लुप्तप्राय
काव्य साहित्य | कविता भावना सक्सैना1 Mar 2019
बस कुछ ही बरसों बाद
याद की जाएगी
औरतों की वो जमात
जो सुबह से शाम
कर देती थीं
बिना कुछ करे...
जो नौकरी नहीं करती थीं
लेकिन मुँह अँधेरे
आँगन बुहारती थीं
घर को सँवारती थीं।
जिनके घर में रखा मंदिर
महकने लगता था
हर सुबह ताज़े फूलों से
दीपक की लौ संग
स्फुरित होता था आशीर्वाद
और हर भोग के बाद
बँटता था प्रसाद।
बच्चों के स्कूल से लौटने पर
सेंकती थी गर्म रोटियाँ
और शाम के नाश्ते को
रखती थी तैयार
देसी घी के लड्डू-मठरियाँ।
जाड़ों की धूप में वे
सलाइयों पर बुनती थीं प्यार।
जिनके बने मीठे नमकीन
पूरन-पोली और रंगोली
सजाते थे त्योहार
जिनके आँगन और छज्जे
पुकारते थे सूर्य को
कि सुखाने होते थे
उनमें फैले पापड़-अचार
वहाँ गुड-डे और चीतोज़ के
डिब्बे-पैकेट नहीं खुलते थे
मनुहारों में दिखता था प्यार।
क़तरा क़तरा रिसकर
जो सींचती थी परिवार
किंतु तरसती थी हर बार
पाने को उचित व्यवहार।
इनकी पुत्रियों के मन में
असीम स्नेह के संग
घर कर गया क्षोभ,
आर्थिक स्वतंत्रता में
देखने लगीं वे मुक्ति का द्वार
समय के साथ
आगे बढ़कर सँभालने लगी
अर्थ व्यवस्था की भी कमान
पुरुष के कंधे से कंधा मिला
चलने लगीं संग
कुछ साझे समझौते किए
अन्नपूर्णा से संपूर्णा बन
सुबह के अलार्म संग
शुरू हुई घनघनाहट
चलती सुबह से रात तलक
घर-बाहर सँभालती
दौड़ती फिरती
हर मोर्चे पर…
कहीं पूरा तो कहीं
आधा दिन कमाती
सारे बिल भरती
बैंक के काम निपटाती
बच्चों का होमवर्क कराती
टीचर से मिलने स्कूल जाती
सुपर-वुमैन बनने को बेताब
दौड़ती, तो बस दौड़ती जाती
घर परिवार की ख़्वाहिशों को
स्वयं होम होती जाती
जितनी पूरी करती
उतनी ही और खड़ी पाती
हाँ! उतनी ही ख़्वाहिशें और पाती।
क़तरे का क़तरा
भी रखा नहीं ख़ुद को
उलाहनों से
फिर भी बच न पाती।
उलाहनों की ये दरारें
भेद गयीं मन को
हुआ फिर एक और अवतार
अगली पीढ़ी की स्त्री
पहचानने लगी
अपनी शक्ति
जल, थल नभ पर
कर दिए हस्ताक्षर
किंतु खोने लगी
परंपरागत स्त्रीयोचित व्यवहार
स्वयं को साबित करती
स्वयं से ही लड़ती
खड़ी है आज शमशीर उठाए
नकारती सब परंपराएँ।
होती है आहत
अपने ही शर से
अपने जोख़िम पर
लाँघती है कई सीमाएँ
क्योंकि
प्रश्नों का उसके
उत्तर नहीं है
किसी के पास
कोई कोस देता है
तो कोई करता है परिहास।
लेकिन अभी भी
इस लुप्तप्रायः जाति में
बाक़ी है कुछ जान
वो छोड़ नहीं पाई फ़ितरत
नेह, ममता और संवेदना की
भीग जाती है भीतर तक
दुनिया के ग़म से।
वो लड़ती है...
अपने अधिकार के लिए
तरसती है नेह भरे
व्यवहार के लिए
वो सम्मान की अधिकारिणी
उसके सामने बौना है
तुम्हारा ओछा संसार
उथला व्यवहार।
नेह का व्यापार नहीं
माँगती है वह
निश्छल नेह भरा संसार
बस नेह भरा संसार।
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टिप्पणियाँ
भावना सक्सैना 2019/03/07 01:52 PM
आभार सरिता जी।
Sarita 2019/03/01 10:29 AM
Sundar suvyavasthit sanklan, samvednaon ka
कृपया टिप्पणी दें
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Sunita Pahuja 2019/03/08 04:03 AM
वाह!अद्भुत ।