ली गई थी जो परीक्षा वो बड़ी भारी न थी
शायरी | ग़ज़ल वीरेन्द्र खरे ’अकेला’1 Sep 2019
ली गई थी जो परीक्षा वो बड़ी भारी न थी
हाँ मगर उसके लिए पहले से तैयारी न थी
हाँ ये सच है गालियाँ खाकर भी मैं ख़ामोश था
बेवकूफों से उलझने में समझदारी न थी
दर्द का मरूथल ही फैला दीखता था हर तरफ़
उसके जीवन की धरा पर कोई फुलवारी न थी
पिछले हफ़्ते बेच दी मैंने कलाई की घड़ी
घर में थे मेहमान उस दिन और तरकारी न थी
दोस्तो होना ही था उसको सियासत में विफल
सीधा-सादा आदमी था उसमें मक्कारी न थी
कौन आया था वहाँ मेरी मदद के वास्ते?
उस मुहल्ले में भला किससे मेरी यारी न थी
तोड़ डाला था ‘अकेला’ उनको तेरी फ़िक्र ने
उनके यूँ जाने का कारण कोई बीमारी न थी
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
ग़ज़ल
- गुल को अंगार कर गया है ग़म
- तबीयत हमारी है भारी
- दिन बीता लो आई रात
- फिर पुरानी राह पर आना पड़ेगा
- भूल कर भेदभाव की बातें
- ये घातों पर घातें देखो
- ली गई थी जो परीक्षा वो बड़ी भारी न थी
- वो चलाये जा रहे दिल पर
- सूर्य से भी पार पाना चाहता है
- सोच की सीमाओं के बाहर मिले
- क़ुसूर क्या है
- भले चौके न हों, दो एक रन तो आएँ बल्ले से
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं