अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

लोकपाल बिल

मैं अनशन पर बैठा हूँ, मेरे साथ मेरे कुछ सहयोगी मंच पर, मेरे साथ विराजमान हैं। मंच के ठीक नीचे जनता की भीड़ हाथों में लोकपाल बिल के पोस्टर लेकर खड़ी हुई है। बड़ा पंडाल लगा हुआ हैं, जनता के नारों की आवाज़ चारों दि्शाओं के कोनों में गूँज रही है- "लोकपाल बिल लागू होगा, सरकार को झुकना पड़ेगा, लोकपाल...!"

सब की नज़रें मुझ पर टिकी हैं, मैं खाली पेट आमरण अनशन पर अधलेटा बैठा हूँ, लोकपाल बिल पारित करवाने के लिए।

बाहर से पुलिस की टोलियाँ आती हैं, लाठी चार्ज करती हैं और मीडिया वाले सीधा प्रसारण टी.वी. पर कर रहे हैं। पुलिस के लाठी-चार्ज से भीड़ में भगदड़ मच गई है, सब अपनी-अपनी जान बचाने में लगे हैं। पुलिस वाले मंच पर चढ़कर लाठियों के प्रहार करने लग जाते हैं। मैं चिल्लाता हूँ- "हम डरने वाले नहीं, लोकपाल बिल लायेंगे...!"

श्रीमती जी ने पंलग पर आकर मुझे जगाते हुए पूछा, "क्या हो गया, सोते-सोते भी क्या बोल रहे हो?"

मैं नींद से जागता हूँ, अपनी नज़रें चारों ओर दौड़ता हूँ, देखता हूँ, मैं कमरे में पंलग पर लेटा हूँ और श्रीमतीजी मेरे सामने खड़ी हैं।

"क्या हुआ, कुछ कहोगे भी?" श्रीमतीजी ने पुनः सवाल दोहराया।

"कुछ नहीं, स्वप्न देख रहा था।"

"डरावना।"

"नहीं।"

"तो कैसा स्वप्न?"

"लोकपाल बिल..."

"अब तो स्वप्नों में भी लोकपाल बिल दिखने लगा है आपको?"

मै हैरानी के साथ, ख़ामोश सा श्रीमतीजी की ओर देखता हूँ।

श्रीमती जी ने समझाते हुए कहा, "टी.वी. पर समाचार कम देखा करो, अब तो कोई भी सीरियल देखने ही नहीं देते। टी.वी. का रिमोट लेकर बैठ जोते हो, समाचार देखने, लेकिन अब आज से ही बंद आपका समाचार देखना।"

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

105 नम्बर
|

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते…

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी

ग़ज़ल

लघुकथा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं