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लॉक डाउन की ईदगाह

रमज़ान के पूरे तीस रोज़ों के बाद ईद आई है। किन्तु मनोहारी कुछ भी नहीं। ना वह सुबह है जिसको सुप्रभात कह सकूँ। वृक्षों पर कुछ हरियाली तो है मगर सारे वृक्ष प्यासे प्रतीत हो रहे हैं। खेतों की रौनक़ तो जैसे कोई लूट कर ले गया है, आसमान पर लालिमा नहीं पीलापन दिखाई दे रहा है। आज का सूर्य देखो, कितना उदास है। मानो संसार को बिना ईदगाह वाली ईद की बधाई दे रहा हो।

गाँव में इस ईद पर हलचल तो है ही नहीं। कोई भी ईदगाह जाने की तैयारियाँ नहीं कर रहा। किसी ने भी नए कपड़े नहीं बनवाए। मगर हामिद को कुछ नहीं पता।

उसके पिता जी ने उसके लिए कहीं से नए कपड़े का जुगाड़ कर दिया कि इस ईद पर प्रकृति का सूर्य भले ही उदास हो परन्तु घर में सब के चेहरे पर लालिमा ले आने वाले सूर्य के तेज में कोई कमी ना हो। पर माँ तो माँ है; कह रही है कि सोने दो, उठाना मत मेरे लाल को कहीं ईदगाह जाने की ज़िद ना करने लगे। घर में सब शांत हैं और आज देर तक सो रहे हैं या सोने का नाटक कर रहे हैं। अचानक बिस्तर पर हलचल होती है एक बचकानी आवाज़ आती है – माँ! आज उठाया क्यों नहीं मुझको? देर बहुत हो गई। कपड़े कहाँ हैं मेरे? नहलाओगी नहीं क्या? आज ईद है, भूल गई क्या, कल ही तो चाँद देखा था। दादी अम्मा बोल पड़ीं। लो जाग गई मुंशी जी की ईदगाह!

बड़ी बहन ने प्यार भरे स्वर में कहा, "हामिद बेटा सो जा, रात है, सब सो रहे हैं।"

हामिद बोला, "बाजी मैं घड़ी देखना जानता हूँ। माँ प्लीज़ उठ जाओ बहुत समय हो गया है तैयार कर दो। मुझे ईदगाह जाना है।"

"माँ तुम तो जल्दी उठ जाती हो आज शायद तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है तुम आराम करो," माँ के सर पर हाथ रख कर प्यार भरे स्वर में हामिद बोला।

आज जीवन में पहली बार हामिद ने ख़ुद ही नहाया वो भी सूर्य की गर्मी से गर्म पानी से। कपड़े बक्से से और अलमारी से जूते निकाल कर ले भी आया।

फिर विनती भरे स्वर में बोला पड़ा। "माँ! कुरते में बटन नहीं है," फ़िर ख़ुद से सुई धागा उठा लाया। माँ सब सुन रही है; जान रही है। मगर कोई बात है जो उसको बिस्तर पर ही लेटे रहने पर मजबूर कर रही है। शायद तबीयत ठीक नहीं है या कुछ और जैसी उम्र वैसी समझ। 

अचानक हामिद नन्हे-नन्हे हाथों से सुई उठा कर उस में धागा डालने लगता है; अब माँ की ममता ने माँ को बिस्तर से उठा कर खड़ा कर दिया। माँ वात्सल्य प्रेम दौड़ कर बेटे को गोद में उठा लेती है।  

"नहीं मेरे लाल सुई लग जाएगी," आँसू भरे लहज़े में भर्राई आवाज़ में माँ बोल पड़ती है। 

हामिद की अभागिनी माँ अपनी कोठरी में जा कर रोने लगती है, क्योंकि आज ईद के दिन उसके घर में एक दाना भी नहीं और उन के साहबज़ादे अपनी आँखों में पूरा ईदगाह लिए, नए कपड़े और जूते पहन कर तैयार हो कर अब्बा को ढूँढ़ रहे थे। मानो कह रहे हों, कि रोज़ ईद का नाम रटते-रटते आज ईद आ गई। अब हामिद को जल्दी पड़ी है और लोग हैं कि ईदगाह चलने का नाम नहीं ले रहे। बच्चे हैं साहब इन्हें समाज और गृहस्थी की चिंताओं से क्या मतलब? सेवैयों के लिए दूध और शक्कर घर में है या नहीं, इनकी बला से, ये तो सेवैयाँ खाएँगे। वह क्या जानें कि अब्बा जी क्यों बदहवास चौधरी रियासत अली के घर दौड़े जा रहे हैं!  उन्हें क्या ख़बर कि चौधरी आज आँखें बदल लें, तो यह सारी ईद मुहर्रम हो जाए। बच्चों को क्या पता कि इस अंधकार और निराशा में बूढ़ी दादी माँ बिल्कुल डूबी जा रही है। और बहन कह रही है कि "किसने बुलाया था इस निगौड़ी ईद को? इस घर में उसका काम नहीं।

लेकिन हामिद! उसे किसी के मरने-जीने से क्या मतलब? उसके अंदर प्रकाश है, बाहर आशा। विपत्ति अपना सारा दलबल लेकर आए, हामिद की आनंद-भरी चितवन उसका विध्वंस कर देगी।

उनकी अपनी जेबों में तो कुबेर का ख़ज़ाना भरा हुआ है। बार-बार जेब से अपना ख़ज़ाना निकालकर गिनते हैं और ख़ुश होकर फिर रख लेते हैं। देश किस दौर से गुज़र रहा है उनको क्या परवाह अपना मन चंगा तो कठौती में गंगा।

कोई पड़ोसी भी ईदगाह नहीं जा रहा कि हामिद उसके साथ चला जाए और अब्बा भी इस वक़्त न जाने कहाँ चले गए। उसको क्या पता कि मुंशी जी मौक़े की नज़ाकत देख कर पहले ही नौ दो ग्यारह हो चुके थे और बेचारा हामिद पूरे घर में अपने अब्बा को ढूँढ़-ढूँढ़ कर थक गया था।

लेकिन जब घड़ी देखी तो काफ़ी समय हो चुका था  उस के सब्र का बांध टूट गया और अपनी रोनी सूरत को छिपाते हुए घर वालों से निगाह बचाकर किसी तरह घर के बाहर निकल कर गलियों में अपने अब्बा को उम्मीद भरी निगाहों से ढूँढ़ रहा था।

कभी मुहल्ले की सुनसान गली में दौड़ा जा रहा है।

तो कभी पड़ोसियों के घर भागा जाता है। बाहर गली में ईद की तरह चहल-पहल नहीं थी तो समझा सब ईदगाह चले गए। अब क्या था हामिद के पैरों में तो जैसे पर लग गए हों, भला वह कैसे रुक सकता था?

एक हाथ में गेहूँ का झोला उठाए दूसरे हाथ में पन्नी लिए अकेला बच्चा बिना रुके ईदगाह की तरफ दौड़ता चला जा रहा है।

रास्ता लंबा था इस लिए कभी थोड़ी देर के लिए किसी पेड़ के नीचे खड़े होकर सुस्ताने लगता। शहर का दामन आ गया। सड़क के दोनों ओर अमीरों के बग़ीचे हैं। पक्की चारदीवारी बनी हुई है। पेड़ों में आम और लीचियाँ लगी हुई हैं। कभी कोई सड़क का लड़का कंकड़ उठाकर आम पर निशाना लगाता है और माली अंदर से गाली देता हुआ निकलता है। लड़के वहाँ से एक फर्लांग पर हैं। ख़ूब हँस रहे हैं कि माली को कैसे उल्लू बनाया है!


अब बस्ती घनी होने लगी थी। पहले की तरह ईदगाह जाने वालों की टोलियाँ नजर नहीं आ रही हैं परन्तु इस बच्चे के नन्हे नन्हे पैर, अपनी विपन्नताओं से बेख़बर, अकेलेपन का बिना एहसास किए, संतोष और धैर्य में मगन बिना रुके ईदगाह की ओर खिंचे चले जा रहे थे। इस बच्चे के लिए नगर की सभी चीज़ें बदल चुकी थीं। हर चीज़ की ओर ताकते-ताकते ही मंत्र मुग्ध हो जाता। और पीछे से बार-बार हार्न की आवाज़ होने पर भी सचेत न होता जिस की वज़ह से हामिद कई बार मोटर गाड़ी के नीचे जाते-जाते बचा। गला प्यास से सूखा जा रहा है धूप ने सारी ऊर्जा खींच ली है चेहरा लाल हो गया है। भूख भी बहुत लगी है मगर कौतूहल का ठिकाना नहीं। 

जैसे-तैसे ईदगाह पहुंच कर अजीब मंज़र देखता है; न कोई फकीर है जिसको गेहूँ का सदका दिया जाए और ईदगाह में भी ताला लगा हुआ है। ये क्या हुआ? मन में कई सवाल हैं मगर पूछे भी तो किससे? तभी सुनसान माहौल में एक सफ़ाई कर्मी पर नज़र पड़ी तो नन्हें चेहरे पर मुस्कान दौड़ गई और हामिद उसके पास जा कर बोल पड़ा, "अंकल नमाज़ हो गई क्या?" 

अंकल बोले, "बेटा नमाज़ तो हो गई।" 

हामिद के मन में कई सवाल थे और पिछले साल की ईद का दृश्य उसके मस्तिष्क पटल पर आ रहा था। आशा तो बड़ी चीज़ है ना और फिर बच्चों की आशा! उनकी कल्पना तो राई का पहाड़ बना लेती हैं। वो सैकड़ों लोगों का मिलना, भेंट करना, चाट बताशे वाला, फिरकी खिलौने वाला और बाज़ार की धूमधाम ये सब कुछ नमाज़ के बाद इतनी जल्दी कैसे ख़त्म हो गया? ईदी के पैसे से अपने पसंदीदा खिलौने, व्यंजन आदि ख़रीदना ये सब कहाँ चला गया? इन सब प्रश्नों के कारण हामिद का दिल दुखी था। अब उसके सब्र का बांध टूट चुका था क्योंकि उसे पता था कि इन सब प्रश्नों का उत्तर सिर्फ़ उसके पिता के पास ही मिलेगा। इसी लिए वह फिर से अपने पिता को खोजने लगा। बहुत समय हो गया किन्तु अब्बा जी नहीं मिले अब वह फुटपाथ के किनारे बैठ कर फूट-फूट कर रोने लगा। जब रोते-रोते थक गया तो मस्जिद के बंद दरवाज़े पर सर रख कर अपने ख़ुदा से प्रार्थना करने लग गया, "ऐ मेरे अल्लाह मेरे अब्बा को भेज दो। अब्बा को बुला दो ।"


यह शब्द कहते कहते सिसकियाँ बँध गईं। मगर इस सुनसान सड़क पर, उसकी पुकार सुनने वाला उसके अल्लाह के सिवा कोई नहीं था। इन्हीं सिसकियों के साथ मस्जिद की चौखट पर बंद दरवाज़े के पास थक-हार कर सो गया नन्हा नमाज़ी।
 

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