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लॉकडाउन में माँ की सीख

धप्प!!! रोहित चैन से बेड पे उछल के सो गया। उसने राहत की साँस ली। आऽऽ आऽऽ हा!!

वो अपनी माँ को दीदी के घर छोड़ के वापस आया था। आज रात के बाद "कोरोना वायरस" के कारण प्रधानमंत्री जी ने 'लॉक डाउन' का एलान कर दिया था। कल से कोई कहीं नहीं जा सकता था। एक ज़िले से दूसरे ज़िले में भी नहीं।

ये सुनते ही सबसे पहले रोहित के दिमाग़ में आया- "माँ के साथ इतने दिन अकेले घर में बंद। उफ्फ!!"

ऐसा नहीं था कि माँ से उसे प्यार नहीं था। पर हर दिन ये करो, ऐसा नहीं करो! जब देखो कमरे में आकर बिना मतलब की बातें...। अरे यार! एकांत नाम की कोई चीज़ ही नहीं थी। अपनी ज़िंदगी अपने हिसाब से जीने की सबकी इच्छा होती है। पर नहीं! माँ को तो मैं क्या कर रहा हूँ बस यही जानना होता था।

रोहित ने तुरंत अपनी दीदी को फोन किया। दी! मैं माँ को आपके पास लेकर आ रहा हूँ। दीदी को कोई दिक़्क़त नहीं थी। पर उन्हें मेरी फ़िक्र थी, मैं अकेले, खाना-पीना वग़ैरह- वग़ैरह। 

“अरे दी! मुझे सब बनाना तो आता ही है। मेरा दिन भर ऑफ़िस का काम रहेगा। मैं अकेले रहना चाहता हूँ अभी।”

दीदी जानती थी माँ और मेरी अनबन चलती रहती है। पर उसे ये भी पता था कि माँ ऐसे समय में मुझे अकेले छोड़ कर नहीं जाएँगी।

मैंने दीदी को बता कर एक झूठ बोल दिया, “माँ! जल्दी चलो आपको दी के यहाँ कुछ दिनों के लिए छोड़ आऊँ। कल से मुझे ऑफ़िस के ही गेस्ट हाउस में रहना होगा ताकि ज़रूरत हो तो मैं ऑफ़िस जाकर काम कर सकूँ।”

माँ मान गई। पर रास्ते भर ऑफ़िस वालों को कोसते रही।

“नासपीटे! इन्हें दूसरों की ज़िंदगी का कुछ नहीं पड़ा। अरे! गेस्ट हाउस में कौन आएगा कौन नहीं? साफ़-सफाई वाले होंगे? पर इन लोगों को किसी की नहीं पड़ी। बेटा उधर कोई ख़बर आए कोरोना की तो तुम घर वापस आ जाना। नौकरी इतनी भी ज़रूरी नहीं। तुझे तो कोई भी रख लेगा।” जाते वक़्त बल‌इयां उतारी थीं माँ ने। “बुरी नज़र से बचाए भगवान मेरे बेटे को।” 

माँ भी ना!! रोहित आहें भरते हुए निकल गया।

आज बिस्तर पर सोते हुए इतना चैन लग रहा था। कोई उसे उठाने नहीं आएगा। ना ये कहेगा की गोधूली बेला में सोते नहीं हैं। 

रोहित को तुरंत से नींद आ गई। आँख खुली तो रात के दो बजे थे। उसने मैगी बनाई और टीवी चला के बैठ गया। सुबह के ७ बजे तक टीवी देख सर थोड़ा भारी हो गया। बालकनी में आकर उसने देखा सुबह हो चुकी थी। सड़क सुनसान...। 

अब लगभग हर दिन रोहित का यही नियम हो गया था। कभी भी सोना, कभी भी उठना। दिन में ऑफ़िस का काम। खाना अपने हिसाब से उसे जो मन करता बना लेता था।

दिन में दो बार माँ, दीदी फोन कर ही लेते थे। वहाँ बच्चों का शोरगुल था, रौनक़ सी लगती बात करते वक़्त। माँ का भी मन लगा रहता था वहाँ। बस एक ही फ़िक्र थी कि मैं ठीक रहूँ। खाना ही खाया हूँ या ऊटपटाँग सा कुछ, जैसा अक्सर खा लेता था। यही सारे सवाल। रोहित ऑफ़िस का काम बता जल्दी से फोन रख देता था।

 उफ़्फ़! गहरी साँस लेते हुए रोहित ने अपने आप से कहा, "माँ भी ना!"

लगभग एक महीना गुज़र गया लॉकडाउन में। रोहित पहले शाम या सुबह पार्क में दौड़ लगाने जाता था। अब वो भी बंद था। थोड़ी घुटन सी होती थी कभी-कभी अपार्टमेंट में। बस बालकनी थी जहाँ थोड़ा खुला-खुला लगता।

माँ अक्सर कहती थीं, “कुछ गमले लगा ले बेटा बालकनी में, पौधे रहते तो लगता वातावरण शुद्ध है। ये आँखों और हृदय दोनों को भाते हैं।” रोहित बात टाल जाता था, लगता पार्क तो चले ही जाते हैं। अब घर में कौन इतनी झंझट मोल ले।

आज रोहित ख़ुद वो शुद्धता तलाश रहा था घर में बंद होने कि वज़ह से। उसने इंटरनेट से घर पे बीज से पौधे कैसे लगाते पढ़ा। घर के ख़ाली डिब्बे निकाल, मिट्टी नीचे से लाकर, सब में बीज डाले। किसी में धनिया, किसी में टमाटर। काम करते-करते उसे हँसी भी आ रही थी कि माँ आएँगी तो ये सब देख ख़ुश हो जाएँगी और मेरी ठिठोली भी बनाएँगी।

दिनभर ऑफ़िस के काम से रोहित का सर दर्द होने लगा। रात देर तक टीवी देख सोना फिर दिन भर कंप्यूटर। सर इतना भारी रहने लगा कि रोहित ने टीवी बस न्यूज़ सुन बंद कर दिया।

“आज कोई किताब पढ़ता हूँ। हम्मम! क्या पढ़ूँ?” रोहित तो किताबें ख़रीदता ही नहीं था। माँ कहती, “बेटा अच्छी किताबें ख़रीद के पढ़नी चाहिएँ। तुम ये जो मोबाइल पे पढ़ते हो ना इससे आँखों पे असर होगा।” 

“चलो माँ की ही कोई किताब पढ़ लेता हूँ...” सोचते हुए वो माँ के कमरे में गया। आज यहाँ बड़ा सुकून सा लगा उसे। रोहित ने इस कमरे को बंद कर रखा था। कौन रोज़ इसकी भी सफ़ाई करे। पर माँ का कमरा साफ़ ही था। चीज़ें अपनी जगह पे। कोई चीज़ बेतरतीब नहीं।

रोहित को माँ की आवाज़ सी आई। “बेटा! चीज़ें सलीक़े से रखीं हों तो जीवन भी सलीक़े में रहता है। बेतरतीब ज़िंदगी जीने से मानसिक उलझन बनी रहती है।” फिर माँ का भाषण शुरू हो उससे पहले वो वहाँ से निकल जाता।

वो मुस्कुरा दिया। माँ के कमरे में भी माँ के भाषण गूँजा करते हैं। फिर उसने अपने हिसाब से एक किताब उठाई और अपने कमरे में आ गया। उसने सबसे पहले अपना बिस्तर सही किया फिर पूरा कमरा ठीक कर किताब लेकर बैठ गया। 

रोहित अच्छा महसूस कर रहा था। किताब ज्ञान की बातों से भरी पड़ी थी पर आज उसे पढ़ते वक़्त बोरियत नहीं हो रही थी। उसे अच्छा लग रहा था जैसा माँ ही सब कह रही हों।

आज रोहित ने उठते ही दीदी को फोन किया। रोहित बिना काम फोन करता नहीं था। माँ ही रोज़ फोन करती थीं। 

दो बार की घंटी में ही उधर से माँ ने उठा लिया। घबराई आवाज़ में बोली, "क्या हुआ बेटा? तुम ठीक हो? रात खाना खाए थे? तबीयत ठीक है ना?" 

रोहित हँसा, "माँ! साँस तो ले लो। मैं बिल्कुल ठीक हूँ।”

 माँ ने तेज़ साँस छोड़ी। रोहित को लगा कि जैसे मैं ठीक हूँ तभी वो साँस ले पाई हों।

 “यूँ ही फोन किया था माँ। रोज़ काम में वक़्त नहीं मिलता था, सोचा आज सुबह ही बात कर लूँ।”

 माँ ख़ुश हो गई थीं। शायद रोहित का उन्हें याद करना उनके जीवन की कोई उपलब्धि थी।

“मैं कहती थी ना तुझसे कि मैं मोबाइल पे आऊँगी तभी तू मुझसे ख़ुद से बात करेगा। वक़्त ही नहीं होता तेरे पास,” वो हँस पड़ीं।

“माँ फिर कोई भाषण शुरू मत करना!” रोहित भी कह के हँसने लगा। तभी दीदी की आवाज़ आई। “माँ दो ना, अरे! बताने तो दो।” फोन कट हो गया।

रोहित ने फिर फोन नहीं किया। कौन फँसे माँ दीदी कि बातों में! वो अपने काम में लग गया। 

आज दिन थोड़ा अच्छा लग रहा था। समय से सोने से नींद पूरी हुई। बालकनी में छोटे-छोटे पौधे निकल आए थे। आज उसने मंत्र चला दिया था। 

माँ कहती थी शोर वाले गाने सुबह से सुन मन दिनभर शोरगुल वाला हो जाता है। मंत्र, भजन सुना कर बेटा। आज वही सुनते हुए काम करना अच्छा लग रहा था। 

उसने आज माँ का भी कमरा साफ़ किया था।

लॉकडाउन में दूसरी ही ज़िंदगी जीने लगा था वो। नहीं तो ऑफ़िस, उसके बाद दोस्तों के साथ पार्टी या देर रात सिनेमा। उसके पास बिल्कुल भी वक़्त नहीं होता था। 

 और माँ! 

उन्हें जब मौक़ा मिलता रोहित के इर्द-गिर्द घूमते रहतीं। कभी खाना देने के बहाने, कभी घर की बढ़ी-घटी चीज़ों को बताने। रोहित को लगता था माँ उसके गर्दन पर सवार रहतीं हैं। इसलिए तो वो बहाने से दी के पास छोड़ आया था उन्हें।

उसने फिर से फोन उठा लिया। इस बार माँ के नंबर पे ही काल किया। कई बार घंटी गई,  किसी ने नहीं उठाया।

 अरे! सुबह तो दीदी का फोन भी जल्दी से उठा लिया मेरा नंबर देख। अब कहाँ गई? ...सोई होंगी। उसने वक़्त देखा। दिन के ३ बजे थे। इस वक़्त लेटती तो हैं। दी को फोन कर देख लेता हूँ।

दी का फोन मिताली ने उठाया। “मामू!” वो रो रही थी। 

"अरे! क्या हुआ मिताली? दीदी ने डाँटा क्या? ज़रा माँ को फोन देना," वो भी एक साँस में बोल रहा था। जैसे माँ बोल रही थी सुबह। उसे जल्दीबाज़ी लग रही थी माँ से बात करने की।

“मामू! नानी को हॉस्पिटल ले गए मम्मी, पापा। कल रात ही उनका बी.पी. बहुत कम हो गया था। वो बेहोश हो गईं थी। माँ रात ही हॉस्पिटल ले जा रहीं थीं पर डाक्टर ने दवाई बता दी। आज लाने को कहा था। सुबह वो आपसे बात कर इतना ज़्यादा ख़ुश थीं कि हमें लगा वो ठीक हो गईं। उन्होंने हॉस्पिटल जाने से मना कर दिया। पर अचानक थोड़ी देर पहले मैं उन्हें उठाने गई तो ....”

