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कुरुक्षेत्र

कुरुक्षेत्र
(पंजाबी कहानी, गुरमीत कड़ियावली)
अनुवादक: सुरजीत सिंह वरवाल

मुझे समझ नहीं आता मैं क्या करूँ?

हर समय डर सा क्यों लगता है। किसी आन्तरिक अदृश्य भय से काँपती रहती हूँ। औरतों को अपने मायके से सारी उम्र आत्मीयता रहती है, मुझे भी रहती थी। एक सप्ताह नहीं बीतने देती और मायके जाने के लिए हठ करती रहती। कई बार रूठने का नाटक भी करती। अन्ततः मनीष को अकथ प्रयासों से जाने के लिए मना लेती थी। ख़ुदा न करे बिज़नेस के सिलसिले में अगर मनीष को समय नहीं होता, तो मैं ड्राइवर को लेकर ख़ुद ही मायके चली जाती थी।

लेकिन अब... ?

लेकिन अब तो मनीष मेरे मायके जाने का नाम भी ले, तो मुझे घबराहट सी होने लगती है। 7-8 वर्ष में इतना कुछ बदल गया कि मायके जाने की मुझे ख़ुशी रत्तीभर नहीं होती, कोई न कोई बहाना बनाकर इन्कार कर देती हूँ। मम्मी से मिलने को बिल्कुल दिल नहीं करता, लेकिन पापा को मैं, ज़रूर मिस करती रहती हूँ। पापा अकेले कैसे मिलेंगे अगर पापा को मिलने जाऊँगी तो... मम्मी भी होगी, यह सोचकर दिल बैठ जाता था और घबराहट सी होने लगती थी। ऐसा लगता था कि जैसे धड़कन रुक गई है।

मैं इन रिश्तों की बनावट में ही उलझी रहती हूँ।

माँ के साथ बने अपने रिश्ते को, मैं नया अर्थ देने लगती हूँ। इस नये रिश्ते की परिभाषा किसी शब्दकोष में नही मिलती। जब शब्दकोश लिखे गये थे, तब इन रिश्तों का कोई कन्सेप्ट नहीं था।

ये रिश्ते भी क्या चीज़ हैं?

मनुष्य हर दिन नए रिश्ते बनाता है। मनुष्य के अन्दर यह प्रवृत्ति आदि काल से ही चली आ रही है। अगर यह प्रवृत्ति न होती... मनुष्य बच्चे पैदा न करता।

कौन चाहता है कि मेरे बच्चे न हों...?
बच्चों के फिर आगे बच्चे......

इसी तरह वंश चलता रहे.... पीढ़ी दर पीढ़ी।

मनीष भी तो यही चाहता है कि अभी... मेरे ख़ून से भी कोई फूल खिले जब यह सोचती हूँ, तो मनीष ठीक ही लगने लगता है।

कहाँ नही लेकर गया मुझे। महँगे डॉ. के पास देसी, वैदों और हकीमों के पास। मन्दिर, गुरद्वारों और जंगल पहाड़ियों में बैठे ज्योतिषों के पास... वैष्णों देवी, गोपाल मोचन, रामतीर्थ कौन सी ऐसी जगह है, जहाँ नहीं ले गया?

उसकी सोच तो हर समय वारिस पैदा करने में लगी रहती है। शायद दुनिया के हर इन्सान को अपना वारिस चाहिए होता है।

अक्सर मैं यह सोचती हूँ कि केवल मर्द को ही वारिस की ज़रूरत होती है? औरत को नहीं...? शायद नहीं। इसीलिए तो मैंने न तो कभी सुना और न कभी पढ़ा है कि औलाद की ख़ातिर किसी औरत ने दूसरी शादी की हो।

कितनी सहनशक्ति है इस औरत ज़ात के अन्दर। शायद धरती माँ जितनी... ।

धरती माँ के ऊपर यदि कोई मिट्टी का ढेर लगा देता है या कोई कुआँ खोद लेता है तो उसके मुँह से कभी आह भी नहीं निकलती।

आदमी तो भरा हुआ घड़ा है। जो जल्दी ही उछल जाता है। इसके अन्दर कोई सहनशक्ति नही है। मनीष के अन्दर सब्र कैसे होता?

शायद यह भी दुनिया के हर मर्द की तरह बेसब्र है।

मेरे से छोटी इन्दु पी.एम.टी. की कोचिंग लेने के लिए आई थी। इस शहर में एक से बढ़कर एक कोचिंग सेंटार हैं। वह एक महीना मेरे पास रुकी। मेरे लिए वही एक महीना एक साल नहीं एक युग के समान बीता। मैंने भगवान का नाम ले लेकर समय व्यतीत किया। मैं पछता रही थी कि इन्दु को कोचिंग लेने के लिए यहाँ क्यों बुलाया। क्या करती मैंने ही मम्मी डेडी को फोन किया था कि इन्दु को यहाँ भेज दे। यहाँ कि ब्रिलियेंट एकेडमी का अपना काफी नाम है। हर वर्ष उस एकेडमी के विद्यार्थी पी.एम.टी., आई.ए.एस. और पी.सी.एस. में चयनित होते है। पर मुझे लगता है, मैं जाल में ख़ुद ही फँस गई हूँ। मर्दों का क्या है। यह तो चिकने बर्तन के समान होते है। पता नहीं कब हाथ से फिसल जाए। जीजू... जीजू... ......करती, इन्दु मुझे ज़हर के समान लगती थी।

वह खिलखिलाकर मनीष के साथ हँसती तो मेरे हृदय में तीर के समान चुभ जाती। किसी भी बात को लेकर घर में हँसी मज़ाक चलता... तो मैं सिर्फ़ ऊपर-ऊपर से हँस देती। मैं अन्दर से बहुत डर गयी थी। मनीष भी इन्दु में कुछ ज़्यादा ही दिलचस्पी दिखा रहा था। मनीष जो पहले देर रात काम से लौटकर नहीं आता, अब 5 भी नहीं बजने देता था। कई-कई बार तो काम से छुट्टी भी मार लेता था। हर दिन घर में अच्छा-अच्छा फल, ड्राईफ्रूट और मिठाइयाँ आने लगी थीं। मनीष का घर के प्रति बढ़ता प्रेम और नज़दीकियाँ देखकर मैं अन्दर तक घबरा जाती थी। इन्दु की मौजूदगी घर में असहयोगी की तरह थी। टेस्ट ख़त्म होने के बाद इन्दु कुछ दिन और रहना चाहती थी, पर मैं तो अपने अर्न्तमन से यही चाहती थी... कि वह गाड़ी पकड़े और तुरन्त घर वापस चली जाये। मेरी हीन भावना ही मुझे खा रही थी, अगर मेरी ज़मीन के अन्दर बीज अंकुरित हो जाते तो शायद मैं इतना वहम न करती।

इन्दु के घर में रहने पर मुझे अजीब-अजीब और डरावने सपने आने लगे थे। मैं और मनीष पैदल जा रहे है... दूर बहुत दूर... किसी घने जंगल में। अचानक आदिवासियों का झुण्ड मिलकर हमें घेर लेता है। मैं मनीष का हाथ कसकर पकड़ लेती हूँ। जंगली आदिवासी मनीष को मेरे से अलग करने लगते हैं। काफी ज़ोर अज़माइश के बाद, वह मनीष को मेरे से अलग कहीं दूर ले जाते हैं। मेरी अचानक चीख़ निकल जाती है। मैं हड़बड़ाहट करके जल्दी से उठ जाती हूँ, और मेरा शरीर पसीने से तर-ब-तर हो जाता है।

कभी सपना आता है... मैं और मनीष पैदल जा रहे हैं। एक साधु हमें रास्ते में मिलता है वह साधु हमें उस दिशा की तरफ़ जाने को मना करता है। मनीष उसकी बात को अनसुनी करके मेरा हाथ पकड़कर उस दिशा की तरफ़ चलता रहता है। घाटियाँ और गुफाओं में, किसी राजा के सिपाही हमें पकड़ लेते हैं। यह कोई राजा नहीं होता बल्कि एक जादूगर होता है। जादूगर मनीष को अपने जादू से तोता बनाकर पिंजरे में कैद कर देता है, इसी पिंजरे में पहले से अनेक आदमी तोते बने हुए कैद हैं। मैं चीखती चिल्लाती हुई पागल सी उस पिंजरे के आस-पास चक्कर लगाती रहती हूँ और आख़िर में हाँफ कर गिर जाती हूँ। जादूगर की डरावनी हँसी वातावरण को भंग करती है। मेरी अचानक चीख़ निकल जाती है। गहरी नींद में सोया मनीष हड़बड़ाहट से उठ जाता है। मेरे होंठ शुष्क हो जाते है... ....... और गला सूख जाता है। मैं मुँह से कुछ बोल नहीं पाती।

पागलों की तरह मनीष की गोद में सिर रखकर रोने लगती हूँ। बस हर दूसरे चौथे दिन मेरे साथ ऐसे होने लगता है।

मनोविज्ञान के माहिर डॉ. कुन्तल कहते हैं कि मेरे अन्दर कोई अदृश्य भय घर कर गया है। मेरी तन्दुरूस्ती के लिए मेरे इस भय को दूर करना होगा। डॉ. के अनुसार मैं अपने आप को घर में सुरक्षित महसूस नहीं करती हूँ। अदृश्य भय का कारण यही है। मुझे बाहर भेज कर डॉ. कुन्तल और मनीष काफी समय तक बातचीत करते रहते हैं।

 मुझे सुरक्षित करने के लिए अपनी बहुत सारी संपत्ति मेरे नाम करवा चुका है। अपने व्यापार की सारी कमाई भी मेरे हाथ पर लाकर रखता है। जैसे वह मेरे दिमाग़ के अन्दर यह बात बिठाना चाहता था कि ये सब कुछ तुम्हारा ही है।

लेकिन मुझे तो लगता था कि धीरे-धीरे सब कुछ गुम हो रहा है।

अपने आन्तरिक भय के बारे में कुन्तल को क्या बताऊँ... कि मम्मी और मनीष की बढ़ती नज़दीकियाँ ही मेरे भय का कारण है।

मनीष जब मम्मी से मम्मी कहता है तो मम्मी शब्द उसके मुँह में ही दम तोड़ देता है। उसके चेहरे के हाव भाव बदल जाते हैं।

मुझे यह भी महसूस होने लगा जैसे मम्मी का मनीष के प्रति स्वभाव में भी काफी तब्दीली आ गई हो।

मम्मी भी जब मनीष को बुलाती है तो ‘बेटा’ शब्द कहीं खो जाता है।

मैं कुछ और ही सोचने लग जाती हूँ। मुझे और मम्मी को पहली बार मिलने वाले अक्सर धोखा खा जाते हैं। हमें माँ बेटी की जगह बहनें ही समझने लग जाते हैं। लोगों का यह समझना स्वाभाविक ही था... क्योंकि हमारी आयु में... 16-17 साल का अन्तर था। मम्मी के बताने के अनुसार उसकी शादी 10 वीं में पढ़ते ही हो गई थी, जहाँ वह मात्र 16 साल की थी। मनीष मेरे से 6 साल बड़ा है। इस प्रकार मम्मी और मनीष की आयु से सिर्फ़ 10 साल का अन्तर है। वैसे भी मैंने कहीं पर पढ़ा था कि यदि एक दूसरे के प्रति प्रेम भाव हो तो आयु की कोई सीमा नहीं रहती। मुझे तो इस तरह लगता है कि जैसे 10 वर्ष का अन्तर भी मम्मी और मनीष के नए रिश्ते ने ख़त्म कर दिया हो।

इस तरह से गैर कानूनी रिश्ते बनाने की बीमारी तो हमारे इस मध्यवर्गीय लोगों के अन्दर ही है। मम्मी जैसे लोग इस रिश्ते को सिवलाईज़्ड सोसाइटी का क्लैश कल्चर कहकर बड़ा गर्व महसूस करते हैं।

सिवलाईज़्ड सोसाइटी के मैंम्बर होने के नाते मम्मी और मनीष अपने इस नए रिश्ते से काफी ख़ुश हैं... बेहद ख़ुश हैं। मैं क्यूँ उदास हूँ? मुझे इस नए रिश्ते से हिचकिचाहट क्यों हो रही है? मैं ही क्यों अनसिबलाईज़्ड हूँ? बार-बार मेरी अपनी क्लासमेट इन्द्रजीत, और उसके पति जमील आँखों के सामने आ जाते हैं। हमारी तरह उनका भी कोई बच्चा नहीं हुआ। उन्होंने अनाथ आश्रम से कोई बच्चा गोद ले लिया था। कितने ख़ुश और आनंदित है वे दोनों! जब भी उनको मिलती हूँ, तो मैं सोचती हूँ कि हम भी तो अनाथ आश्रम से बच्चा गोद ले सकते हैं। कानूनी तौर पर भी उस बच्चे को अपना नाम दे सकती हूँ। माँ के कॉलम में मेरा नाम ही तो भरा जाना था, और पिता के कॉलम में मनीष का। फिर मम्मी और मनीष को ऐसा करने की क्या ज़रूरत थी। संयोग से उस जिन दिन मम्मी साथ थी, जिस दिन डॉ. डेज़ी ने फाइनल चेकअप के बाद... "नो होप" कहते हुए निराशा के भाव से सिर हिला दिया था। अपनी दो ढाई वर्ष लगातार कोशिश सफल न होने के कारण उसको काफी दुख हुआ था।

