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लोकतंत्र से अपना हक़ माँगते थर्ड जेंडर

(रचनात्मक संसार का लेखा जोखा)

 

"मुन्नी या दीपिका (या प्रियंका, शबनम, रोज़ी, श्रीदेवी, माधुरी और अब आलिया आदि) का मोक्ष गमन हो गया है। तीये की बैठक सामुदायिक भवन में कल शाम चार बजे होगी। पुण्यात्मा की शांति के लिए आप सभी प्रार्थना सभा में आएँ।"

कभी आपने अख़बार में यह पढ़ा है? कभी हॉस्पिटल में आज तक किसी किन्नर को भर्ती होते इलाज होते देखा? कभी लगा भी कि थर्ड जेंडर (किन्नर, वृहन्नला) हमारे जैसे इंसान हैं? कभी आपने बचपन से बुढ़ापे तक कभी खेले-कूदे, बात की, किताबें दीं इन्हें? कभी घर बुलाया? कभी घर गए? आपसे ही नहीं तमाम प्रगतिशीलों स्वयंसेवकों, मौलवियों, पुजारियों, चर्चों, नेताओं आदि से यह प्रश्न है। उत्तर जो आपका है, उससे अलग इनका नहीं। एकाध अपवाद हो, जो वोट या किताब के लिए, अपने स्वार्थ के लिए इनके पास गया हो। वरना नहीं. . . क्यों? 

देश के हज़ारों साल के इतिहास, परम्परा को बरक़रार भले ही रखें- ठीक है। पर आज़ादी के बाद से भी देखना प्रारम्भ करें तो आपको एक डॉक्टर, प्राध्यापक, इंजीनियर, क्लर्क, चपरासी किसी भी निजी या सरकारी संस्था में दिखा थर्ड जेंडर वर्ग से? क्यों नहीं?

इसके जवाब के पीछे छुपा है हम भारतीयों की कथनी करनी में बड़ा अंतर। छुपा है यह कि हम अभी भी 21वीं सदी के तीसरे दशक तक भी नहीं ला पाए एक भी तकनीकी शिक्षा में इनमें से किसी एक को। हम बाहर से कैसे भी हों पर अंदर से क्रूर, जल्लाद क़िस्म के हैं हम। जानवरों से… ज़रा बेहतर नहीं बल्कि बहुत-बहुत बदतर।

नायपाल कहते हैं कि "हम एक सांस्कृतिक परंपरा और अतीत के क्षय वाले समय में जी रहे हैं। इसने अपने ही समाज, राष्ट्रीय संस्कृति और धर्म से हमारी दूरी को बढ़ाया है। हमें भारतीय राष्ट्र को समझना है तो मनुष्य के बारे में भारतीय अंतर्दृष्टि को जानना होगा।" यह (decay) क्षय विशेषकर सम्वेदनाओं, रचनात्मकता और समझ के क्षेत्र में अधिक होता है तो वह किसी भी देश की जड़ों पर चोट करता है। इंसान इंसान में कई आधारों पर अंतर होते हैं, होने भी चाहिएँ (जेनेटिक कोड के कारण)। लेकिन उसके आधार पर मूलभूत अधिकार, सम्वेदनाएँ और उसकी आज़ादी तो हम नहीं छीन सकते। न ही हमें छीननी चाहिए। न ही हम किसी के बारे में भी फ़ैसला-कुन हो सकते हैं।

कहाँ से और कब तक कहें सच

इसमें यह और जोड़ लें कि किससे कहें यह सच? सभी तो बराबर के शरीक हैं इस गुनाह में। और यह भी कि अधिकांश को तो जन्म होते ही मार दिया जाता है (बच्चा मरा पैदा हुआ)। इस अज्ञानता, ज़हालत में कि यह जीवित रहा तो क्या तो इसका जीवन होगा और क्या भविष्य? ऊपर से घर में रहा तो घर का सत्यानाश (रूढ़ियाँ यही सिखातीं हैं पीढ़ी दर पीढ़ी)। तो हमारे सभ्रांत लोग उस नवजात की भलाई के लिए, भविष्य के कष्टों से मुक्ति दिलाने के लिए हत्यारे बन जाते हैं। जो कुछ दयालु होते हैं तो वह उस नवजात को उठाकर घूरे पर फेंक आते हैं, जहाँ आवारा पशु सूअर, कुत्ते उसका भक्षण कर डालते हैं। (यह तो ज़रूर आप अपने शहरों में अख़बार में कभी-कभी पढ़ते होंगे)। इसमें माँ नौ माह पेट में रखकर जन्म देने वाली की सहमति नहीं ली जाती। वह तो प्रसव के बाद निढाल पड़ी होती, अपने से होने वाले प्रश्नों के जवाब डरते-डरते ढूँढ़ रही होती है। कभी कुछ कहती भी है तो उसे चुप करा दिया जाता है।

वैसे यह प्रश्न यहाँ उठता है कि एक स्वस्थ शिशु के पेट में आने से जन्म देने तक की प्रक्रिया, प्रसव पीड़ा और एक अधूरे जननांग के साथ जन्म लिए शिशु की प्रसव पीड़ा में तो कोई अंतर नहीं होता। या होता है? तो फिर उसकी नियति इतनी नरक समान क्यों?

आज की पीढ़ी अधिक समझदार है। आख़िर साइंस ने इतनी तरक़्क़ी क्यों की है? वह सोनोग्राफी आदि से प्रारम्भ में ही कोई गड़बड़ी पाती है तो यहाँ माँ की सहमति से अबोर्ट कराकर चुपचाप घर आ जाते हैं। झूठ और बहाने तो हम भारतीयों की ज़ुबान से ऐसे निकलते हैं जैसे वैदिक देश में यही ज्ञान हमने पूरा लिया है।

यह हैं वह रूढ़ियाँ और अंधविश्वास जो आज भी इस देश के कोने-कोने में मौजूद हैं, हमारे ही अंदर।

दरअसल हम यह नहीं समझ पाते कि हमारे बचपन से देखी-सुनी, घोटकर हमें पिलाई बातें, सोच सब सही नहीं है। उनमें से ज़्यादातर ग़लत हैं। हम अपने पिता, माता की लिगेसी को जब आगे बढ़ाते हैं तो उनमें यह ग़लत परम्पराएँ भी हम बढ़ा रहे होते हैं।

कठोपनिषद का श्लोक है, "स्वर्गलोका अमृतत्वम भजन्ते। ऐतददिवतीय वृने वरेण॥" अर्थात स्थूल देह के नाश के बाद, जिसे मृत्यु कहा है, सूक्ष्म शरीर शेष रहता है। यह बात बताती है सभी स्त्री, पुरुष किन्नर में आत्मा रूपी सूक्ष्म शरीर विद्यमान रहता ही है॥ (1/1/13)।

तो जब आत्मतत्व समान है, निराकार का अंश है तो भेदभाव क्यों? एकोहम तत्त्वमसि अयमात्मा ब्रह्म सभी उद्धरण वेदांत के यही बताते हैं कि आत्मा-आत्मा में भेद नहीं। वह एक ही ब्रह्म स्वरूप है। लेकिन उसे बार-बार, हर युग में, हर जगह, और हमारे अलग-अलग समाजों में उसे समझाने और जीवन में उतारने का पाठ कौन देगा? और देगा तो उस पर अमल कौन करेगा? इन्हीं विसंगतियों के मध्य चलते हैं हम और चलते हैं थर्ड जेंडर, किन्नर। जो बिल्कुल ही कुछ नहीं माँगते, लड़ते नहीं समाज, परिवार से। पता नहीं क्यों मुझे वह ज़्यादा समझदार और सहज लगते हैं। चुपचाप अपने जीने की राह, जो जबरन बना दी गई इनके लिए, पर चलते रहते हैं। और पेट भरना है तो जो काम मिला, वह करते गए।

सच्चाई से कोसों दूर निर्मम यथार्थ

"इनकी दुआएँ फलती हैं। ले मेरी बहु को, घर को दुआ तो दे।" 

"इन्हें नाराज़ नहीं करते, बद्दुआ दी तो बुरा होता है।"

"चल हट भाग यहाँ से, जब देखो माँगने आ जाते हैं।"

(यह तो वह हैं जो सफ़ेद और उजली उपमाएँ हैं)।

जो ख़ुद अपना वर्तमान भविष्य नहीं सम्भाल सके वह भला किसी का क्या बिगाड़ेंगे?

यह सच्चाई भी जान ही लें कि यह सभी स्त्री वेश में ही क्यों होते हैं? जबकि यह आधे मर्द और कुछ तो बाक़ायदा मज़बूत डील-डौल के आधे से अधिक मर्द होते हैं, फिर भी स्त्री ही बने नज़र आते हैं? इसका जवाब छुपा है सदियों पुराने पेशे और पुरुष प्रधान सामाजिक व्यवस्था में। जो गणिकाओं की मौजूदगी भी हर युग में मानती है। आम्रपाली जैसी अत्यंत रूपवती और विदुषी नारी को भी गणिका ही बनाती है। भले ही स्वयं बुद्ध उसे आगे धम्म में लाए। और उससे पूर्व उसके आतिथ्य को स्वीकार भी किया (थेरी गाथा वैशाली प्रकाशन, बिहार)। स्त्री के रूप में होने से एक तो गाने बजाने में सुविधा होती है। दूसरे जो मुख्य कारण है हमारे देश में वह है यौनाचार। जी बाक़ायदा कई जगह रात के अँधेरों में तो कई जगह दिन में भी इनके साथ अप्राकृतिक मैथुन होता है। स्वाभाविक है हमारे गौरवशाली देश में चूँकि यह ख़ुद अपूर्ण हैं, तो यह तो करेंगे नहीं। तो देश के लोलुप, कामी या अपराधी, शौक़ीन पुरुष इनके साथ यह सब करते हैं। (जितना सोचोगे हालात उससे भी ख़राब हैं) जिस देश में ऑनलाइन सबसे ज़्यादा सर्च करने वाली शख़्सियत अमिताभ, रणवीर सिंह, दीपिका पादुकोण, कंगना रनोट न होकर पोर्न स्टार सनी लियोन हो तो वहाँ जो न हो कम है।

किन्नरों से हमने रोज़गार सम्मान, समाज परिवार सब छीन लिया। यौनशोषण अपराध के रास्ते पर भी धकेल दिया। ऐसा और इस स्तर का शोषण की जिन किन्नरों से कुछ सीधे लोग भय खाते हैं, वही किन्नर लोगों के शोषण से दुखी होकर फूट-फूटकर रोने लगे। कराह उठे। आत्मा तक को गंदा करने की हद तक शोषण।

जबकि यह निश्चित है कि भले घर के पति-पत्नी से ही यह संतानें जन्मीं। किन्नरों को तो भगवान ने यह हक़ दिया ही नहीं। तो जिसमें ग़लती नहीं उस नन्ही जान की, जो फेंक दी गई। उसमें सारा दण्ड नरक से बदतर जीवन उसका क्यों? और भी दिल दहल जाएगा जब आप यह जानोगे की कुछ घरों में हिम्मत करके ऐसे बच्चो को रखा दस-पन्द्रह वर्ष की आयु तक।उन्हें स्कूल भी डाला (मेरे देश में अच्छे लोग भी हैं)। परन्तु किसी ने रहस्य खोल दिया और सोचें ज़रा आराम से माता-पिता के साथ सामान्य ज़िंदगी जीता बच्चा अगले ही दिन समाज के दबाव में सौंप दिया जाता है किन्नर समुदाय को।

कितना लोमहर्षक, क्रूर है यह यथार्थ इसकी आप और हम कल्पना भी नहीं कर सकते। कोई क़ानून नहीं कि उन्हें अपना बच्चा नहीं देना। वह पालेंगे उसे। कुछ अपवाद हैं पर करोड़ो में एक या दो।

रचनात्मक संसार मे किन्नर विमर्श

अफ़सोस पर यह निर्मम सच्चाई (और दुखद भी) है कि तीन चौथाई सदी से अधिक किसी भी युग में किन्नर विमर्श उनकी समस्या उनके जीवन पर गंभीरता से कार्य नहीं हुआ। कोई हो चाहे लाला हरदीन हो, द्विवेदी युग, नई कहानी त्रियी, छायावादी से लेकर अकविता, अकहानी, उपन्यास कोई भी नाम लें किसी ने भी इन्हें मनुष्य मान इनपर कोई आलोचना, लेख न लिखा। न इस योग्य समझा। रामचन्द्र शुक्ल, द्विवेदी, निर्मल वर्मा, जैनेंद्र, सोबती, भारती मोहन राकेश, यादव, कमलेश्वर, महादेवी, वृंदावनलाल वर्मा, काशीनाथ सिंह, विश्वनाथ त्रिपाठी, नरेंद्र कोहली आदि कोई भी नाम लें किसी ने भी गम्भीरता से चिंतन करना तो दूर इन्हें पढ़ने योग्य भी न माना। यह दोहरापन रहा है बराबर हिंदुस्तान की पढ़ी-लिखी पीढ़ी में तो कुछ ज़्यादा ही। प्रगतिशील जनवादी, साहित्य परिषद सभी इनसे दूर ही रहे। तो फिर नई पीढ़ी लेखकों से क्या उम्मीद रखें? जो चमचागिरी से आए उन्होंने तो नहीं पर कुछ जो धरती से स्वतः ही बीज से अंकुरित हुए बिना खाद=पानी (इसे आक़ा और गुटबाज़ी विहीन पढ़ें) उन्होंने आगे ज़रूर सोचा और इन पर लिखा।

(अ) फ़िल्म संसार

हिजड़ों को (जी हाँ यही शब्द था पहले इनके लिए। अब तो कई हकदार हैं इसके) फ़िल्मों में हँसी-मज़ाक या ताली पीटते माँगते ही दिखाया कभी कभी।

पर पहला गंभीर प्रयास और बहुत ही ग़ज़ब का अस्सी के दशक में फ़िल्म कुँवारा बाप, (निर्माता निर्देशक महमूद) से हुआ।जिसमें पहली बार किन्नर बस्ती और उनके साथ रहते ग़रीब मज़दूर, रिक्शावालों की सामान्य भावनाओं और सुख-दुख में भागीदारी को दिखाया गया। दिलीप, देव, राजकपूर, राजेश खन्ना, राजेन्द्र कुमार आदि धन्ना-सेठ एक्टर को क्या कहें जिन्हें सूझता ही नहीं। परन्तु इप्टा ख़्वाजा अहमद अब्बास, सत्यजीत रे, मंटो, राजेंद्र किशन बेदी, बलराज साहनी, सलीम जावेद आदि को क्या कहें जिन्होंने कहानी, गीत कुछ भी इनके लिए नहीं सोचा। न इनकी आवाज़ को स्वर दिया। शर्मनाक पर सच है।

ऐसे में महमूद, एक सामान्य अपनी मेहनत और टेलेंट से, ग़रीबी से उठकर अपनी जगह बनाने वाले कॉमेडियन ने यह काम किया। ऐसा कि उन्हें हमेशा के लिए फ़िल्मी ही नहीं, अदबी जमात में भी अग्रणी स्थान दिला गया। थर्ड जेंडर को केंद्र में ही नहीं रखा बल्कि उनके सुख-दुख और सब-आल्टर्न जगत को साथ लेकर फ़िल्म बनाने का ख़तरा मोल लिया। बहुत बड़ा संदेश कि यह हमसे अलग नहीं बल्कि हमारे जैसे ही हैं। जैसा आप समझ सकतें हैं "कुँवारा बाप" बनने को कोई भी प्रयोगवादी से लेकर बड़ा बिकाऊ हीरो तैयार नहीं हुआ। (इमेज का सवाल) और फ़िल्म क़तई नहीं चलने की। फिर क्या हुआ?

आख़िर ग़रीब रिक्शेवाले नायक, जो किन्नर बस्ती में उनके सुख-दुख में शरीक है, रहता है, का रोल महमूद ने ख़ुद किया।
और साहब क्या रोल किया, (आप सभी ज़रूर देखें कुँवारा बाप) उस ग़रीब, हर तरह से साधनहीन और मुसीबतों के मारे को मन्दिर की सीढ़ियों पर मिले एक पोलियोग्रस्त बच्चे के पिता के किरदार को साकार कर दिया उस वक़्त के स्टार कॉमेडियन ने। हँसी के पर्याय महमूद ने डूबकर रोल निभाया और सबको रुला डाला। फ़िल्म सुपरहिट रही। कहीं भी गाड़ी का प्रयोग उस किरदार ने नहीं किया। ठेला, हाथगाड़ी, रिक्शा साईकल सब चलाई फ़िल्म के किरदार में रंग भरने में। जो आज के तथाकथित सुपरस्टार या एनएसडी के तुर्रमखां करते कम और ढोल ज़्यादा पीटते हैं। उस वक़्त अस्सी के दशक में ख़ामोशी से इतना बेहतरीन मोल्डिंग और किरदार में सहजता से ढलना महमूद ने किया (हैट्सऑफ़ भाईजान)। दिलीप कुमार ने बाद में इस फ़िल्म और महमूद के अभिनय की जमकर तारीफ़ की।

और इस वर्ग का रहती दुनिया तक चलने वाला एंथम गीत मिला "सज रही गली तेरी अम्मा, सुनहरी गोटे में" (उभरते संगीतकार राजेश रोशन, गीतकार मजरूह) मिला।

इसके बाद डेढ़ दशक बाद महेश भट्ट सड़क, फिर तमन्ना में किन्नरो को क्रमशः महारानी खलनायक और गोद ली बेटी के पिता के रोल में लाए। बाद में शबनम मौसी आईं। बस यही है योगदान बड़े फ़िल्ममेकर्स का। क्योंकि बिना बाज़ार के फ़िल्म, हीरो, संगीत नहीं चलता। एक दमदार मीडियम जो कुछ गम्भीर और दमदार करता वह पीछे ही रहा।

(आ) साहित्य जगत में किन्नरों की दस्तक

नवउदारवादी समय की आहट से गम्भीरता से कुछ लोगों ने इस ओर पहल की। झाँका, कुछ क़दम चले तो पता लगा कि कुछ भी काम नहीं हुआ। तब तक लोक ने किन्नरों को चुनाव में खड़ा करके नब्बे की दशक के बाद की ढुलमुल सरकारों को जवाब देना प्रारम्भ किया। किन्नरों के चुनाव लड़ने को, भले ही वह पंचायत स्तर का हो अथवा वार्ड पार्षद का, मीडिया ने भी विषय बनाया। समाचार छपे तो हलचल हुई। स्पष्ट करूँ यह टी एन शेषन, मुख्य चुनाव आयुक्त वाला वक़्त था। जब सारे गड़बड़ करने वाले नेता थर-थर काँप रहे थे। इन्हें वोटिंग अधिकार मिला। उससे पहले तो आज़ादी के चालीस वर्षों तक तो वोट का भी हक़ नहीं था इनको। (सोचें ज़रा लोकतंत्र में इन्हें ही हक़ नहीं)। तो कार्य हुआ। समाचार बने एक या दो पार्षद या पंच बन भी गए। तो अपेक्षाकृत नए लेखकों ने अब जाकर गंभीर और सार्थक प्रयास किए। जबकि किन्नरों ने अपने आपको प्रूव किया।

"किन्नर कथा" 2010 में युवा लेखक महेंद्र भीष्म का विस्तृत शोधपरक उपन्यास है। जिसमें हिंदी साहित्य के इतिहास में सम्भवतः पहली बार इतनी विस्तार से किन्नर चर्चा की गई। इसमें किन्नरों के विभिन्न प्रकार, मठ और स्त्री-पुरुष किन्नर के बारीक़ अंतर बताए गए। यह एक बेजोड़ कथानक वाला उपन्यास आलोचकों की दृष्टि से अछूता रहा क्योंकि लेखक किसी संगठन से नहीं जुड़ा हुआ था। परन्तु इंडिया टुडे में इस पर समीक्षा उस वक़्त 2011 में प्रकाशित की। तत्पश्चात 2016 में "मैं पायल" इसी नाम के किन्नर की यथार्थपरक गाथा कहता इनका उपन्यास आया। जिसमें बहुत बारीक़ी से परिवार और समाज के मनोविज्ञान को को पकड़ा गया था। लखनऊ निवासी किन्नर गुरु पायल स्वयं उपस्थित रहीं इसके लोकार्पण पर। आज 2020 तक कई शहरों में इस पर बने नाटक के शो भी हुए हैं। और पायल ख़ुद मानती हैं कि जिस लेखकीय ईमानदारी और चेतना से महेंद्र भीष्म ने उपन्यास में इस समस्या को उठाया है वह इस समाज को विदेशों तक में चर्चित कर गया। सम्प्रति मेरे मित्र महेन्द्र भीष्म अभी गे लोगों को केंद्र में रखकर शोधपरक उपन्यास की तैयारी में हैं।

यहाँ एक तथ्य कि शबनम मौसी 2002 पहली विधायक, शहडोल के पास अबुजपुर से बनी। (जिन पर बाद में शबनम मौसी फ़िल्म, आशुतोष राणा अभिनीत बनी)।

प्रदीप सौरभ, ख्यातनाम पत्रकार और लेखक लगभग इसी समय सक्रिय हुए और “तीसरी ताली" उपन्यास के माध्यम से चुनावी समर और समाज से जूझते किन्नर की तेज़ कथानक वाली गाथा प्रस्तुत करते हैं। जिसकी ख़ास बात उसकी जुझारू प्रवृति है। इसी किरदार को वह अगले उपन्यास "मुन्नी मोबाइल" में अपराध सरगना बना देते हैं। यह थर्ड जेंडर की एक नई छलांग थी। वर्ष 2013 में हुई एक बातचीत में वह अपने पत्रकारिता जगत के अनुभवों के आधार पर मुन्नी किन्नर के डॉन बनने की बात को फेंटेसी की नज़र करते हैं।

विकास कथा लिखते किन्नर हाथ

इसके बाद आती है अपनी तरह की पहलीं एक किन्नर की आत्मकथा, डंके की चोट पर। वर्ष 2015 (मोदी आ चुके थे छप्पन इंच के सीने के साथ) किन्नर लक्ष्मी नारायण वाजपेई सीधे अपनी कहानी बयां करते हैं। यह गर ख्यातनाम आलोचकों की निगाह से देखें, तो पूरी विश्वसनीय और भोगे हुए कष्ट यथार्थ का शब्दों में रूपांतरण। बचपन से लेकर पिता द्वारा समाज के डर से, वही बार-बार दोहराई दर्द भरी सच्चाई, अपने बेटे का त्याग। किन्नर जगत के स्याह कोने, गद्दियों, गुरुओं का भुगता हुआ यथार्थ। फिर वाजपेयी की देश भर में किन्नर समुदाय की शिक्षा और पहचान में पुरुष, स्त्री के अतिरिक्त तीसरा कॉलम किन्नरों के लिए भी होने का प्रावधान लागू हो जैसी सफल मुहिम का वर्णन। उल्लेखनीय किताब जिसकी समीक्षा को निस्संदेह हर जगह, हर साहित्यिक पत्रिका में स्थान मिलना चाहिए परन्तु नहीं दिया गया। क्योंकि आलोचकों की पूरी पीढ़ी ही उसी मानसिकता की निकली जो सत्तर सालों से चली आ रही है। अपने ही बनाए मानदंडों, कि दलित ख़ुद ही अपनी कथा, कहानी लिखेगा तो वह अधिक विश्वसनीय होगी कहने वाले आलोचक अब चुप हो गए। एकाध अपवाद छोड़ दें। वह सभी यही समझते रहे कि वह नहीं चर्चा करेंगे तो कोई किन्नर विमर्श नहीं होगा। कितने ग़लत निकली यह सोच। बी एच यू, दिल्ली यूनिवर्सिटी और प्रमुख लिट् फेस्ट, अजमेर (रास बिहारी गौढ), इंदौर लिट् फेस्ट (प्रवीण), मेरठ (विजय पंडित) आदि कई जगह किन्नरों और उनकी समस्याओं और मौलिक अधिकारों पर अनेक सफल सेमिनार किए गए। हिंदुस्तान की नई पीढ़ी इस बात में भी जागरूक निकली कि वह इन्हें कोई हव्वा या समाज बाहर नहीं मानती बल्कि इन्हें भी जीता-जागता अपने जैसा ही इंसान मानती है।

काफ़ी बाद 2016 में

"पोस्ट बॉक्स न. 203 नाला सोपारा" उपन्यास लेकर हिंदी पटल पर आती हैं चित्रा मुद्गल। विनोद शाह उर्फ़ बिन्नी नामक किन्नर की कहानी। जो दसवीं तक अच्छे स्कूल में पढ़ा, पिता के विरोध के बाद भी उसकी माँ ज़िद करके उसे पढ़ाती है। पर फिर वही समाज के कारण किन्नर आकर उसे जबरन ले जाते हैं। वह कुछ दिन रोता है, दुखी होता है फिर किन्नर गुरु के समझाने पर की यही नियति है हमारी। जो शिकायत है वह ऊपर वाले से करो। वह अँग्रेज़ी और कंप्यूटरज्ञान जानने के कारण जल्द तरक़्की करता माफ़ियानुमा नेता की निगाह में आ जाता है। उसको स्कूल समय की एक लड़की उसे अच्छी लगती थी। पर वह किन्नर है, यह सब जान जाते हैं। और अंत में बिन्नी किन्नर की हत्या हो जाती है। यथार्थ और गल्प के मिश्रण से ज़्यादा लेखक के वज़न ने साहित्य अकादमी अवार्ड चित्रा मुद्गल को दिलवाया।

इससे काफ़ी पहले महेंद्र भीष्म, प्रदीप सौरभ की किताबों के आसपास ही हंस में युवा लेखिका किरण सिंह की लंबी कहानी "संझा' काफ़ी चर्चित रही किन्नर विमर्श। दस वर्ष में मातृविहीन बेटी को वैद्य पिता पालते, पढ़ाते। उसे पूरी वैद्य विधा, जड़ी बूटी की जानकारी सिखा गुज़र गए। अब दुनिया नहीं जानती की वह लड़की नहीं किन्नर है। वह बापू की सिखाई वैद्य विद्या से जीवनयापन करती बढ़ती है। तलवार सिर पर लटकी है। यहाँ कहानी ख़त्म।

एक नए आयाम के साथ आती है कहानी "याद रखोगे मुझे" (मधुमती, जून 2019 राज. साहित्य अकादमी संदीप अवस्थी) जिसमें पिता हर शहर से कुछ वर्षों में तबादला कराता बेटी को बचाता है। माँ भी बेटी को पन्द्रवें वर्ष में मज़बूती से अपने से लिपटा उसकी कमी को उसकी ताक़त बनाती है। बाद में ठीक हो जाएगा सब। वह उसे किन्नर होने का अहसास नहीं होने देती। neet (मेडिकल प्रवेश परीक्षा) पास कर बेटी डॉक्टर बनती है। कहानी में है दृश्य कि युवा साथी डॉक्टर उसे प्यार करता है, शादी के लिए प्रपोज़ करने घर आ रहा है। इधर यह भावनाओं का क्या करे? यह उसके आने से घण्टों पहले उसे मैसेज कर अपनी सच्चाई बता देती है। और ख़ूब फूट-फूटकर रोती है। ज़िंदगी की, सृष्टि की सबसे बड़ी और हर एक को प्राप्त नेमत प्यार, लगाव परिवार पर इसका हक़ नहीं। दुखी आत्मा से अपने होने के अर्थ खोजती, बार-बार मोबाइल चेक करती पर कोई जवाब नहीं। शाम दरवाज़े पर बेल बजती है। वही डॉक्टर है, कहता है एक कमी से ज़िंदगी ख़त्म नहीं होती, तुम में इतनी ख़ूबियाँ हैं, वह मेरे लिए बहुत हैं। तुम्हारे ख़ूबसूरत प्यार भरे दिल और आत्मा में कोई कमी नहीं।

यह दर्शाती है कि हमारा सामान्य व्यवहार, जैसा हम ख़ुद से करते हैं, इन्हें मुख्य धारा में लाने की सफल वज़ह बन सकता है। वरिष्ठ लेखिका कुसुम खेमानी, "लाल बत्ती की अमृत कन्याएँ" (वर्ष 2018, वाणी प्रकाशन) में ज़िक्र करती हैं। इनके अल्प शिक्षित होने के बाद भी फुटकर काम करके स्वावलंबी बनने की बात बड़े ही रोचक ढंग से लाती हैं। और यह भी इंगित करती हैं कि समाज के काफ़ी लोग इनकी शिक्षा, मुख्यधारा से जुड़ने में मदद करने को तैयार हैं। ज़रूरत बस जोड़ने के किसी पुल की है जो कुछ प्रबुद्धजन और युवा पीढ़ी बना रही है। बाक़ी प्राचीन भारत में इनकी दशा कोई छुपी नहीं। वह नामात्र उल्लेख महाभारत से लेकर मुगलों तक में आया ही है।

