माँ अब
काव्य साहित्य | कविता सुशील कुमार31 Oct 2008
माँ के चेहरे पर दु;खों के जंगल रहते हैं
फिर भी उसके आँचल में
सुख की घनी छाया किलकती है।
माँ की पथरायी आँखों में अब
न सागर लहराते हैं न सपने ।
सभ्यता की धूसरित दीवार से टँगी
वह एक जीवित तस्वीर है केवल
जहाँ तुम्हारे शब्दों से अलग
इतिहास के पन्ने फड़फडा़ते हैं
तुम्हें आगाह करते कि
माँ पृथ्वी है घूमती हुई
अँधेरे को उजास में बदलती हुई
जिसकी गुफ़ाओं में एक सूर्य उदीयमान है
रोम-रोम में जीवन की जोत जगाता हुआ,
तुम्हारे शब्दों और भाषाओं की गहरी
काली रात हरता हुआ।
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