"तो क्या मिताली? बता ना।"

“उनकी साँसें नहीं चल रहीं थीं मामू!!” वो काँपती आवाज़ में चिल्ला उठी।

मिताली को क्या समझ आता है। रोहित ने एक बार को झटका ख़ुद को। ग्यारह साल की बच्ची है वो।

उसने फोन काट दिया।

पागल है मिताली। माँ ने सुबह कितने अच्छे से हँसते हुए बात की। दी कुछ बताना चाह रही थीं, बताने नहीं दिया। क्यों?

फोन की घंटी से वो चिहुंक गया। जीजाजी; फोन स्क्रीन पे आ रहा था। उसने लपक के उठा लिया। 

“हैलो! हैलो!” जैसे उसे समझ ही ना आ रहा हो कुछ।

"रोहित! माँ!!" दीदी बोली।

“दीदी माँ को फोन दो। मुझे बहुत ज़रूरी बात कहनी है। मैं ना, उनके भाषण सुनने को तरस गया हूँ। दी फोन दो माँ को,” वो चिल्ला रहा था।

उधर से दी के बस रोने कि आवाज़ आ रही थी। जीजाजी ने फोन ले लिया।

“रोहित माँ हमें छोड़ के जा चुकी हैं। वो तुमसे बात कर बहुत ख़ुश थीं सुबह इसीलिए शायद अब चैन से चलीं गईं। शायद उन्हें बस तुम्हारा ही इंतज़ार था। तुमने उन्हें याद किया ये सुबह से ४-५ बार बता रहीं थीं। फिर खा के सोने गईं तो उठीं ही नहीं।”

रोहित के हाथ से फोन गिर गया। वो भागता हुआ कभी माँ के कमरे में जाता कभी पुलिस स्टेशन फोन करता। पर एक ज़िले से दूसरे ज़िले में जाने की इजाज़त नहीं थी। इजाज़त मिल जाने और जाने में दो दिन लग जाएँगे।

इसीलिए वो माँ को वहाँ छोड़ आया था ताकि चाह के भी वो आ ना सके और रोहित चैन से अपने हिसाब से रहे।

आज माँ कि अंतिम यात्रा वो मोबाइल पे देख रहा था। माँ कहती थी एक दिन तुझसे मिलने मुझे लगता है मोबाइल पे ही आना पड़ेगा क्योंकि सामने तो तू बात करता नहीं है।

माँ मोबाइल पे आ गई थी मुझसे मिलने। रोहित का मन उसे धिक्कार रहा था। संताप से अंदर ही अंदर घुटन हो रही थी उसे। आज वो माँ से उनका वक़्त माँग रहा था।

पर वक़्त निकल चुका था। माँ जा चुकी थी। रोहित ख़ाली हो चुका था। उसके पास वक़्त था पर भाषण देने के लिए माँ नहीं थी।

दीदी ने बताया था माँ रोज़ कहती थीं, “रोहित के ऑफ़िस वालों को आग लगे। आज सबके बच्चे घर वालों के साथ तो हैं। अभी रोहित मेरे साथ होता अगर ऑफ़िस वालों ने उसे वहाँ ना रखा होता। ये वक़्त भी उन लोगों ने मुझसे छीन लिया।” 

आत्मग्लानि से भरा रोहित माँ की किताबों में उनके भाषण ढूँढ़ रहा था।

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टिप्पणियाँ

hem 2020/05/15 05:07 PM

दिल को छूने वाली कहानी

rakesh 2020/05/11 06:21 PM

marmikk

सुमन कुमार घई 2020/05/05 04:31 PM

बहुत अच्छी कहानी है और अंत तक मुझे बाँधे रखा। मोबाइल पर माँ का आना बहुत मार्मिक लगा।

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