"यू शुड प्रेफर इन विट्रो फर्टेलाईज़ेशन...," डॉ. डेज़ी ने मुझे और मनीष को ये बात कहते हुए मम्मी की तरफ बड़े ध्यान से देखा था। सारे रास्ते में डॉ. डेज़ी का मम्मी की तरफ इस भेदभरी नज़रों से देखने का अर्थ तलाशती रही थी।

इस तरह देखने का अर्थ जल्दी ही पता चल गया था। इस अर्थ को समझने के लिए मम्मी की सहेली डी.ए.वी. गर्ल्स कॉलेज की प्राचार्या विभा ने अपना योगदान दिया था। विभा बहुत बोल्ड लेडी है। किसी न किसी मामले को लेकर लेकर चर्चा में रहती है।

"यू शूड यूज़ यूअर मदर," मैडम विभा ने मुझे बड़ी सहजता के साथ कहा था। मैं, मनीष और मम्मी रात के खाने के समय उधर गए थे। लेकिन मेरी समझ में कुछ नहीं आया था।

"यस यूअर मदर केन डू इट... स्टिल शी इज़ यंग," विभा एक भेदभरी नज़र मम्मी के पूरे शरीर पर डालती है। मनीष की नज़रें मम्मी के शरीर पर और ख़ास करके उसकी छाती पर घूमती देखकर मुझे काफी शर्म और गुस्सा आ रहा था। मुझे अभी भी मैडम विभा की बात समझ में नहीं आ रही थी कि वह क्या कहना चाहती है... बस इतना ही समझी कि बात कुछ गंभीर हो रही है। हमारा कुलीन वर्ग भी अजीब है, जो इस तरह की बातों करने के लिये अंग्रेज़ी का सहारा लेता है। शायद इस तरह की बाते मातृभाषा में हो ही नहीं सकती हो।

"आँटी... मैं विमल को ख़ुद समझा दूँगा सारी बातें," मनीष ने प्राचार्य आँटी को ये बातें कही थीं। मैं कितने ही दिन मैडम विभा की इन बातों के इधर-उधर में अर्थ ढूँढती रही। उस दिन तक, मैं उलझन में रही जिस दिन तक मनीष ने मुझे इस बात का सही अर्थ नहीं समझा दिया।

"...विम, प्राचार्य आंटी के कहने के पश्चात् मैं और मम्मा ने, डॉ. डेज़ी के साथ भी डिस्कस किया था। यू नो डॉ. डेज़ी कभी गलत मार्गदर्शन नहीं करती उन्होंने मम्मी का चैकअप भी कर लिया है। ऐवरीथींग इज़ ओके दे केन सोल्व ऑवर प्रोबलम एज़ ए सेरोगेट मदर। हम अपने बच्चे के जन्म के लिए मम्मा की कोख इस्तेमाल कर सकते हैं। दे केन गिव अस अ बेबी।"

रात के समय बल्ब की रोशनी में भी मनीष का चेहरा सफेद दिखाई दे रहा था। गहरी सर्दी में भी मनीष के चेहरे पर पसीने की बूँदें चमक रही थीं।

"...इफ़ यू डोन्ट माइंड.....वी केन...?"

ई ऐतराज नहीं... मम्मा को कोई ऐतराज नहीं... तो मेरे माइंड करने या न करने से क्या फ़र्क पड़ता है? फिर आपने इरादा भी तो बना रखा है... ," मैंने बहुत शान्तचित होकर उत्तर दिया... पर अन्दर से शान्ति नहीं मिल रही थी।

फिर मनीष कितनी ही देर तक बताता रहा... आर्टीफिशयल तरीके से किस तरह उसका वीर्य मम्मी की कोख में रखा जायेगा। मम्मी की कोख से पैदा होने वाला बच्चा उनका अपना खून होगा। इस बच्चे के साथ जो हमारी आत्मीयता बनेगी... वो अनाथ आश्रम से गोद लिये बच्चे के साथ कैसे बन पायेगी? ....अब जब मम्मी की कोख में मनीष का अपना खून पल रहा है... तो मुझे ज्ञात होता है, मेरे पास से तो सारे रिश्ते गुम हो गये हैं।

मैं काफी उखड़ी-उखड़ी से रहने लगी हूँ। गुमसुम सी।

मनीष आजकल काफी ख़ुशी महसूस करता है।

प्राचार्य मैडम भी आजकल फिर ज़ोरदार चर्चा में है। उसकी काले शीशों वाली पैजेरो गाड़ी की पिछली सीट के ऊपर उसके साथ, उससे 20 साल छोटा एक विद्यार्थी बैठता है।

प्राचार्य विभा मम्मी की तारीफ करती हैं, "आप बच्चों की ख़ुशी के लिए इतना सेकरीफाईज़ कर रही हैं दिस इज़ द ग्रेट कोन्ट्रीव्यूशन फोर ओवर सोसाइटी।"

मैं इस मध्यम वर्ग के खोखलेपन पर सोचकर अन्दर ही अन्दर हँस पड़ती हूँ। इस वर्ग में कुर्बानी के भी अपने ही मायने हैं। मेरा दिल करता है कि मैं प्राचार्य को कहूँ कि "स्टुडेंट को गाड़ी में घुमाकर कुर्बानी तो आप भी बहुत बड़ी दे रही हो।"

"रियली शी इज़ ग्रेट वुमेन। शी बीहेवज़ लाईक ए फ़्रेंड... नॉट लाइक ए मदर इनलॉ," मनीष अक्सर मम्मी की तारीफ़ में इस तरह के वाक्य कहता रहता है। मुझे खीझ सी होने लगती है उसके इन शब्दों से, मनीष के चेहरे से प्यार की परत बनावटी सी लगती है जैसे वह नाटक कर रही हो।

मम्मा भी प्राचार्य विभा की अक्सर तारीफ़ करती रहती है। "...ग्रेट लेडी... सारे समाज को वह अपनी जूती की नोक पर रखती है... वह अपने ढंग से ज़िन्दगी जीती है अपना रास्ता आप चुनती है।"

प्राचार्य विभा अपने नये दर्शन के बारे में अक्सर कहती है "युगों से आदमी औरत को यूज़ करता आया है... नाओ वी आर यूज़ीइंद द मैन" वह विवाह नाम संस्था का भी मज़ाक उडाती है। वह अक्सर कहती है "बच्चे की ज़रूरत महसूस हुई तो मैं वीर्य बैंक से वीर्य लेकर बच्चा पैदा करूँगी... इस तरह शादी करके सारी उम्र गुलामी करने का क्या अर्थ है।"

मैं अपनी हालत संबंधी अनुकरणिका को फोन करती हूँ, "तुम अभी भी 18वीं सदी में जी रही हो। दुनिया कहाँ की कहाँ चली गई है... !" उसका यह जबाव सुनकर मैं पत्थर की मूर्ति सी बन जाती हूँ। यह वही अनुकरणिका कह रही है जो कॉलेज में स्टुडेंट लीडर होती थी, और औरत की आज़ादी में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेती थी। यह वही अनुकरणिका है जो औरत की आज़ादी की बड़ी-बड़ी बातें करती थी।

मनीष हर समय घर में आने वाले नए मेहमान की बातें करता रहता है।

मुझे पल-पल अपनी मौजूदगी नष्ट होती नज़र आ रही है।

मैं आने वाले बच्चे के साथ अपने रिश्ते को सोचती हूँ।

फिर मनीष और मम्मी के बने नए रिश्ते के बारे में सोचती हूँ।

फिर मम्मी और अपने नए रिश्ते के बारे में सोचती हूँ।

आजकल मुझे अजीब तरह के दौरे पड़ने लगे हैं। जीभ तलवे के साथ चिपक जाती है। आँखें बाहर निकल जाती हैं। कितने-कितने देर तक बेहोश रहती हूँ... बेहोशी में बड़बड़ाती रहती हूँ। सुनने वाले बताते हैं कि मैं कुरुक्षेत्र-कुरुक्षेत्र चिल्लाती हूँ। डॉ. कुन्तल ने मुझे डी.एम.सी. के माहिर मनोरोगी डॉ. को दिखाने के लिए कहा है।

मैं क्या हूँ... कैसे समझाऊँ सभी को... कि मुझे किसी डॉ. को दिखाने की ज़रूरत नहीं है... ।

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