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लंदन में गाँधी जी का प्रथम बंदर

वह छात्रवृत्ति पर लंदन स्कूल आफ इकोनोमिक्स में अध्ययनरत था। ग्रीष्मावकाश में उसकी पत्नी और दोनों बच्चे भी लंदन घूमने आ गये थे। किफ़ायत से घूमने के लिये सबने अंडरग्राऊँड रेल के मासिक पास ले लिये थे जिन पर लंदन की सीमाओं के अंतर्गत अंडरग्राऊँड एवं बस दोनों पर असीमित यात्रा की अनुमति थी।

घुमक्कड़ी के दौरान उन सबने पाया कि लंदन के लोग मिष्टभाषी थे। और नियमों के पालन के विषय में पक्के थे; परंतु अंग्रेजों में कहावत हैं कि ’अपवाद ही नियम को सिद्ध करते हैं’। एक दिन उसे और उसके बड़े बेटे को पैडिंग्टन स्टेशन से होबर्न जाना था और वे अपने पास लाना भूल गये थे। नियमत: सोलह वर्ष तक की आयु पर आधा टिकट लगता था। बेटे की आयु तो साढ़े पंद्रह वर्ष ही थी। परंतु अपनी ऊँचाई और उगती हुई दाढ़ी-मूँछ के कारण वह अधिक का लगता था। बेटे ने टिकट खिड़की पर डेढ़ टिकट माँगा। तो वहाँ बैठे वेस्ट-इण्डियन ने उन दोनों को घूरते हुए कहा। "चाइल्ड टिकट फौर हूम?" बेटे द्वारा अपनी ओर इशारा करने पर वह भीमकाय वेस्ट इंडियन टिकट देते हुए बोला, "बेबी! व्हाई डोंट यू सिट इन योर फादर्स लैप?"

दूसरे अवसर पर वे चारों अंडरग्रांऊँड रेल से हीथ्रो चले गये थे। जहाँ तक के लिये पास वैध नहीं था। उसने उतरकर चारों पास टिकट-चेकर, जो देखने में हिंदुस्तानी लग रहा था। को दिखाये। उन्हें देखते ही टिकट-चेकर के मुख से एकदम निकला, "बट......" परंतु उसके उपरांत उन चारों के चेहरे देखकर टिकट-चेकर का चेहरा गाँधीजी के तीन बंदरों की तरह ऐसे मूर्तिवत हो गया जैसे वह किसी बुराई को न देख रहा हो। न सुन रहा हो। और न बोल रहा हो। फिर जब अन्य यात्री निकल गये तो उसने दाहिनी हथेली से उन्हें चुपचाप गेट के बाहर निकल जाने का इशारा कर दिया। उस समय उसने अपनी दायीं आँख भी ऐसे झपकायी जैसे गाँधी जी का पहला बंदर अपनी शरारत का मजा ले रहा हो।

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