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लाश-बेशिनाख़्त नंबर-9  

प्लेटफ़ॉर्म तक पहुँचती सीढ़ियों के बिलकुल सामने की दीवार पर एक जगमगाती हुई होर्डिंग जड़ी थी जिसमें नीले आसमान की पृष्ठभूमि में एक युवती दोनों बाँहें फैलाए उन्मुक्त भाव से खिलखिला रही थी। उसकी आँखों में चमक और चेहरे पर आह्लाद था और लम्बे बाल अठखेलियाँ करते हुए हवा में इस तरह लहरा रहे थे मानो हर तरह की बाधाओं-बन्धनों से मुक्त होकर वह उस असीम विस्तार में उड़ान भर रही हो।

प्लेटफ़ॉर्म पर दो खंभों के बीच इधर से उधर आती-जाती एक सचमुच की लड़की थी। उसके कान पर मोबाईल चिपका था और वह बार-बार इधर-उधर इस तरह आ-जा रही थी मानो पैरों के नीचे अंगार हों। इस कोण से देखें तो लगता था जैसे वह पीछे दिखाई दे रही होर्डिंग पर पैर पटकती हुई चल रही हो और कि मानो उस लड़की से सख़्त नाराज़ हो जिसका हँसता-खिलखिलाता चेहरा पीछे से झाँक रहा था। होर्डिंग वाली लड़की के विपरीत यह लड़की ज़ोर-ज़ोर से सुबक रही थी। 

सीढ़ियों से चढ़ कर लोग जल्दबाज़ी में जब प्लेटफ़ॉर्म पर पहुँचते तो उनका ध्यान लड़की की तरफ़ न जाता लेकिन सूनी पटरियाँ देखने के बाद जब वे निश्चिन्त हो जाते कि मेट्रो रेल अभी नहीं आई तो उनके कानों में सुबकियों की आवाज़ पड़ती और चौंक कर वे उधर देखते।

लड़की का चेहरा हालाँकि दिखाई न दे रहा था फिर भी सहज ही अंदाज़ा लग जाता कि वह किसी मॉल, शोरूम, छोटी-मोटी प्राइवेट कम्पनी या एजेंसी में काम करने वाली उन अनेकों लड़कियों में से एक है, जिनके लिए उनकी बस्ती के तंग-अँधेरे कमरों में से बाहर झाँक कर देखने वाली खिड़की कुछ समय पहले ही खुली है। खिड़की के बाहर उन्हें जो दिखाई दे रहा है वह इतना चकाचौंध भरा, मोहक और लुभावना है कि उसे छूने को मन मचल-मचल जाता है लेकिन हाथ की पहुँच से वह बहुत दूर है। खिड़की तो खुल चुकी है लेकिन बाहर निकलने के दरवाज़े अभी भी बंद हैं। अपनी सामर्थ्यनुसार वे बंद दरवाज़ों से बार-बार भिड़ती हैं। कई बार हाथ-पैर तुड़वा लेती हैं, कई बार लहू-लुहान भी हो जाती हैं फिर भी खिड़की से जो दिख रहा है उसे किसी न किसी तरह छू लेने को आमादा हैं। 

अपने मुहल्ले के ब्यूटी पॉरलर से फ़ेसकट के मुताबिक़ कटवाए बालों, चुस्त पेंट-कमीज़ और हाई-हील सैंडिल पहने और कंधे पर सुनहरे रंग का बैग लटकाए यह लड़की उन्हीं लड़कियों में से एक थी। फोन पर बात करती और ज़ोर-ज़ोर से सुबकियाँ लेती हुई वह बड़ी बैचैनी से प्लेटफ़ॉर्म पर इस कोने से उस कोने तक सैंडिल ठकठकाती हुई आ-जा रही थी। लगभग बिलखती हुई आवाज़ में वह ज़ोर-ज़ोर से कुछ टूटे-फूटे वाक्य बोलती और फिर सुबकियाँ लेने लगती जिसके कारण उसकी पीठ बार-बार उचक रही थी।

प्लेटफॉर्म पर यात्री बहुत कम थे जो चुपचाप, निश्चल और सुस्त-से इधर-उधर छितरे खड़े रेल का इंतजार कर रहे थे। ऐसे माहौल में लड़की की इस रूप में उपस्थिति सबके लिए आकर्षण और वक़्त काटने का ज़रिया बन गई। उनमें से ज़्यादातर को पहला ख़्याल तो यही आया कि लड़की का अपने ब्वाय-फ्रेंड के साथ झगड़ा हुआ है। स्टेशन पर, नुक्कड़ों में, पार्कों की बेंचों पर, पेड़ों के नीचे सटे बैठे युवा जोड़ों के दृश्य वे आमतौर पर देखते थे। वे जानते थे कि पंख नये-नये निकले हैं और यह चलन अब आम हो गया है। ऐसे लड़के-लड़कियों को लेकर उनके मन में अदावत और निंदा के अलावा और कोई भावना नहीं थी। लेकिन लड़की की बिलखती आवाज़, सुबकियाँ और उसकी बैचैनी की गहनता को देख कर उन्हें ऐसा भी लगा कि यह दृश्य आम तौर पर जहाँ-तहाँ दिखाई पड़ने वाले ऐसे दृश्यों जैसा नहीं, उससे अलग है। धोखा खाई हुई लड़की ब्वायफ्रेंड से शिकायत करते हुए वह रो रही है, वज़ह सिर्फ़ यही नहीं, इसके अलावा कुछ और भी हो सकती है। कुछ ज़्यादा गंभीर।

तभी मेट्रो रेल के आने की घोषणा हुई तो लड़की तेज़ी से मुड़ी और सिग्नल की दिशा में देखने लगी। अब उसका चेहरा सबको दिखाई दिया। उसकी उम्र बीस-बाईस से ज़्यादा नहीं रही होगी। रो-रो कर उसकी आँखें सुर्ख़ हो चुकी थीं और हाथ में कँपकँपाते रुमाल से वह बार-बार आँसू पोंछ रही थी। फोन पर बात करना और सुबकना अभी भी जारी था। देखने वाले अब सोच में पड़ गये। लड़की के हाव-भाव धोखा खाकर शिकवा-शिकायत करने, उलाहना देने या ग़ुस्से के तो नहीं ही हैं। निश्चय ही यह ब्वाय-फ्रेंड वाला मामला नहीं, कुछ और है। उनके लापरवाही वाले अंदाज़ में अब थोड़ी सरोकार की भावना आ मिली। इस परिवर्तन के कारण पहले तो उनकी सोई हुई सहानूभूति जागी फिर जिज्ञासा ने अँगड़ाई लेकर सिर उठाया। 

रेल के प्लेटफ़ॉर्म पर शीघ्र पहुँचने की घोषणा होने लगी तो फोन पर बात करते हुए लड़की की आवाज़ काफ़ी ऊँची हो गई। इतने फ़ासले से यह समझ पाना तो मुश्किल था कि वह बोल क्या रही है लेकिन उसकी आवाज़ का दर्द हर कोई महसूस कर सकता था। उसके मुँह से निकल रहे टेढ़े-मेढ़े, टूटे-फूटे शब्द ही मानो रो रहे थे। 

क्या उससे कोई अपराध हो गया है?? क्या उसे नौकरी से निकाल दिया गया है? लेकिन ऐसी किसी वज़ह का उसके व्यवहार से तालमेल नहीं बैठ रहा था। क्या उसका कोई प्रिय दुर्घटनाग्रस्त हो गया है? क्या उसे किसी की मृत्यु का समाचार मिला है? लेकिन ऐसा समाचार तो सन्न कर सकता है, नर्वस कर देता है। कोई अपनी भावनाओं पर क़ाबू न भी रख पाये तो उसका प्रकटीकरण हताशा, बेबसी, अकर्मण्यता में होता है जबकि लड़की तो आवेश में और मुखर है। उसकी प्रतिक्रिया ऐसी तात्कालिक भी नहीं जो फोन पर अभी-अभी मिली ख़बर से उत्पन्न हुई हो। बल्कि यह तो ख़बर जब पूरा असर कर चुकी हो, जब वह असर सम्वेदनाओं में पैठ चुका हो, उसके बाद की प्रतिक्रिया है। जबकि वह तो अभी भी फोन पर बात कर रही है।     

लड़की उसी तरह सुबकती और टुकड़ों-टुकड़ों में बात करती हुई आवेश में खट-खट प्लेटफ़ॉर्म पार करके बिलकुल उस सिरे पर जाकर खड़ी हो गई जहाँ नीचे से पटरियाँ झाँक रही थीं। उसकी इतनी सी क्रिया ने देखने वालों पर तुरंत असर डाला। उनकी सोच की सारी प्रक्रिया को ही उलट-पलट कर दिया। खटाक से उनके समक्ष यह कौंधा कि हुआ कुछ भी हो, लड़की का दुःख और उसका सुबकियाँ लेकर रोना, उसके कारण नहीं जो हो चुका है। असल में उसका ऐसा व्यवहार उस बारे में सोच कर है, जो अब होने वाला है। उसके रुदन में जो हताशा है वह उस निर्णय के कारण है जो वह ले चुकी है और जिसे अंजाम देने वाली है। अपने इस निर्णय के बारे में वह उसे भी सूचित कर चुकी है जिससे फोन पर बात कर रही है और अब उसे अपनी बात को सिद्ध करना ही है। यह सब सूत्र मिल कर जिस ख़तरनाक सम्भावना की ओर इशारा कर रहे थे, उसे पहचान कर सब अपनी-अपनी जगह एकदम चौकस-चौकन्ने होकर खड़े हो गए।

नई बन चुकी स्थिति यह थी कि रेल प्लेटफ़ॉर्म पर किसी भी क्षण पहुँच सकती थी, लड़की प्लेटफ़ॉर्म के बिलकुल सिरे पर पटरियों के पास खड़ी थी, वह अभी भी आवेश में बोलते हुए सिसकियाँ ले रही थी, उसे देखने वालों के शरीर तने थे, आँखें चंचल थीं, बार-बार वे रेल के आने की दिशा में तो कभी लड़की की ओर देख रहे थे। कुछ तो कल्पना में समय से आगे लाँघ कर वह सब कुछ अपनी आँखों से देख चुके थे जो आने वाले कुछ ही पलों में घटित होने वाला था... रेल धड़धड़ाती हुई तेज़ गति से प्लेटफ़ॉर्म में घुसेगी और उसके रुकने से पहले ही लड़की पटरी पर कूद पड़ेगी। एक भयानक चीख उभरेगी और लड़की का शरीर चिथड़े-चिथड़े होकर पटरी पर बिखरा पड़ा होगा। इस दृश्य की कल्पना भी रोंगटे खड़े कर देने वाली थी।

प्लेटफ़ॉर्म का मौजूदा दृश्य किसी भी पल बदल सकता है – गुज़र रहा एक-एक पल मानो घंटियाँ बजा कर सबको चेतावनी दे रहा था। इस आसन्न, मर्मांतक दुर्घटना का भय ही था कि प्लेटफ़ॉर्म पर खड़ा एक बुज़ुर्ग, जिसकी नज़र बड़ी देर से उस लड़की पर जमी थी, ख़ुद को रोक नहीं पाया। हौले क़दमों से वह लड़की की ओर बढ़ा और जैसे बड़ी सतर्कता से उससे कुछ कहने लगा। लड़की थोड़ा चौंकी, उसने समझने की कोशिश की कि बुज़ुर्ग क्या कह रहा है, न समझ पाई तो उसने फिर फोन पर छूटी बात का सिरा पकड़ लिया।

