कुर्सी और आदमी
काव्य साहित्य | कविता निर्मल गुप्त4 May 2016
गहरे भूरे रंग की जिल्द वाली
आरामदेह कुर्सी पर पसर
मुतमईन है वह
उसकी आँखें खोज रही हैं
कुर्सी को रखने के लिए
उचित उपयुक्त और निरापद जगह।
कुर्सी का मिल जाना
एक खूंखार सपने की शुरुआत है
वह कुर्सी के पीठ पर टँगे तौलिये से
पोंछता जा रहा है हाथ
रंगे हाथों पकड़े जाने का अब कोई ख़ौफ़ नहीं।
कुर्सी में लगे हैं पहिये
घूमने की तकनीक से है लैस
वह उसके हत्थे को कस कर थामे है
उसे पता है कि कुर्सियाँ
अमूमन स्वामिभक्त नहीं होती।
कुर्सी पर मौक़ा ताड़कर पसर जाना
फिर भी है काफ़ी आसान
लेकिन बड़ा जटिल है
उसे अपने लायक़ बनाना
बड़ा मुश्किल है कुर्सी को
घोड़े की तरह सधा लेना।
कुर्सी पर बैठते ही आदमी
घिर जाता है उसके छिन जाने की
तमाम तरह की आशंकाओं से
इस पर बैठ जाने के बाद
वह वैसा नहीं रह पाता
जैसा कभी वह था नया नकोर।
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