सकारात्मक हो जाती है तब वह सर्व-व्यापक हो जाती है। कोई भी नया आन्दोलन प्रारम्भ में शिविरबद्ध होकर ही ऊर्जा प्राप्त करता है, किन्तु बाद में सर्व-व्यापक होकर ही वह अपनी सही अस्मिता की पहचान कर पाता है। हिंदी कविता का भक्तिकाल का आन्दोलन हो या आज के समय का छायावादी-प्रगतिवादी या प्रयोगवादी आन्दोलन हो, सभी कुछ व्यक्ति विशेषों के शिविरबद्ध प्रयत्नों से ही उपजे और पनपे। बाद में उनकी अखिल भारतीय पहचान बनी। अस्तु, मेरी राय में, शिविरबद्ध होने और ऐसा करके अपनी गतिविधियों को गहन ऊर्जा प्रदान करने में कोई हर्ज़ नहीं है। नवगीत में जो आज एक समृद्ध वैविध्य देखने में आ रहा है, वह उसके विभिन्न क्षेत्रीय स्वरूपों के ही कारण है। किन्तु अंततः इन सभी शिविरबद्ध गतिविधियों को एक समग्र रूपाकृति मिलनी ही चाहिए, वरना उसकी क्षेत्रीय ऊर्जा नकारात्मक होकर स्वयं को ही विनष्ट करने में लग जाएगी। यह सच है कि नवगीत को ख़ेमेबाज़ी के इन दोनों पहलुओं से रूबरू होना पड़ा है। किन्तु मुझे नहीं लगता कि यह कोई विशेष चिंता का विषय है। नवगीत आज पूरे हिंदी देश की काव्य विधा है, हालाँकि उसकी क्षेत्रीय अस्मिताएँ भी सक्रिय हैं। आवश्यकता इस बात की है कि उन क्षेत्रीय अस्मिताओं को नकारे बिना उसके अखिल हिंदी-प्रदेशीय स्वरूप को सही परिप्रेक्ष्य में और 'फ़ोकस' में रखा जाये। हाँ, शिविरबद्ध हों शिविराक्रांत न होंवें। ख़ेमें बनें पर वे सभी ख़ेमें जब इकट्ठे होकर एक पूरी बस्ती में तब्दील हो जाएँ, तभी उनकी उपयोगिता है। 

अवनीश सिंह चौहान— 

नयी सदी में भारत के अहिन्दी भाषी क्षेत्रों में और विदेशों में हिन्दी नवगीत की स्थिति क्या है?

कुमार रवीन्द्र— 

हिंदी नवगीत की उपस्थिति अहिन्दी भाषी क्षेत्रों में भी अधिकांशतः उन प्रदेशों में गये–बसे हिंदी भाषियों की सर्जना के रूप में ही दिखाई देती है और वह भी छिटपुट रूप में ही। अन्य भाषा-भाषी, जो हिंदी में कविताई करते दिखते हैं, वे भी संभवतः हिंदी प्रदेश में रहने-बसने के कारण या फिर अपने लिए एक बृहत रचना परिवेश की तलाश के कारण ऐसा करते हैं। नवगीत लेखन की ओर उन्मुख हुए ऐसे रचनाकार मेरी दृष्टि में तो कम-से-कम नहीं हैं। हाँ, हिंदी से इतर भाषाओं में भी नवगीत लेखन हो रहा है, इसमें कोई संदेह नहीं है। यही बात कमोबेश विदेशों में रचे जा रहे नवगीत के विषय में भी कही जा सकती है। 

अवनीश सिंह चौहान— 

जयदेव के 'गीतगोविन्दम्‌', जोकि संस्कृत की महान कृति है, को पुरी (उड़ीसा) के जगन्नाथ मंदिर में गाया जाता है; वहीं हमारे समाज में कई अवसरों पर भक्ति एवं फ़िल्मी गीतों को कमोवेश वही दर्जा प्राप्त है। किन्तु ऐसा लगता है कि साहित्यिक हिन्दी नवगीत (लोकगीतों को छोड़कर) इस स्थिति को प्राप्त नहीं हो सके? 

