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 लघुकथा की त्रासदी

प्रिय मित्रो,

इस बार मन लघुकथा की त्रासदी पर बात करने का है। एक साहित्य प्रेमी हृदय की टीस को व्यक्त कर रहा हूँ और आशा कर रहा हूँ कि लघुकथा लेखक या मानद लघुकथा लेखक मेरी बात को अन्यथा नहीं लेंगे।

वास्तविकता यह है कि लघुकथा की दुर्दशा भी वैसे ही हो रही है जैसे कि अतुकान्त कविता की। जैसे एक वाक्य को टुकड़ों में बाँट कर कवि अतुकांत कविता रच डालते हैं उसी तरह, बिना शिल्प की ओर ध्यान दिये, ज़बरदस्ती लघुकथाएँ गढ़ी जा रही हैं। कोई समाचार को लघुकथा का नाम दे रहा है तो दूसरा किसी सामाजिक घटना को। कोई राजनैतिक टिप्पणी को लघुकथा के रूप में प्रस्तुत कर रहा है कोई सास-बहू की नोंक-झोंक को। अगर कोई विषय नहीं मिलता को लोक-कथा के लघुरूप को लघुकथा कह दिया जाता है। साहित्य कुंज के कई अंकों में केवल लघुकथा के स्तंभ को निरन्तर बनाये रखने के लिए ऐसी ही लघुकथाओं को प्रकाशित कर स्वयं को ही शर्मिंदा करता हूँ।

ऊपर जिन परिप्रेक्ष्यों की बात की है वह सभी लघुकथा को जन्म देते हैं, परन्तु लघुकथा नहीं होते। लेखन में जो कमी दिख रही है वह शिल्प की है। लेखक सोचते हैं कि लघुकथा एक आसान विधा है, जो कि ग़लत है। मैं तो इसे कहानी और उपन्यास से भी अधिक कठिन विधा मानता हूँ। लघुकथा लेखक के पास अपने कथ्य को कहने के लिए शब्दों की अपनी सीमा होती है, जिसमें उसने अपने भाव की पूर्ण अभिव्यक्ति करनी होती है। परन्तु ऐसा भी नहीं होता कि कथा को अंत तक लाने से पहले ही समाप्त कर दिया जाए क्योंकि आपने स्वयं के लिए से शब्द-संख्या की सीमा तय कर रखी है।

कहानी में घटनाओं की शृंखला या शृंखलायें हो सकती हैं। उपन्यास के कलेवर में कई कहानियाँ हो सकती हैं परन्तु लघुकथा में ऐसा नहीं होता, नहीं तो वह लघुकथा ही नहीं कहला सकती। लघुकथा में एक मुख्य घटना है जिसका अंत उसे चरम तक ले जाता है। परन्तु उस घटना तक पहुँचने के लिए एक भूमिका के रूप में अन्य घटना हो सकती है – इससे अधिक नहीं। अच्छी कहानी लेखन के सभी गुण लघुकथा में उपस्थित रहते हैं, नहीं तो वह समाचार बन जाती है या सामाजिक टिप्पणी।

आजकल की लघुकथाओं को दुखान्त होना लगभग अनिवार्य हो गया है (लेखकों के अनुसार)। यह लेखन-कला की कमी है। एक-दूसरे को देखकर लिखी लघुकथाएँ ऐसी ही होती है। टी.वी. पर चल रहे सोप-ओपरा के पारिवारिक कलह को लघुकथा के रूप में परोस देने से कोई लघुकथा लेखक नहीं होता। कूड़े के ढेर से किसी नन्हे बच्चे की भोजन की तलाश का आँखोंदेखा हाल भी लघुकथा नहीं होता। यह दृश्य कथानक की नींव हो सकते हैं – परन्तु कथानक नहीं हो सकते। कथानक को गढ़ना लेखक का काम है और उस कथानक को अपने शिल्प से कथा का रूप देना लेखक की सफलता है।

कुछ लेखक बिना कथानक और कथा के, केवल शब्दों का निरुद्देश्य जंजाल सा प्रस्तुत करके ही मानते हैं कि उन्होंने उत्कृष्ट रचना रच डाली है। यह केवल शाब्दिक कलाबाज़ियाँ हैं – कला भी नहीं हैं।

बहुत से लेखक ऐसे भी हैं, जो दिन में दो-चार लघुकथाएँ लिख डालते हैं – उनका कहना है कि "भई अगर अपनी लघुकथा को फिर से पढ़ने के लिए अगर आपके पास समय है तो अवश्य ही आपके पास एक और लघुकथा लिखने का समय भी है"। मित्रो पहले लघुकथा के कथानक को अपने मन में पकने दें, उसे कम शब्दों में प्रस्तुत करने के शिल्प को सोचें। लिखें और उसे फिर से पढ़ें और अपनी रचना की समीक्षा करें कि अपने भाव को प्रस्तुत करने में आप कहाँ तक सफल रहे हैं। क्या आपने सही शब्दों का प्रयोग किया है? क्या आप सफलतापूर्वक अपनी रचना को चरम तक ले जा सके हैं? क्या आप पाठक के मन में वह भाव संप्रेषित कर सके हैं जो लिखते समय आपके मन में था? इस समीक्षा की एक ही शर्त है कि पहले आपको आत्म-श्लाघा का चश्मा उतार कर ईमानदारी के साथ अपनी रचना की विवेचना करनी होगी। संपादक तक रचना पहुँचने से पहले एक बार यह भी देख लें कि रचना में वर्तनी और व्याकरण की ग़लतियाँ तो नहीं हैं।

अपने संपादकीय का अंत में केवल समस्याओं की तरफ़ इशारा करके ही नहीं कर सकता। इन समस्याओं के समाधान के बारे में मार्गदर्शन करना भी मेरा कर्तव्य है। इंटरनेट पर लघुकथा पर बहुत से विद्वानों बहुत कुछ लिखा है। कृपया उसे पढ़ें – चाहे आप स्वयं को सिद्धहस्त लघुकथा लेखक मानते हों – तो भी। कला बार-बार निरीक्षण से निखरती है। कुछ लिंक दे रहा हूँ जहाँ पर लघुकथा के बारे इस विधा के विद्वानों ने विस्तार से लिखा है। आशा है कि भविष्य में उत्कृष्ट लघुकथाएँ पढ़ने को मिलेंगी।

लघुकथा विधा : तेवर और कलेवर
लघुकथा का शिल्पविधान : डॉ.शंकर पुणतांबेकर
लघुकथा अध्ययन कक्ष

सस्नेह
सुमन कुमार घई

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