तभी बलखाती आ रही रेल का इंजन दिखाई दिया। बुज़ुर्ग ने फिर लड़की से बात करनी चाही। अपने हाथों को उठाता-गिराता हुआ वह उसे समझाने-मनाने के अंदाज़ में कुछ कहने लगा। रेल स्टेशन के पास पहुँच गई तो उसकी कोशिश में तेज़ी आ गई जैसे कि उसकी भूमिका, जिसमें उसने ख़ुद को स्वयं ही डाल दिया था, का समय समाप्त होने वाला हो और काम अभी भी बाक़ी हो। लड़की ने खीझ कर उससे कुछ पूछा तो बुज़ुर्ग की कोशिश में हड़बड़ाहट आ गई। उसे अब कोई शक न रहा कि वह क्या करने वाली है। लड़की के साथ किसी तरह की सहानूभूति की बात वह भूल चुका था। अब सिर्फ़ भय उसके सिर पर सवार था- उस दृश्य का जो कुछ पल बाद ही उसके सामने उद्घाटित होने वाला था। यह ऐसा लाइव एक्शन होगा जो अपनी इतनी लम्बी ज़िंदगी में वह पहली बार देखेगा। उसका डर स्वयं को उस दृश्य के एक पात्र के रूप में देखने का था। चंगी-भली, साबुत शरीर की लड़की उसकी आँखों के सामने पटरी पर कूदेगी और पलक झपकते ही...ख़त्म हो चुकी होगी ! 

बुज़ुर्ग ने एक बार फिर रेल की दिशा में देखा। वह प्लेटफ़ॉर्म में प्रवेश कर चुकी थी। उसकी धड़धड़ाहट की आवाज़ स्टेशन में चारों तरफ़ गूँज उठी। बुज़ुर्ग ने घबरा कर लड़की की तरफ़ हाथ बढ़ाया, विनती-सी करते हुए उससे आख़िरी बार कुछ कहा फिर तेज़ी से उससे दूर हट कर इस तरह खड़ा हो गया मानो उसने स्वयं को उपस्थित होने वाले दृश्य की परिधि में से घसीट कर बाहर निकाल लिया हो। वह वहाँ आ खड़ा हुआ जहाँ अन्य यात्री खड़े थे। अब वह उन सबका हिस्सा बन गया था। ऐसा करके उसे राहत-सी महसूस हुई कि एक भारी ज़िम्मेदारी का बोझ उसके कंधों से उतर गया है। अब जो भी होगा उसमें वह अकेला नहीं, बाक़ी सब भी शामिल होंगे। 

प्लेटफॉर्म पर सनसनी-सी छाई थी। सबके पैर अपनी-अपनी जगह पर मानो जड़ हो चुके थे। सबकी साँस जैसे अटकी हुई थी। सबकी आँखें लड़की पर ही जमी थीं। सबके दिमाग़ों में उस अकेली लड़की के कारण जिस संदेह, आशंका, भय की लहरें उठ रही थीं, अपनी-अपनी सामर्थ्य, तज़ुर्बे और अक्ल के मुताबिक़ वे उनसे जूझ रहे थे। सब उस उपस्थित होने वाले या स्थगित हो जाने वाले दृश्य की संधि-रेखा पर खड़े डगमगा रहे थे। लड़की और धड़धड़ाती रेल के बीच की दूरी निरंतर कम हो रही थी। 

रेल चीं-चीं करती हुई रुकी। यात्रियों के स्वागत में उसने अपने द्वार खोल दिए। आमतौर पर धक्का-मुक्की करके लपकने वाले यात्री अपनी-अपनी जगह से थोड़ा हिले लेकिन रेल में सवार न हुए। सबकी नज़रें अभी भी लड़की पर ही थीं। सबको उसने इस तरह से बाँध रखा था कि मानो जब तक वह इशारा न करे कोई अपनी जगह से हिल नहीं सकता था। वे सब उस डोरी की गाँठ से मुक्त होने के लिए लड़की की स्वीकृति के इंतज़ार में थे।         

फिर सबने देखा कि लड़की आँखें पोंछती हुई डिब्बे में प्रवेश कर गई। अब सब यात्री भी, जैसे एक झटके से डोरी टूट जाने पर सामने खुले हुए डिब्बों की तरफ़ लुढ़कने लगे। जिन्हें सीट मिली चुपचाप बैठ गए, जिन्हें नहीं मिली वे हैंडल पकड़ कर गुमसुम-से खड़े हो गए। रेल फिर से चल पड़ी तो देर तक वे खिड़कियों के शीशों पर बनते-मिटते अपने चेहरों के कटे-फटे अक्स देखते हुए जैसे किसी गहरी सोच में डूबे रहे।

दूसरे दिन अख़बारों में ख़बर छपी कि फलां मेट्रो स्टेशन पर एक युवा लड़की ने रेल की पटरी पर कूद कर आत्महत्या कर ली और कि लाश की अभी तक शिनाख़्त नहीं हो पाई है। 
०० 

सुबह के अभी आठ भी नहीं बजे थे कि एक आदमी उस इलाक़े के थाने में पहुँचा जिसका नाम अख़बार में छपा था। आदमी के कपड़े अस्त-व्यस्त थे, बाल उलझे हुए और शक्ल-सूरत ऐसी जैसे सालों से वह वक़्त की मार सहता आया हो। उसके हाथ में अख़बार का पन्ना था जिसमें बेशिनाख़्त लड़की की आत्महत्या की ख़बर छपी थी। थाना इंचार्ज को उसने बताया कि वह लाश की शिनाख़्त करने के लिए आया है।

यह वही बुज़ुर्ग था जो बीते दिन प्लेटफ़ॉर्म पर सुबकती हुई लड़की से बात करने और उसे कुछ समझाने-बुझाने की कोशिश कर रहा था।

थाना इंचार्ज ने जब उससे पूछा कि वह कौन है और कहाँ से आया है तो उसने अपनी कोई पहचान न बताई। टालमटोल करते हुए वह यही गुज़ारिश करता रहा कि लाश को वह बस एक बार देखना चाहता है क्योंकि उसे शक है कि जिस लड़की के बारे में ख़बर छपी है कहीं वह उसकी बेटी तो नहीं? 

थाना इंचार्ज ने बुज़ुर्ग को मृतक के कुछ फोटोग्राफ्स दिखाए। मेज़ पर रखे फोटोग्राफ्स को सिर झुका कर नज़दीक से वह ऐसे देखने लगा जैसे उन्हें सूँघ रहा हो। देर तक उसका झुका हुआ सिर एक फोटो से दूसरी फोटो के ऊपर डोलता रहा। जब उसने सिर उठाया तो फिर विनती करने लगा कि एक बार वह लाश को देखना चाहता है। थाना इंचार्ज कुछ रहमदिल भी था। उसने कांस्टेबल से बुज़ुर्ग को वह कपड़े दिखाने के लिए कहा जो मृतक ने पहने हुए थे। लेकिन बुज़ुर्ग किसी ज़िद्दी बच्चे की तरह यही दुहराता रहा कि वह तो बस लाश को देखना चाहता है।

थाना इंचार्ज कुछ देर तक बुज़ुर्ग की लुटी-पिटी सूरत को टकटकी लगाए देखता रहा और वह नज़रें चुराता हुआ अस्फुट शब्दों में कुछ बुदबुदाता रहा। आख़िर अपने पर टिकी नज़रों की ताब झेल पाना बुज़ुर्ग के लिए जब मुश्किल हो गया तो अटकते-झिझकते हुए उसे बताना ही पड़ा कि उसकी बेटी दरअसल पिछले पन्द्रह दिन से लापता है इसलिए कपड़े देखने का कोई फ़ायदा नहीं होगा। इतना कहते ही मानो उसकी छिपने की जगह पर से पर्दा उठ गया। लुका-छिपी का खेल और खेले बिना थाना इंचार्ज के आगे उसने अपना दिल खोल दिया। लरज़ती आवाज़ में उसने बताया कि लापता होने से कुछ दिन पहले वह बहुत परेशान थी। शायद उसका किसी के साथ झगड़ा हुआ था। उसने कई बार उसे फोन पर किसी से बात करते और रोते हुए देखा था। अपनी माँ को भी उसने कभी कुछ नहीं बताया। लापता होने के दिन सुबह काम पर जाते हुए वह बहुत उदास लग रही थी। बुज़ुर्ग ने यह भी बताया कि बच्चों में वही सबसे बड़ी है और कि उसकी नौकरी से ही घर का सारा ख़र्च चलता है।

“...अब क्या कर सकता था? रिपोर्ट दर्ज करवाता तो...” बुज़ुर्ग ने बड़ी बेचारगी से इधर-उधर देखा फिर अपने माथे की सलवटों को उँगली से यूँ रगड़ने लगा जैसे उन्हें मिटा देना चाहता हो। 

थाना इंचार्ज बहुत अनुभवी था। वह समझ गया कि बुज़ुर्ग उस सवाल का जबाव दे रहा है जो उसने पूछा नहीं लेकिन बुज़ुर्ग जान गया था कि उससे पूछा जाएगा। इतने दिनों तक लड़की की गुमशुदगी की रिपोर्ट पुलिस में क्यों नहीं की गई, थाना इंचार्ज जानता था कि यह सवाल उसके सामने बैठे निरीह-से दिखने वाले व्यक्ति या उस जैसे अन्य लोगों के लिए कितना गुंजलकों भरा था और कैसे वे इस सवाल के सामने अवाक और असहाय हो जाते थे। उनकी यह असहायता ऐसी ही थी मानो गर्दन से लिपटी किसी रस्सी की जकड़ के कारण छटपटा रहे हों और रस्सी अदृश्य हो। 

सामान्य कार्यविधि तो यह थी कि जब कहीं कोई लाश बरामद होती तो अलग-अलग इलाक़ों की पुलिसबीट को संदेश भेज दिया जाता था कि उनके पास जिन लोगों ने गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज करवाई हैं, उन्हें लाश की शिनाख़्त करने के लिए बुला लिया जाए। इस तरह मामला एक-दो दिन में सुलझ जाता था। लेकिन मामला तब उलझता जब लाश लड़की की होती और गुमशुदगी की रिपोर्ट पुलिस रिकॉर्ड में न होती। थाना इंचार्ज जानता था कि रिपोर्ट दर्ज न करवाने के पीछे कई तरह की पेचीदगियाँ थीं, कई तरह के डर, खटके और अंदेशे थे जो लड़की के साथ हुई किसी दुर्घटना की आशंका से भी अधिक मायने रखते थे। लड़की घर से ग़ायब है - यह ख़बर गली-मुहल्ले में तो नहीं फैल जाएगी? ख़बर फैलेगी तो लोग ऐसा या वैसा तो नहीं सोचेंगे? ऐसा-वैसा सोचेंगे तो तरह-तरह की बातें तो नहीं उड़ेंगी? बातें उड़ेंगी तो आते-जाते हर किसी के ताने तो नहीं सुनने पड़ेंगे अगर ऐसा हुआ तो किसी तरह सहेज-सँभाल कर रखी इज़्ज़त मिट्टी में तो नहीं मिल जाएगी? बिना इज़्ज़त के जीना मुहाल तो नहीं हो जाएगा...? और अगर कोई दुर्घटना न हुई हो बल्कि लड़की ख़ुद ही कहीं चली गई हो तो? अगर ख़ुद चली गई हो तो उसे जबरन वापिस कैसे लाया जा सकता है? क्या किसी दिन वह ख़ुद ही वापिस आ जाएगी? ...ऐसे ही कोंचते हुए सवालों से जूझते, ऐसी ही आशंकाओं से ग्रसित, वे हर रोज़ अख़बारों के पन्नों पर ख़बरें और बेशिनाख़्त पाई गई लाशों के इश्तहार खोजते और दिन-रात का चैन खोकर कभी इस, कभी उस थाने में प्रेतों की तरह भटकते।  

बुज़ुर्ग अभी भी याचना भरी आँखों से थाना इंचार्ज की ओर देख रहा था। उन बूढ़ी, पनीली आँखों में वही सब कुछ था जिससे थाना इंचार्ज का वास्ता आये दिन पड़ता रहता था। कोई सवाल पूछने की उसे ज़रूरत महसूस न हुई तो मेज़ से काग़ज़ का एक टुकड़ा उठा कर उसने उस पर ‘लाश-बेशिनाख़्त नंबर-9’ लिख कर हस्ताक्षर किए और काग़ज़ बुज़ुर्ग को थमाते हुए बताया कि लाश फलां अस्पताल के मुर्दाघर में है जहाँ वह शिनाख़्त करने के लिए जा सकता है। बुज़ुर्ग ने काँपते हाथों से काग़ज़ का टुकड़ा ले लिया।                     

कुछ ही देर बाद थाने में एक और आदमी आया। उसकी बेटी भी पिछले सप्ताह भर से लापता थी। वह भी शव को देख कर तसल्ली करना चाहता था कि कहीं वह उसकी बेटी तो नहीं? अभी वह आदमी वापिस गया नहीं था कि एक और आदमी थाने में घुसा। उसकी बेटी को ग़ायब हुए महीना भर हो चुका था। फिर एक और आदमी आया जो पिछले तीन महीने से हर उस इलाक़े के थाने में जा रहा था जिसका पता अख़बार में छपता कि वहाँ किसी बेशिनाख़्त लड़की की लाश मिली है। 

शाम होते-होते थाने में एक अधेड़ आदमी तो ऐसा भी आया जिसने थाना इंचार्ज को बताया कि वह छह महीने से अपनी बेटी के लौटने का इंतज़ार कर रहा है। उसके लापता होने से पहले ऐसा ख़्याल उसे कई बार आ चुका था कि एक दिन वह घर छोड़ कर चली जाएगी। लापता होने के दिन जब वह घर से निकली तो उसे जाने क्यों ऐसा लगा था कि अब वह लौटेगी नहीं। रात तक वह जब सचमुच नहीं लौटी तो वह समझ गया कि जो डर कुंडली मार कर उसके भीतर बैठा हुआ था वह सच हो गया है। अब वह कुछ नहीं कर सकता था। न उसे ढूँढ़ने का कोई अर्थ था, न गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज करवाने का कोई लाभ। उसके पास करने को बस इंतज़ार बचा था और पिछले छह महीने से वह उसके लौटने का इंतज़ार ही कर रहा था। 

उस आदमी ने थाना इंचार्ज को यह भी बताया कि सारे मामले पर सोच-विचार करने के बाद हालाँकि उसे ऐसी कोई वज़ह नज़र नहीं आती कि लड़की आत्महत्या करेगी या कोई उसकी हत्या करेगा, फिर भी, जब भी वह अख़बार में किसी लड़की की बेशिनाख़्त लाश मिलने की ख़बर पढ़ता है तो उसे लगता है कि ऐसा हो भी तो सकता है, और कि आख़िर क्यों नहीं हो सकता? तब वह सिर्फ़ यह निश्चित करने के लिए लाश को देखने चला जाता कि उसका इंतज़ार ख़त्म हुआ है या नहीं।                  

थाना इंचार्ज के लिए तो नहीं, लेकिन वैसे यह आश्चर्य की ही बात कही जा सकती है कि अगले छह दिनों में शहर के अलग-अलग इलाक़ों से लगभग पच्चीस लोग थाने में आये। सभी की बेटियाँ लापता थीं। सभी यह पुष्टि करना चाहते थे कि कहीं वह लाश उनकी लापता बेटी की तो नहीं? न तो लोगों का आना बंद हुआ और न ही लाश की शिनाख़्त हो पाई। 

सातवें दिन ‘लाश-बेशिनाख़्त नंबर 9’ को मुर्दाघर से शवदाहगृह भेज दिया गया।
 

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