कुमार रवीन्द्र— 

जयदेव का 'श्री गीतगोविन्दम्‌' हो या तुलसी का 'श्री रामचरितमानस', उनका ओडिसी या हिन्दू अस्मिता का प्रतीक बनना ही उनके प्रचार-प्रसार का मूल कारक रहा है, मेरी राय में। ऐसी ही सूर और मीरा के पदों की बात है। उन सबकी एक धार्मिक पहचान है और यह पहचान उनके कविता से इतर और भी कुछ होने से है। हाँ, कबीर के पदों, दोहों, साखियों, उलटबासियों की बात अलग है। उन्हें हम सही अर्थों में कविता के प्रभाव के रूप में देख सकते हैं। निस्संदेह उनकी भूमिका प्रमुख रूप से सामाजिक रही है। धर्म से इतर सामाजिक परिवर्तन की यह दृष्टि ही आज की कविता की दृष्टि है। इसीलिए कबीर आज की कविता, विशेष रूप से गीतिकविता के सबसे बड़े और महत्त्वपूर्ण सन्दर्भ हैं। नवगीत तो कबीर की कविताई को अपने सबसे नज़दीक पाता है। कबीर की भाषायी भंगिमा भी उसके लिए अनुकूल पड़ती है। नवगीत की लोकाग्रही भावभूमि एवं मुद्रा के मूल में संभवतः कबीर का यह परोक्ष प्रभाव ही है। 

जहाँ तक फ़िल्मी गीतों की आमजन तक पहुँच का और उनके बहुप्रिय होने का प्रश्न है, वह तो दृश्य-श्रव्य संचार साधनों की प्रगति और समग्र रूप से हमारी सांस्कृतिक संचेतना के विचलन का द्योतक है। मुझे याद है बचपन में जब हम अन्त्याक्षरी खेलते थे, तो हम तुलसी की रामायण की चौपाइयों और दोहों-छंदों का या फिर हिंदी कविता के अंशों का ही उपयोग करते थे। धीरे-धीरे कब फ़िल्मी गानों की पंक्तियों ने उन्हें अपदस्थ कर दिया, पता ही नहीं चला। आज की पीढ़ी तो हमारी सांस्कृतिक चेतना से पूरी तरह विच्छिन्न होने की कगार पर है। भूमंडलीकरण ने हमारी आस्तिकताओं को ही विनष्ट कर दिया है। लोकगीत भी जो जीवित बच पाए हैं, उसका कारण है उनकी ओर संचार माध्यमों का इधर के वर्षों में झुकाव और रुझान। हाँ, नवगीत के स्वरूप में जो इधर परिवर्तन आये हैं, वे उसे लोकगीतों के निकट ले गये हैं। स्मृतिशेष भाई कैलाश गौतम के बहुत से गीत मंच पर इसी कारण लोकप्रिय रहे। किन्तु नवगीत लोकगीत का स्थानापन्न नहीं बन सकता और उसके साहित्यिक स्वरूप के सुरक्षित रहने के लिए ऐसा न हो, यही श्रेयस्कर है। कुछ हद तक लोकगीत की भाषायी भंगिमा अपनाकर भी नवगीत ने अपनी साहित्यिक गरिमा को सुरक्षित रखा है, यह उसकी जीवंत ऊर्जा और उसके कहन-कौशल का प्रमाण है। मुझे लगता है कि नवगीत की सही गायन प्रस्तुतियों की ओर यदि ध्यान दिया जाये और उसे बौद्धिकता के अतिरेक से बचाए रखा जाए, तो वह निश्चित ही लोक में व्याप सकता है। 

अवनीश सिंह चौहान— 

बॉलीबुड से प्रदीप, जावेद अख्तर, गुलज़ार, निदा फ़ाज़ली, प्रसून जोशी आदि कई समर्थ गीतकारों ने सदाबहार गीत दिये हैं। फ़िल्मी गीत और साहित्यिक गीत (नवगीत भी) में कौन-सी समानताएँ और असमानताएँ देखने को मिलती हैं?

कुमार रवीन्द्र—

फ़िल्मी गीत फ़िल्म की किसी ख़ास 'सिचुएशन' से बँधे होते हैं। वे फ़िल्म की पटकथा से जुड़े होते हैं और उसका अटूट हिस्सा होते हैं। अच्छा गीतकार उन परिधियों में भी अच्छी कविता प्रस्तुत करने की कोशिश करता है। किन्तु फ़िल्मी गीत की अपनी एक निश्चित सीमा है, जिसका अतिक्रमण करना उसके लिए न तो संभव है और न ही उपयोगी। उसकी दृष्टि विशुद्ध व्यवसायिक होती है। बॉक्स आफ़िस वाली इस दृष्टि के कारण वह 'पॉप पोएट्री' की परिसीमा से परे नहीं जा पाता। पटकथा और उसकी ज़रूरतों से बँधी यह कविता और आगे फ़िल्मी संगीत की फ़िलवक़्ती अनिवार्यताओं से भी निर्धारित होती है। आज के फ़िल्मी संगीत की जो ज़रूरतें हैं, उनमें अच्छी-से-अच्छी कविता अपना दम तोड़ने को विवश हो जाती है। एक अच्छे फ़िल्मी गीत में भी कवि को किसी-न-किसी रूप में फ़िल्म की ज़रूरतों के मुताबिक समझौता तो करना ही पड़ता है। 

