लगता है
काव्य साहित्य | कविता महेश रौतेला15 Jun 2020
लगता है-
अभी अभी तुमने मेरी ओर देखा था,
उस चिड़िया को नहीं
जो सामने उड़ कर गयी,
उस बादल को नहीं
जो आकाश में तैर रहा था,
उस वृक्ष को नहीं
जो वर्षों से खड़ा था वहाँ छायादार बनकर,
उस झील को नहीं
जिसका जल उछल रहा था बेतरतीब,
उस पगडण्डी को नहीं
जो सालों पुरानी थी तुम्हारे नज़दीक,
उस पहाड़ को नहीं
जो अडिग था युगों से वहाँ पवित्र बनकर।
अभी-अभी उठी थीं
तुम्हारी गोल-गोल आँखें मेरी ओर
फिर झुक गयीं आकाश की तरह
क्षितिज बना कर,
और झुकी रहीं लम्बे समय तक।
अभी-अभी मैंने कहा था
कैसी हो तुम?
तुमने बस सिर हिला दिया था
जैसे हवा हिलाती है घास को।
तुम्हारी दृष्टि जो खड़ी हो जाती थी
बार-बार मेरी ओर ज्योति सी,
धरती में ढूँढ़ने लगी थी खोया-खोया संसार।
अभी-अभी तो गाया था मैंने
तड़पता हुआ गीत,
अभी-अभी मेरे क़दम मुड़े थे तुम्हारी ओर,
अभी-अभी अंधाधुंध बर्फ़ गिरी थी
और मैं दौड़ता हुआ आ रहा था तुम्हारी ओर,
हाँफते हुए रुका था समकोण मोड़ पर
आँखों को कुछ नहीं दिखा तुम्हारे सिवाय,
सबकी उलाहनों को छोड़,
प्यार को छू लिया था मैंने धीरे-धीरे
जैसे पहाड़ छू लेता है आकाश को।
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