सबसे बेहतरीन यह लगता है कि 21 वीं सदी के साहित्य में कहीं भी इन्हें कमज़ोर, हालात के आगे हार मानकर ख़ुदकुशी या मरते नहीं बताया है। यह एक ज़िंदगी होश सँभालने के पहले जीते हैं और दूसरी किन्नर होने, अपने पूर्व के वजूद को मिटाकर जीना बहुत हिम्मत का सकारात्मक कार्य है। साथ ही लेखकों को यह और समझना होगा कि अपराध माफ़ियागिरी यह नहीं करते बल्कि सरगना (किन्नर नहीं) करवाते हैं। किन्नरों को फ़िल्मी विलेन न बनाएँ। इस विषय पर बहुत काम होना बाक़ी है।

इन किताबों से पूर्व

हिंदी साहित्य के इतिहास की तीन चौथाई सदी में कुछ इन पर विशेष नहीं लिखा गया। एक दो जगह इनका ज़िक्र मामूली सा हुआ। वह भी मखौल उड़ाने के ढंग से। समाज के इस हिस्से को ग़लीज़ मान उसे अँधेरे में ही रखा। पर यह 21वीं सदी है और यह हक़ रखते हैं साँसों पर, जीने पर, देश पर।और अब वह मिलना प्रारम्भ हुआ है।

धीरे-धीरे ही सही पर बदलता परिदृश्य

एक प्रश्न यह उठता है कि समाज की धारा में आने के लिए सामान्य रूप से नौकरी भी इन्हें मिले? और यह काम करें विभिन्न क्षेत्रों में। तो यह हो रहा है।
रिया जैन, लड़के के रूप में हरियाणा से M A English करके एक निजी स्कूल में अपनी सच्चाई के साथ शिक्षक हैं। परसाई और ज्ञानरंजन के जबलपुर (मध्यप्रदेश) ने एक किन्नर को सगर्व अपना मेयर चुना। गाड़ी बंगला और शक्ति से लोक ने तंत्र का हिस्सा बनाया। मनोमणि बंधोपाध्याय,अभी हाल 2018 तक पश्चिम बंगाल में एक स्कूल की प्राचार्य रहीं। अब VRS लेकर किन्नरों के लिए और अधिक कार्य कर रही हैं पूरे देश में। ऐसे ही और भी उद्धरण हैं।

अब किन्नर क्यों कहें इन्हें? बुद्ध पुत्र यह हमसे ही हैं।

पचास से अधिक ऑर्गन में से एक नहीं होने से क्या यह हमसे कमतर इंसान हो गए? बिल्कुल नहीं। और जबसे सेरोगेसी और ivf तकनीक के मामले सफलता से बढ़े हैं तब तो भविष्य में बुद्ध पुत्र मिलकर अथवा अकेले भी, आर्थिक स्थिति ठीक ठीक होने पर कोई शिशु अथवा नवजात गोद ले सकते हैं। 

और उसके पालन पोषण से परिवार का सुख भी पा सकते हैं। जरूरत हमे अपनी सोच और व्यवहार को बदलने की है। तो कब बात करने और चाय पीने जा रहे हैं आप इनके यहाँ?

संदर्भ

1. इंडिया : ए वाउंडेड सिविलाइजेशन वी एस नायपाल,2010
2. कठोपनिषद भाष्य,2016,विस्तृत व्याख्या डॉ. प्रकाशवती शर्मा
3. किन्नर गाथा सामयिक प्रकाशन,2011,महेंद्र भीष्म
4. तीसरी ताली, 2011 मुन्नी मोबाइल 2013 दोनों प्रदीप सौरभ
5. पोस्ट बॉक्स 203 नाला सोपारा 2017,सामयिक प्रकाशन चित्रा मुद्गल
6. मैं पायल,2015,सामयिक प्रकाशन,महेंद्र भीष्म
7. तमन्ना सड़क जैसी फिल्में महेश भट्ट की। जिनमे थर्ड जेंडर का अलग पक्ष एक पिता और सड़क में महारानी के रूप में एक खलनायक का काल्पनिक चित्रण
8. संझा, कहानी हंस, 2011, सितंबर किरण सिंह
9. शांकर वेदांत, टी एम पी महादेवन,1994 गीता प्रेस गोरखपुर
10. मैं लक्ष्मी, मैं हिजड़ा 2015 लक्ष्मी शंकर वाजपेयी आत्मकथा

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