इसके बरअक्स साहित्यिक गीत कवि की अपनी अनुभूतियों के उद्वेलन से उद्भूत होता है— उसमें कवि के अवचेतन में समाहित एवं उसके संस्कारों से उपजी सभी भाव-उर्मियों की समुचित उपस्थिति हो पाती है। साहित्यिक गीतकार का स्वानुभूत, स्व-उद्भूत एवं स्व-निर्मित अनुशासन होता है, जो उसके अंतर्मन से उपजता है। उसकी सर्जना पर कोई बाह्य अंकुश या दबाव नहीं होता। साहित्य की जो गरिमा है, वह उसमें किसी समझौते के तहत शिथिल नहीं होती। फ़िलवक़्त की स्थितियों का आकलन करते समय भी वह सर्जना के क्षण में कई कालजयी मनःस्थितियों और संवेदनाओं से रू-ब-रू होता रहता है। इस नाते उसकी कविता में उसके समाज और परिवेश की सारी परंपरा एवं अन्त:श्चेष्टाएँ कहीं-न-कहीं प्रतिध्वनित होती हैं। उसके मन्तव्य एवं इंगित भी अधिक गहन होते हैं। एक अच्छे साहित्यिक गीत में एक 'विज़न' यानी दार्शनिक भाव-भंगिमा भी होती है, जो उसे कालजयी बनाती है। 

अवनीश सिंह चौहान— 

आप अपने बारे में क्या सोचते हैं? नवगीत के बारे में क्या आप कोई सुझाव देना चाहेंगे? क्या नवगीत को लेकर आपकी कोई योजना है? 

कुमार रवीन्द्र— 

इस प्रश्नों का उत्तर देना बड़ा कठिन है। मेरा एक लंबा अतीत है। एक बचा-खुचा वर्तमान भी है। और भविष्य . . . वह लगभग नहीं ही है। ऐसे में किसी योजना की बात सोचना या करना अनर्गल होगा। हाँ, जो मुझसे आगे हैं यानी जो अगली पीढ़ी के नवगीतकार हैं, उनसे अवश्य मेरी कुछ अपेक्षाएँ-आशाएँ हैं। नवगीत आज जिस पड़ाव पर है, वह उसे भविष्य की कविता बनाने की दिशा में है। गीत-नवगीत की उलझनों के साथ-साथ जो गद्यकविता का एक विद्रूप स्वर है, नवगीत को उससे आतंकित न होने दें और आज के नये-नये अनुभवों से उसे जोड़ें; प्रयोगधर्मिता को क़ायम रखते हुए उसे अनर्गल न होने दें और लय-छंद के अनुशासन को और सहज होने दें, मेरी राय में, यही हो सकती है आज के नवगीत के लिए एक सुन्दर योजना। 

अवनीश सिंह चौहान— 

नई पीढ़ी के लिए क्या आप कोई सन्देश देना चाहेंगे?

कुमार रवीन्द्र— 

संदेश देने की न तो मेरी क़ुव्वत है और न ही नई पीढ़ी के स्वस्थ और समुचित विकास की दृष्टि से ज़रूरी ही। प्रख्यात अंग्रेज़ी कवि-चिन्तक टी.एस. एलियट के अनुसार हर पीढ़ी को अपनी परंपरा खोजनी होगी और उसके दायरे में अपने समय-सन्दर्भ को परिभाषित करते हुए पूर्व-परंपरा को आगे बढ़ाना होगा। इसके लिए उसे अपने समय के लिए एक नया भाषिक मुहावरा भी तलाशना और गढ़ना होगा। वैसे ऊपर के प्रश्न के उत्तर में मैंने अपनी बात कह ही दी है। और मुझे पूरा भरोसा है कि मेरे आगे की पीढ़ी निश्चित ही अपने कृतित्त्व से नवगीत की नई संभावनाओं को खोजेगी और उसे भविष्य का काव्य बनाएगी। 

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